जिंदगी के बहुआयामों का खूबसूरत चित्रण
ये जिंदगी भी कितनी अजीब होती है सीधे-सपाट रास्तों पर चलते-चलते उबाऊ हो जाती है और यदि रास्ते ऊबड़-खाबड़ हों तो मुश्किल हो जाती है। आखिर मानव मन जिंदगी की राहों को कैसा चाहता? जिसमें उसे जीने का आनंद मिले। इन्हीं अबूझ सवालों से जूझती हुई हैं राम नगीना मौर्य जी के सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह 'खूबसूरत मोड़' की कहानियाँ। संग्रह का नाम भले ही खूबसूरत मोड़ हो पर हम संग्रह की कहानियों को आनंदित करने वाली, आड़े-तिरछे मोड़ों से भरपूर, हिचकोले खाती जीवन माला में गुंथी हुई खूबसूरत राह सा पाते हैं। आम आदमी का जीवन जैसे खुली किताब सा होता है वैसे ही राम नगीना मौर्य जी की कहानियाँ जीवन के धरातल से जुड़ी सीधी-सच्ची सी कहानियाँ हैं जिन्हें पढ़ने और समझने के लिए पाठक को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है। समकालीनता के दौर में मौर्य जी जबरदस्ती घुसाई जाने वाली अति बौद्धिकता से बचते हुए अपनी कहानियों को आम पाठक के लिए सुगमता पूर्वक ग्राह्य बनाते हैं। जिनसे गुजरकर पाठक को यूँ लगता है कि अरे! ये तो उसकी अपनी या उसके आसपास की ही बात है। इन मनोभावों से घटनाओं और पात्रों के साथ तादात्म्य स्थापित हो जाने से पाठक के अंदर कहानियाँ पढ़ने की ललक अंत तक बरकरार रहती है। आज जब साहित्य को पढ़ने के लिए पाठकों के पास समय और इच्छा की कमी है ऐसे में पाठक को अपने शब्दों से बाँधे रहना किसी लेखक के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। मौर्य जी इसके लिए बधाई के पात्र हैं। छोटी सी दुनिया के पहचाने रास्तों पर चलते-चलते जिंदगी के किसी मोड़ पर मिल जाते हैं ऐसे भूले बिसरे लोग जिनकी चाहत दिल के किसी कोने में अंगार के भूभर सी छिपी हुई होती है। उससे अचानक मुलाकात होने पर हम निशब्द से हो जाते हैं। ऐसे समय में पत्नी ही तारनहार बनती है। कितनी सूबसूरती से सुचित्रा ने सत्यजित को दुविधा से निकाला है -“वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।” हालात आदमी को कहाँ से कहाँ पहुँचा देते हैं लेकिन वो आदमी ही क्या जो हालातों से हार मान ले। रेवती ने अर्श से फर्श पर आने की परिस्थितियों का हिम्मत के साथ मुकाबला किया। बिगड़े हालातों पर उसे कोई रंज नहीं है। जीवन की सार्थकता यही है सुख-दुख को सहजता से अपनाना। अचानक हुई मुलाकात से आकर्षण के कुरेदे हुए अंगार की तपिश, जिंदगी की राहों में भटकते हुए लंबा भूला-बिसरा अंतराल, सामाजिक और पारिवारिक दायित्व की बंदिशों के मानसिक उथल-पुथल का बहुत सूक्ष्म विश्लेषण है कहानी 'खूबसूरत मोड़'। भारी भरकम कथ्य, दुरूह शैली और कठिन शब्दों को न अपनाकर रोजमर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं पर मौर्य जी की दृष्टि न केवल जाती है बल्कि वे उस छोटी सी बात को लेकर पठनीय कहानी रच देते हैं फिर चाहे 'शास्त्रीय संगीत' कहानी की छोटी सी बच्ची जो संगीत सुनकर अपना दर्द भूलकर सुखमय नींद में सो जाती है, हो या 'खिड़की के उस पार' कहानी में भावनाओं को कोई अहमियत न देने वाली बहन हो। सूक्ष्म से सूक्ष्म बिंदुओं को पकड़ कर अपनी कहानी में समावेश कर लेना मौर्य जी की विशेषता है। चूँकि मौर्य जी ईमानदार और कुशल प्रशासक हैं इसलिए कार्यालयों का कार्य बोझ, नाकारा कर्मचारियों का घाघपन और वहाँ की कार्यप्रणाली वे भली-भाँति जानते हैं। कहानी 'छुट्टी का एक दिन' और 'गुरूमंत्र' इसी की उपज है। किसी कर्मचारी के लिए छुट्टी का दिन बहुत सुकूनदायक होता है, उस दिन वह भरपूर आराम का आनंद लेना चाहता है लेकिन घर-गृहस्थी के जंजाल उस दिन भी उपस्थित हो जाते हैं। 'गुरूमंत्र' में कार्यालयों में प्रचलित कहावतों और वाक्यांशों को बहुत अच्छी तरह से बखान किया गया है। ट्रेन की एक छोटी सी यात्रा में संपूर्ण भारत के दर्शन हो जाते हैं। खट्टे-मीठे अनुभव मन को कभी गुदगुदाते हैं कभी रंज दिलाते हैं। 'हस्बेमामूल' जैसी ट्रेन यात्रा का मैं अनेक बार लुत्फ उठा चुका हूँ। जिंदगी में किए गए कर्म हमारे साथ-साथ चलते हैं। जो जैसा स्वयं होता है वैसा ही दूसरों को मानता है। हमारे मन में यदि खोट है तो हमें हर व्यक्ति चोर, झूठा और फरेबी नजर आता है। पुरानी कहावत आप भला तो जग भला, आज के समाज में अनुपयुक्त हो गई है। भले को सभी लोग ठग लेना चाहते हैं। हमें समाज में जीने के लिए चतुराई भी आनी चाहिए वर्ना लोग बेवकूफ बनाने में देर नहीं करते हैं। 'सौदा', 'आदर्श शहरी', 'फैशन के इस नाजुक दौर में' मौर्य जी ने जमाने की उपर्युक्त नब्ज को टटोला है।
समीक्षक- मधुर कुलश्रेष्ठ