पुस्तक जितना समकालीन परिवेश के प्रति सजग होगी,उतनी ही समर्थवान होगी-सत्यानन्द निरुपम
जहां तक अखबार व किताब के संपादन में अंतर की बात है तो विजुअलाइजेशन दोनों में महत्वपूर्ण है। किताब में देखना होता कि इसकी सेल्फ लाइफ क्या है। अखबार में कोशिश होती है कि कोई ऐसी चीज न छूटे जो कल का इतिहास हो। अखबार पत्रिका का उद्देश्य लोगों को सचेत करना होता है। वहीं किताब में वर्ल्ड-व्यू के सर्किल को बड़ा करके देखना होता है। वैश्विक स्तर पर किस तरह का नयापन उभर रहा है, प्रॉडक्शन व डिजाइन के स्तर पर जागरूकता भी। पुस्तक जितना समकालीन परिवेश के प्रति सजग होगी,उतनी ही समर्थवान होगी। वहीं पुस्तक में रचनात्मक संभावना की पहचान जरूरी होती है।पहले भी बहुत सारे ब्यूरोक्रेट लेखक रहे हैं। फिर डाक्टर व इंजीनियर भी आए। ऐसा नहीं है कि अभी सेल्फ पब्लिशिंग शुरू हुई है।इस प्रक्रिया में नये पाठक पैदा भी हुए। नयी कॉर्पोरेट कल्चर में भी साहित्य की नई धारा का उदय हुआ। हिंदी पट्टी के युवाओं ने शेष भारत के युवाओं के साथ उनके साहित्य के नायकों को पढ़ा-सुना और फिर अपने साहित्य की ओर लौटे। उनमें लेखक बनने की भूख पैदा हुई। लेकिन अच्छे लेखन को प्रदूषित नहीं किया जा सकता। कालांतर पाठक में अच्छे साहित्य की भूख जगती है। हल्के-फुल्के साहित्य ने भी पाठक जोड़े हैं। उससे प्रकाशन उद्योग को भी संबल मिला। हरिशंकर परसाई जी की बात याद आती है कि जब तक हिंदी के पाठक किताब नहीं खरीदेंगे, तब तक लेखक दरिद्र ही बना रहेगा। जहां तक किताब के चयन के आधार का सवाल है तो पुस्तक की विशिष्टता प्रथम होती है। यह कि पाठक क्यों पसंद करेगा। उसका समाज व विचार पर क्या प्रभाव होगा। ये किताब छापना क्यों जरूरी है। नहीं तो क्या मनोरंजन करने लायक है‍? फिर लेखक में अपनी बात कहने की क्षमता है। कथ्य या क्राफ्ट कैसा है। दिल व दिमाग पर असर डालती है। सत्यानन्द निरुपम की गिनती एक कुशल पुस्तक संपादक के रूप में होती है। प्रतिष्ठित प्रकाशनों से जुड़े सत्यानन्द निरुपम से अरुण नैथानी की बातचीत के अंश दैनिक ट्रिब्यून से साभार प्रस्तुत है।