राजनीति के दाव-पेंच को दर्शाता उपन्यास - लोकतंत्र के वारिस


रामगोपाल तिवारी "भावुक" एक मजे हुए कथाकार हैं। उनकी कहानियाँ और उपन्यास दोनों ही पाठकों को बहुत पसंद हैं। इसका कारण यह है कि उनके उपन्यास एवं कहानियों के कथानक, पात्र, घटनायें तथा परिवेश उनके जाने - पहिचाने और उनके इर्द - गिर्द के ही रहते हैं। इसलिए  वे पात्रों से सीधे जुड़ जाते हैं। उपन्यास में वर्णित घटनायें उनके समक्ष घटित होतीं हैं या उनकी सुनी हुईं हो

तीं हैं या स्वयं उनकी होतीं हैं। आपकी कहानियों और उपन्यासों के पात्र और परिवेश भी पाठकों के चिर - परिचित होते हैं। इस तरह भावुक जी का लेखन यथार्थ परक ही अधिक है। कल्पनाओं का ताना- बाना उनके कथानकों में बहुत विरल  होता है। अनुभूति की सच्चाई जिस कथाकार में जितनी अधिक और घनीभूत होगी , वह उतना ही अधिक सफल होगा। भावुक जी के उपन्यासों तथा कहानियों  में ऐसा होता है। 

"लोकतंत्र के वारिस " उपन्यास, राजनीति का विद्रूप चेहरा  लेकर पाठकों के समक्ष उपस्थित होता है। आजादी के समय राजनीति में बहुत कुछ शुचिता हुआ करती थी लेकिन आज यदि किसी को मनुष्य के पतन की सच्ची तस्वीर देखनी हो तो उसे वह राजनेताओं में देखने को मिल जायेगी। मन्नू भंडारी का "महाभोज" उपन्यास और भावुक जी का "लोकतंत्र के वारिस" दोनों ही ऐसे उपन्यास हैं जो राजनीति और राजनेताओं के कच्चे चिट्ठे खोल देते हैं। 

राजनेता अपनी जीत के लिए घृणित से घृणित कार्य भी करने में नहीं हिचकते। इस उपन्यास में भी इसी तरह की घृणित राजनीति का पर्दाफाश भावुक जी करते हैं। 

चमेली उर्फ अमृता देवी जो कि एक मजदूरिन है , खेली - खाई ऐसी स्त्री पात्र है जो अपने सौन्दर्य एवं यौवन को भुनाना अच्छी तरह जानती है और इसी के बल पर वह जनपद अध्यक्ष से विधायक और फिर अगले चुनाव में वह  मंत्री का पद भी प्राप्त कर लेती है। कैसे टिकट प्राप्त करना है, कैसे हाईकमान को खुश करना है, असरदार नेताओं को कैसे अपने अंटे में रखना है। इतना ही नहीं जनता को, विरोधी नेताओं को और अपने परिवार को, पति को कैसे बहलाना है यह भी वह अनपढ़ सी राजनेता भलीभाँति जानती है। ये सब राजनीतिक छरछंद भी उसने इसी समाज से सीखे हैं। उसका अध्यापक  पति सुनील  तो नाममात्र का पति है। वह विवस होकर उसकी चकाचौंध में चकरघिन्नी बना उसकी कुत्सित चेष्टाओं  तथा चरित्र हीनता को  मौन होकर देखता रहता है, सहता रहता है और अपमान को भी झेलता रहता है। उसे अपनी मंत्री पत्नी से वह सुख नहीं मिलता जिसका वह हकदार है। उसकी निरीहता, दैन्यता पर किसी को भी तरस आ सकता है लेकिन उसकी मंत्री पत्नी को नहीं आता क्योंकि उसे राजनीति का चस्का लग चुका है। वह तो और बड़े - बड़े नेताओं को खुश करने में लगी रहती है, जिनसे उसे लाभ है। माँ से उसकी स्वीकारोक्ति इस संदर्भ में बहुत ही उल्लेखनीय है - " माँ आप समझती नहीं हैं। इससे बच्ची उसकी तो नहीं हो जायेगी। बच्ची तो सुनील की ही कहलायेगी कि नहीं। " पृष्ठ 57 

अमृता देवी जब भोपाल में विधायक पद की शपथ लेकर अपने घर आती है तो माँ उसके बालों में कंघी करने लगती है।  "जब उसके बाल गुथ गये तो बोली- चल उठ, पेटीकोट उतार दे। आज पेटीकोट ही पहने ही बैठी है। 

अमृता बोली - माँ मैं अकेला पेटीकोट ही पहने हूँ। उसे भी उतार दूं। माँ इस चुनाव में तो मैंने महीने भर से चड्डी नहीं पहनी है, तब तो चुनाव जीत पाई हूँ। यह सुनकर माँ उसके चेहरे की तरफ देखती रह गई। " पृष्ठ 34 । यह है हमारे देश की राजनीति का घृणित चेहरा। अब वह यह अच्छी तरह जान चुकी है कि वोट कैसे कबाड़े जाते हैं, विरोधियों को कैसे पटाया जाता है, कैसे जमीनों पर अतिक्रमण किया जाता है, कैसे अवैध रेत खनन कराया जाता है, कैसे दारू के ठेकेदारों, कर्मचारियों , उद्योग पतियों और अन्य ठेकेदारों से अवैध वसूली की जाती है। किस तरह अनेक स्वांग रचकर तथा बहुरुपिया बनकर विरोधी वोटरों को भी अपने पक्ष में किया जाता है। गलत काम करके भी कैसे पाक - साफ रहा जाता है तथा कैसे उन लोगों से जो उसके लिए अवैध वसूली में संलग्न थे उनके पकड़े जाने पर उनसे कैसे दूरी बना ली जाती है। कब किससे क्या काम लेना है और फिर कैसे उसे दूध की मक्खी की तरह  उसे निकाल फैंका जाता है।  यह वह अब अच्छी तरह जान चुकी है। इस उपन्यास में आज का लोकतंत्र अपने घिनौने रूप में बहुत ही विद्रूप चेहरा लिए जनता जनार्दन के जुलूस में आगे - आगे चल रहा है। जनता उस विदूषक का  बिना सोचे - समझे अनुगमन करती हुई उसके पक्ष में नारेबाजी करके अपना सौभाग्य मान रही है।  विपक्ष की नीतियों के विरोध में जुलूस निकाल कर वह ऐसा ही करती है। अमृता देवी अब  जनता की नब्ज एवं राजनीतिक दाव - पेंचो  को  बखूबी पहिचान चुकी है इसलिए 

भावुक जी लिखते हैं कि - " अब वह एक अनुभवी नेता की तरह पंख फैलाकर चुनाव लड़ रही थी। उसे पता था, कौन किसका आदमी है? कौन किसके दबाव में है? कौन सा वोटर क्या चाहता है? उसने सभी की नब्ज पकड़ कर रखी थी। " पृष्ठ 94 

भावुक जी का यह उपन्यास आंचलिकता का स्पर्श करता प्रतीत होता है। इस उपन्यास में ग्वालियर के आसपास का परिवेश जीवंत होकर उभरा है। ग्वालियर, डबरा, दतिया, झांसी आदि क्षेत्रों के ग्रामीण अंचल के खेत, खलिहान, नदी - नाले और इस क्षेत्र के तीज - त्यौहारों पर खेले जाने वाले खेल तथा उन अवसरों पर गाये जाने वाले गीत भी इस उपन्यास को आंचलिक रंग देने में पूर्ण समर्थ हैं। उपन्यास के ग्रामीण पात्र पंचमहली बोली का स्वाभाविक व्यवहार करते हैं। इससे भी आंचलिकता का रंग इसमें  और अधिक गहरा हो गया है। 

विधायक अमृता देवी वोट कबाड़ने के चक्कर में" खोइया " खेलती है  जो बुंदेलखंड में बरात रवाना होने के बाद वर पक्ष की महिलाओं द्वारा पूरी रात  खेला जाता है। कहीं -

कहीं वह  वोटों के लिए भागवत कथा की कलश यात्रा में भी शामिल होती है और समवेत स्वर में गीत भी गाती है - 

"लेलियो हरि को नाम, आगें गैल कठिन है। " पृष्ठ 96

उपन्यास के पात्र समसामयिक समाज का यथार्थ चित्रण करते हुए नजर आते हैं। हर किसी के अपने स्वार्थ हैं और वे उन्हीं के वशीभूत होकर अपने क्रिया - कलापों में व्यस्त हैं। कोर्ट - कचहरी, स्कूल, कालेज, किसान, मजदूर, पुलिस, अफसर, नेता, कर्मचारी और व्यवसायी सभी की अच्छी - बुरी आदतों को भावुक जी ने बहुत ही बारीकी से वर्णित किया है। अमृता देवी हर वर्ग के लोगों को अपनी पकड़ में रखती है। सभी के सुख - दुख में शामिल होती है। वह भले ही नकल से जैसे -  तैसे  हाईस्कूल पास हुई हो और ढंग से शब्दों का उच्चारण भी न कर पाती हो लेकिन वह अपने सौम्य व्यवहार से सभी को अपना बना लेती है। इस उपन्यास को आधुनिक  राजनीतक जीवन का सच्चा दस्तावेज कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।  उसके इर्द - गिर्द घूमने वाले सभी लोग अपने - अपने स्वार्थ में लिप्त हैं लेकिन एक पात्र ऐसा है जो पूरी तरह से निस्पृह जीवन जीता है। वह बिना स्वार्थ के सभी  की सहायता के लिए तत्पर रहता है। वह है मिश्री काका। वह  चुनाव के समय  अमृता देवी की भी मदद करता है।  धोबी समाज का होते हुये भी मिश्री काका निर्भीक और निडर पात्र है। आसपास के गावों में  उसकी अच्छी खासी पैठ है ।  मिश्री काका पहलवानी करते हैं। होली के समय वे लाठीबाजी  में विजयी होते हैं।  लाठी बाजी  के पूर्व वे सभी के साथ फाग गाते है - " बारह गज को फैंटा --- हरि को बारह गज को फैंटा।" पृष्ठ 71 । आस पास के गावों में उनकी  अच्छी प्रतिष्ठा है।  यही कारण है कि अमृता देवी चुनाव में उनको अपने पक्ष में कर लेती है।भावुक जी के उपन्यास में गाँव अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ  जीवंत हुए हैं। गाँव अपने ठेठ गंवई जीवन के साथ उपन्यास में जीवन- यापन करते दृष्टिगत होते हैं। जीवन की आपाधापी का ऐसा जीता - जागता चित्रण अनुभवी साहित्यकार ही कर सकता है। उपन्यास की भाषा बहुत ही सधी हुई और उनके पात्रों के अनुसार ही है। भावुक जी की भाषा में बिम्बों का सुंदर निदर्शन हुआ है।  भाषा भावों की अनुगामिनी है। शब्दों  के अल्प प्रयोग से भी  से वे अपनी बात को  विस्तार से कह देते हैं।  ऐसा  मुहावरों और लोकोक्तियों के सुंदर प्रयोग के कारण संभव हो सका है।  इस हेतु  एक उदाहरण  देना ही पर्याप्त है । अवैध वसूली के  कारण  मंत्री पद चले जाने पर वह अपनी माँ से कहती है  - " कोई  राजी से इतना बड़ा पद छोड़ता है।मुझे तो यूँ ही मूरख समझती है। अरे ये बलजीत और बिपुल दोनों ही काले सांप हैं। इनका काटे का कोई इलाज नहीं है और तूने इन्हें ही घर में पाल रखा है।मुझे तो इन दोनों की सूरत से ही सख्त नफरत है।लेकिन क्या करें घर का दाम खोटा तो परखैया का क्या दोष? वे यह बड़बड़ाते हुये वहाँ से चलीं गयीं। " पृष्ठ 119 । इस उपन्यास में उपन्यास के अनुकूल ही विभिन्न शैलियों का सटीक प्रयोग करके उपन्यासकार ने अपने परिपक्व कौशल को दर्शाया है। आंचलिक रंगों से भरपूर यह उपन्यास अंचल की  समसामयिक राजनीति  का बखूबी चित्रण करने में पूर्णतया सफल हुआ है। इसलिए यह पठनीय और प्रशंसनीय है। 

समीक्षक -  डॉ अवधेश कुमार चंसौलिया 

  

समीक्ष्य कृति - लोकतंत्र के वारिस 

उपन्यासकार - रामगोपाल तिवारी भावुक 

प्रकाशक - विकल्प प्रकाशन, सोनिया विहार, दिल्ली 

मूल्य -₹400 , संस्करण 2024