वरिष्ठ लब्ध-प्रतिष्ठ प्रतिभा-सम्पन्न व्यंग्यकार डा.दिनेश चंद्र अवस्थी उत्तर प्रदेश विधान सभा के विशेष सचिव एवं वित्त नियंत्रक पद से सेवा-निवृत्त होकर संप्रति एक अधिवक्ता के रूप में कार्य करते हुए भी निरंतर साहित्य-सर्जना में रत रहते हैं।अब तक उनकी अनेक कृतियाँ,यथा-दिनेश की कुण्डलियाँ, सामयिक कुण्डलियाँ, भावांजलि(गीतिका संग्रह), एहसास की खुशबू(फ़ारसी लिपि में),कवि प्रदीप का हिन्दी साहित्य में अवदान(शोध-समीक्षा)व्यंग्य बाण,पद्यात्मक सूक्ति कोष,दोहा वल्लरी आदि प्रकाश में आ चुकी हैं।डा.अवस्थी जी अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित होते रहे हैं।उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान के संस्थापक तथा महामंत्री एवं इसी संस्था द्वारा 'अपरिहार्य' पत्रिका के प्रकाशन में डा.अवस्थी का योगदान विशेषतः उल्लेखनीय है।समाज एवं साहित्य-सेवा के प्रति उनमें उदार समर्पण-भाव है। साहित्य- भाण्डार की श्रीवृद्धि के लिए वे अद्यावधि सुधी रचनाकारों के प्रेरक स्तम्भ बने हुए हैं।अतएव उन्हें विशिष्ट हिन्दी-सेवी का गौरव प्राप्त है।
'दिनेश दोहावली'डा.अवस्थी की दोहा छंद प्रधान नवीनतम प्रकाशित कृति है।'दोहा' अथवा 'दूहा' का मूल प्रायः 'दोधक' शब्द कहा जाता है,किन्तु 'प्राकृत पैंगलम्' के टीकाकार इसका उत्स 'द्विपदा' शब्द को मानते हैं ।इसके विपरीत आचार्य हेमचंद्र 'द्विपथा' शब्द से।प्राकृतपैंगलम् तथा अन्य छंद-ग्रंथों में दोहे के २३ भेदों का उल्लेख हुआ है।प्रायः सर्वाधिक प्रचलित दोहा छंद के पहले तथा तीसरे चरण में १३,१३ और दूसरे तथा चौथे में ११,११ मात्राएँ होती हैं।चरणान्त में यति होती है।विषम चरणों में जगण (१२१) वर्जित है।अन्त में लघु रहता है।प्राकृत साहित्य में जो स्थान गाथा का है,वही प्रयोग के विचार से अपभ्रंश में दोहे का।यह उत्तरवर्ती अपभ्रंश का प्रधान छंद रहा है।आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, ''दोहा वह पहला छंद है,जिसमें तुक मिलाने का प्रयत्न हुआ।'' पुरानी अपभ्रंश में (लगभग ९वीं शताब्दी के आरम्भ में)सिद्ध- कवि सरहपा ने सर्वप्रथम इसका प्रयोग किया।स्वयम्भू के 'पउमचरिउ' में भी यह प्रयुक्त है।हिन्दी में यह छंद अपभ्रंश से आया है।पर,कुछ विद्वान कालिदास के 'विक्रमोर्वशीयम्' में इसका प्राचीनतम रूप उल्लिखित बतलाते हैं।जो भी हो,इतना तो निर्विवाद है कि ५वीं या ६वीं शती के बाद यह बहुलता से प्रयुक्त होने लगा।इसका सम्बंन्ध हाल की सतसई से भी बताया जाता है और सबल तर्कपूर्वक यह स्थापित किया जाता है कि कदाचित् यह लोक-प्रचलित छंद रहा होगा। इस दो पंक्तियों के छंद के तीन रूप राजस्थानी में मिलते हैंः'बडो़ दूहो','तूँबेरी दूहो' और 'अनमेल दूहो';अस्तु।'दोहा' हिन्दी मुक्तक काव्य का सबसे यशस्वी और लोक साहित्य का सबसे सरलतम छंद है।यह संक्षिप्त और तीव्र भावाभिव्यंजन तथा प्रभावी लघु बिम्ब- प्रस्तुति में अत्यंत सक्षम होने से कवियों को विशेष प्रिय रहा। 'सतसई-रचना' परम्परा में इसे शीर्ष महत्व मिला है।
'कुण्डलिया' छंद भी 'प्राकृत पैंगलम्' तथा अपभ्रंश के छंद-ग्रंथों में उल्लिखित है।यह मात्रिक विषम छंद छः पंक्तियों का होता है।इसकी पहली दो पंक्तियाँ दोहे की और अंत की चार पंक्तियाँ रोला की होती हैं।प्रत्येक पंक्ति में २४,२४ मात्राएँ रहती हैं। दोहा के चतुर्थ चरण को रोला के प्रथम चरण में दुहराया जाता है तथा दोहे का प्रथम चरण जिस शब्द से शुरू होता है ,वही शब्द रोला के अंतिम चरण में रखा जाता है।यति दोहा तथा रोला के अनुसार ही रहती है।गिरधर की कुण्डलिया हिन्दी में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं।सूदन कृत 'सुजान चरित'में भी इसका उत्तम प्रयोग है।यह वीररस एवं उपदेश के लिए अधिक उपयुक्त माना जाता है।
प्रस्तुत कृति 'दिनेश दोहावली' छह सौ से अधिक दोहों का संग्रह है और इसमें लगभग डेढ़ दर्जन कुण्डलिया छंद हैं।अंत में'भला आदमी क्या कर लेगा'शीर्षक एक उत्कृष्ट व्यंजनापूर्ण गीत भी सम्मिलित है।इस काव्य-कृति में श्रेष्ठ मानवीय जीवन- मूल्य,मनुष्य जीवन के विविध सामाजिक सरोकार, मैत्री-प्रेम, भक्ति-अध्यात्म,नीति-उपदेश,प्रबोध-विमर्श,श्रम-संघर्ष,आचार-व्यवहार,कवि-कविता,कार्यालयी संस्कृति,राजनीति,देशभक्ति आदि अनेकानेक सामयिक विषयों पर रोचक और प्रभावी रचनाएँ हैं।सम्पूर्ण कृति में स्थान- स्थान पर वाग्-वैचित्र्य एवं व्यंग्य-विनोद का सहज रंजनकारी शिक्षाप्रद-पुट विशेष चित्ताकर्षक बन पडा़ है।वे अपने निम्नांकित दोहे में निर्दिष्ट उत्तम कविता की कसौटी पर खरे उतरते हैं,क्योंकि उनकी मौलिक उद्भावना-समृद्ध कविता पढ़-सुनकर अनायास मुख से "वाह" निकले बिना नहीं रहताः
"श्रेष्ठ कथन,ना व्यंजना,ना रस और प्रवाह।
कुछ कह लो कविता नहीं,कैसे निकले वाह।।"पृ.81.
डा.अवस्थी नवोन्मेषिनी प्रज्ञा के धनी हैं।उन्होंने साहित्यशास्त्र में परिगणित नौ या ग्यारह रसों के अलावा एक अन्य नये "झगडा़ रस" की भी स्थापना की है और तुलसी के "भावभेद रसभेद अपारा" वाली 'मानस' की उक्ति को उसी तरह सार्थक सिद्ध किया है जैसे तुलसी ने 'ध्यान रस'आदि के निर्वचन द्वारा किया था।अतः यहाँ उनकी 'झगड़ा रस'शीर्षक विशिष्ट कुण्डलिया उल्लेख्य हैः
"झगड़ा रस में है मज़ा,पति-पत्नी के बीच।
प्रेम-बेल सूखे नहीं,कभी - कभी लो सींच।
कभी - कभी लो सींच ,कीट मीठे में पड़ते।
रुकता तभी अचार , तेल कड़ुए में रखते।
भूले थे विद्वान कि यह रस है तगड़ा।
प्रेम बढ़े दिन- रात , प्यार से करना झगड़ा।" -पृ.55.
आज हमारी जीवन-शैली ऐसी सुविधा भोगी हो चुकी है कि हम अपने माता-पिता तक को वृद्धाश्रमों के हवाले करने में किंचित् नहीं हिचकते।इसके विपरीत कृतिकार डा.अवस्थी ने माँ की अनन्य वत्सलता की महिमा को बड़ी सादगी-भरे जिस वाग्-वैदग्ध्य से प्रस्तुत किया है,वह कितने गहरे स्वानुभूतिक यथार्थ की व्यंजक हैः
मेरी माँ थीं पढ़ी पर , गिनती में थीं दीन।
रोटी देतीं पाँच पर , गिनती थीं वे तीन।।पृ.9
इसी प्रकार 'गोदी तथा बच्चा'के लिए 'चंद्र-विन्दु' का यह रूपक कितना अर्थ-गौरवपूर्ण है,विचारणीय हैः
माँ जब लिखिए तो लगे,एक चंद्र ,इक विन्दु।
लेटा बच्चा विन्दु है , माँ की गोदी इन्दु।।पृ.9
कृतिकार डा.अवस्थी की व्यंग्यात्मक उक्तियों का लक्ष्य किसी की निन्दा या उसे आहत करना न होकर,करणीय- अकरणीय का बोध कराना अथवा सुधारात्मक या उपदेशात्मक है।व्यावहारिक जीवन सरोकारों के विभिन्न क्रिया-व्यापारों की विसंगतियों को परखकर उन पर सुधारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करके कृतिकार ने अपने कवि-धर्म का सम्यक् निर्वाह किया है;जैसे-
पत्नी हेल्मेट की प्रकृति,होती एक समान।
जब सिर पर धारण करो,तभी सुरक्षित जान।।पृ.11
× × × ×
दुनिया के सब जीव हैं स्वतःचलित रोबोट।
ईश्वर ने प्रोग्राम भर ,पकड़ा स्वयं रिमोट।।पृ.27
+ + +
पति है टायर की तरह,पत्नी होती ट्यूब।
जब दोनों ही ठीक हों,चले साहकिल खूब।।पृ.10
उक्त प्रथम दो दोहों में क्रमशःपत्नी की उपमा हेल्मेट से देने में उसको यथोचित आदर-सम्मान देकर सुरक्षित रह पाने तथा प्राणियों रूपी स्वतःचलित रोबोट का रिमोट परमेश्वर के हाथ में रहने के रूपक द्वारा कवि ने बड़ी चतुराई से जीवन की सार्थकता के लिए ईश्वर-भक्ति की अनिवार्यता की सूक्ष्म व्यंजना की है।तीसरे दोहे में गृहस्थी के लिए साइकिल तथा पति-पत्नी के लिए क्रमशःटायर और ट्यूब के अप्रस्तुतों द्वारा सुखद गृहस्थी चलाने के लिए पति-पत्नी के पारस्परिक सच्चे प्रेम और सहयोग की अपरिहार्यता निर्दिष्ट की गयी है।
इस काव्य-कृति की भाषा दैनंदिन जीवन में व्यवहृत होनेवाली सरल सुबोध खड़ीबोलीहै जिसमें उर्दू,अरबी-फ़ारसी, अँग्रेजी आदि के प्रचलित शब्दों को बेहिचक अपनाया गया है, जो कवि के भाषाविषयक उदार दृष्टिकोंण का प्रमाण है।उसमें स्थान-स्थान पर लक्षणा-व्यंजना का चमत्कार है।कहीं-कहीं मुहावरों के सुष्ठु प्रयोग एवं बिम्बात्मकता के भी दर्शन होते हैं।
डा.अवस्थी अपनी उर्वर कल्पना द्वारा विभिन्न भावों के उत्कर्ष के लिए नये उपमान,नये प्रतीक प्रस्तुत कर सामान्य को विशेष और अरूप को रूप देने में दक्ष हैं।अभिव्यक्ति को प्रभावी बनाने के लिए उन्होंने अनुप्रास,श्लेष,यमकादि शब्दालंकृतियों एवं उपमा,रूपक,उत्प्रेक्षा,दृष्टान्त,अतिशयोक्ति, मानवीकरण, विभावना,यथासांख्य,विभावना आदि विभिन्न अलंकारों का आश्रय लिया है,किन्तु अनुप्रास,उपमा,रूपक, दृष्टान्त एवं मानवीकरण का प्रयोग सर्वाधिक संख्या में है।सारे अलंकार बिना किसी आयास के स्वतः आकर कवि-वाणी का शृंगार बने हैं।यहाँ कुछ अलंकारों के उद्धरण द्रष्टव्य हैंः
(क)श्लेषः
बूढे़ औ' बदमाश हैं,बिलकुल एक समान।
खा-खा करके गोलियाँ,निकले इनकी जान।पृ.24.
(ख)यमकः
सर-सर-सर जिसको कहें,सर पर जाता बैठ।पृ.83.
(ग)उपमा/मूर्त के लिए अमूर्त उपमानः
साली रिश्वत की तरह,पत्नी है तनख्वाह।पृ.25
(घ)अमूर्त के लिए मूर्त उपमानः
कविता मेरी प्रेमिका,चुपके से आ जाय।कपृ.82.
(ङ)रूपक/वृत्यनुप्रासः
जीवन की चक्की चले,चाहत पिसें हजार।पृ.35.
(च)उत्प्रेक्षा/मानवीकरण:
बहुत साहसी ज़िन्दगी,ज़रा देखिए आप।
निकली है वह सफ़र पर,मौत संग चुपचाप।।पृ.38.
(छ)अतिशयोक्तिः
अगर किसी को आपने,दिया अधिक जो भाव।
तो वह समझेगा तुम्हें , बस रद्दी के भाव।।पृ.72.
(ज)विभावनाः
वादा,रिश्ता,मित्रता,हृदय,वचन,विश्वास।
टूटें बिन आवाज़ के,देते दर्द पचास।।पृ.32.
(झ)यथासांख्य ः
नेता,अधिवक्ता,लवर,अगर न बोलें झूठ।
जनता,वादी,प्रेमिका,तीनों जाते रूठ।।पृ.101.
(ञ)विरोधाभासः
कोमल जैसे लड़कियाँ,हड्डी रहित ज़बान।
पर तुड़वा दें हड्डियाँ , इतनी हैं बलवान।।पृ.102.
प्रशस्त शिल्प-विधान की दृष्टि से आलोच्य काव्यकृति के कुछ दोहे किंचित् खटक सकते हैं,पर महाकवि कालिदास की'एकोहिदोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः'
उक्ति के अनुसार नगण्य हैं।समग्रतः अपने उदात्त लक्ष्य एवं सधे-सँवरे भाव-शिल्प-सौष्ठव के विचार से 'दिनेश दोहावली' एक स्तुत्य काव्यकृति है। मैं हृदय से इस पठनीय,मननीय और संग्रहणीय कृति के प्रणयन हेतु कविवर डा.दिनेशचंद्र अवस्थी का हार्दिक स्वागत कर उन्हें बधाई देता हूँ।अनन्त शुभ कामनाओं सहित,
टंकण करने में एक-दो त्रुटियाँ हो गयीं हैं,पढ़कर सही कर लीजिएगा,जैसेः
"डा.अवस्थी अपनी उर्वर कल्पना-- "वाले पैरा में ' सामान्य को विशेष बनाने' होना चाहिए, (बनाने) छूट गया और बाद में अलंकारों के नामोल्लेख में 'विभावना' दो बार टाइप हो गया है।
पुस्तकः दिनेश दोहावली; कृतिकार:डा.दिनेशचंद्र अवस्थी
प्रकाशकःडायममंड पाकेट बुक्स(प्रा.)लि.,नई दिल्ली
मूल्यःरु.175.
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समीक्षकः-डा.उमाशंकर शुक्ल'शितिकंठ'
लखनऊ-226020.
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