रामनवमी विशेष -राम-घनश्याम: समन्वय के श्वेत पद्म!
लेखक - हरिकृष्ण शास्त्री सुरत गुजरात
बागेश्वरधाम के धीरेन्द्रकृष्ण शास्त्रीजी का यह कथन मीडिया और समाज में बहुचर्चित हो रहा है कि "भारत हिन्दू राष्ट्र था, है और रहेगा।" कुछ पत्रकारों ने तो इस बयान को लेकर उनसे यहांतक पूछ लिया कि क्या ऐसा होने पर दूसरे धर्म के लोग भारत में नहीं रहेंगे? शायद ऐसा तर्क देनेवाले या तो सनातन धर्म की विशालता को नहीं समझ रहे है, या फिर वामपंथी विचारधारा की चंद बूंदों का उनकी निर्मल बुद्धि पर कोई कंटीला असर हो चूका है...
क्योंकि सनातन धर्म के किसी भी शास्त्र ने कभी और कहीं भी संकुचित होकर बात नहीं रखी। आपको ऐसा कोई सन्दर्भ नहीं मिलता कि किसी ऋषि ने जाति-पांति, राज्य-जनपद, गाँव-परिवार को केवल समाज को बांटने के उद्देश्य से दूसरों के जीवन में विष घोलने का आदेश दिया हो।
सनातन के भारत में तो "विश्वभर से कल्याणकारी विचारों को प्राप्त करने" की ललक दिखाई देती है, यहाँ "पृथ्वी (वसुधा) को एक परिवार के रूप में लेने" की अद्भुत अवधारणा को जिया जाता है, यहाँ देवताओं को पत्थर में स्थापित करके ही सम्मान नहीं किया जाता, यहाँ तो सूर्य की भी स्तुति है, अग्नि का भी स्तोत्र है, वायु और जल के भी देवता है, वृक्षों की भी पूजा होती है, कई पशु देवताओं के वाहन हैं, नदी, भूमि, या गाय अथवा तुलसी हो, सभी ने यहाँ "माँ" का दर्जा पाया है! यहाँ चंद्र “मामा" है, सूरज "दादा" है", यहाँ "सर्वे सन्तु निरामया:" कहकर पूरे विश्व को स्वस्थ देखने की परोपकारी भावना है। फिर भी बिना सोचे-समझे एक समय के मंत्री स्वामीप्रसाद मौर्य और उनके समर्थकों ने "रामचरित मानस" की प्रति जलाने का साहस किया! और यह भी मांग कर दी कि इस ‘किताब’ पर बैन लगाया जाए!
दोस्तों, इसी संदर्भ में ‘रामचरित मानस’ के केवल एक ही प्रसंग से निकली तुलसीदासजी की समन्वय की सौरभ का परिचय प्राप्त करना बिल्कुल प्रासंगिक रहेगा।
क्या आप जानते हैं कि जब भरतजी रामचंद्रजी को बुलाने वन पहुंचे, तो उनके साथ आए वसिष्ठजी ने राम-सीता-लक्ष्मण के अयोध्या आने के बदले में क्या शर्त रखी थी? उन्होंने माता कैकेयी आदि की उपस्थिति में ही भरत और शत्रुघ्न से कहा था कि, "तुम कानन गवन्हु दोऊ भाई!" -भरत! तुम और शत्रुघ्न 14 वर्ष के लिए वन में चले जाओ! और उस समय दोनों भाइयों की मुख-रेखा क्या कह रही थी? तुलसीदासजी लिखते हैं: "सुनि सुवचन हर्षे दोउ भ्राता!" - यह आदेश सुनते ही दोनों के हृदय हर्ष से भर गए!
क्या पारिवारिक सौहार्द का इससे बड़ा कोई उदाहरण हो सकता है? उस समय तीनों माताओं को भी भरतजी साथ लाये थे, जब माताओं के दर्शन किये, तब श्री रामचंद्रजी की पहली प्रतिक्रिया क्या थी?
तुलसीदासजी लिखते हैं "प्रथम राम भेंटि कैकेई, सरल सुभांय भगति मति भेई!" तुलसीदासजी ने भगवान रामचन्द्रजी की इस प्रतिभा को पारिवारिक समरसता के सीमा-चिह्न के रूप में प्रस्तुत किया है! जिस माता की जिद्द के कारण उन्हें चक्रवर्ती राज्य छोड़कर वन में भटकना पड़ रहा था, उस माता के प्रति रत्तीभर भी दुर्भावना न होना, और सरल स्वभाव के साथ उनको ही सर्वप्रथम गले लगाना, उनका अभिवादन करना, सबकुछ कितना अद्भुत है!
‘कहाँ विप्रश्रेष्ठ ब्रह्मर्षि वसिष्ठ जी और कहाँ भीलराज गुह!” मनासकार ऐसे "सामाजिक अंतर" को एक ही झटके में भेदकर रख देते हैं, लिखते हैं कि जब वसिष्ठ जी की दृष्टि उस केवट पर पड़ी, तब क्या हुआ?
"प्रेम पुलकि केवट कही नामू, कीन्ह दुरी तें दंड प्रणामू!
रामसखा ऋषि बरबस भेंटा, जनु मही लुठत सनेह समेटा!”
ब्राह्मण होने का दर्प नहीं, राज्यगुरु होने का अभिमान नहीं! क्या ऋषि के द्वारा केवट को उत्साह के साथ आश्लेष में लेने की भाव सम्पन्नता किसी भी तरह से विभाजनकारी लगती है? तुलसीदासजी तो आगे यहाँ तक लिखते हैं कि "जेहि लखि लखन हूँ ते अधिक, मिल मुदित मुनिराउ!" निषादराज को देखकर मुनिवर वसिष्ठ इतने प्रसन्न हुए, कि वे लक्ष्मणजी से मिलने से भी उतने प्रसन्न नहीं दिखे थे!
आज जब सास-बहू के सीरियलों में या ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के कुछ सीरियलों में महिलाओं को महिलाओं के खिलाफ षड्यंत्रकारी दिखाया जाता है, और निहायत बुरी महिलाओं के पात्रों को बढ़ा-चढाकर अपने ही परिवार को राजनीति का अखाड़ा बनाने वाली दिखाया जाता है, ऐसे समय में तुलसीदासजी सास-बहू के रिश्ते की अनन्य झलक किन शब्दों में देते हैं? सीताजी ने जब वन में अपनी तीनों सासों को देखा, तो उनके पीले मुख को देखकर काँप उठीं, "मुंदे नयन सहमी सुकुमारी!” तीनों सासों की सेवा वे इतनी शीघ्रता से कर रही थीं, कि तीनों को लगा कि सीताजी तीन-तीन रूप धारण कर के हमारी सेवा कर रही हैं!
मित्रों, भारतीय सनातन संस्कृति के ऐसे अनुपम मूल्यों को आत्मसात् करने के लिए, या पारिवारिक मूल्यों की सुगंध लेने के लिए जिनके पास सक्षम ‘नाक’ है ही नहीं, तभी तो समन्वय के श्वेत पद्म के सामान इस ग्रन्थ को आक्षेपों के घेरे में डालने की चेष्टा हो रही है!
भगवान रामचन्द्रजी के पावन प्राकट्योत्सव के अवसर पर "राष्ट्रीय तीर्थ" होने का गौरव प्राप्त कर रही अयोध्या इस वर्ष भी फिर एक बार त्रेतायुग के वातावरण की साक्षी बनने जा रही है। जो कोई अभी भी श्री राम के चरित्र को को केवल ‘सनातन धर्म के युगावतार का ही चरित्र’ समझता है, वह शायद मानवता को समझने में विफल रहा है। क्योंकि जिन लोगों को "फूट डालो और शासन करो" की अपनी क्षमता पर घमंड है, वे क्यों न चाहे हिंदू-मुस्लिम, ब्राह्मण-दलित, ऊंच-नीच, या उत्तर भारत-दक्षिण भारत, कहकर विभाजन की मंशा को कितनी भी हवा देते रहे, अंततः लोकनायक वही बनता है, जो समाज को समन्वयभाव से जोड़ सके!
हिंदी साहित्य के धूमकेतु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने कहा था कि "लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके। क्योंकि भारतीय समाज में नाना भांति परस्पर विरोधिनी संस्कृतियां, साधनाएं, विचार और धर्म सिद्धांत प्रचलित रहते हैं, ऐसे में यदि हम परस्पर समन्वयकारी नहीं होते, तो अब तक युगों पहले हम टूट चुके होते। जैसे बुद्ध समन्वयकारी थे, वैसे ही गीता में समन्वय की चेष्टा की गई है। उसी प्रकार तुलसीदासजी भी समन्वयकारी महाकवि थे।"
चैत्र शुक्ला नवमी भगवान स्वामिनारायण का भी प्राकट्यदिन है। गुजरात में साणंद के पास मछियाव गांव में उन्होंने एक बार समर्पित भक्त एवं विधवा ठकुराइन सुजानकुंवर जी से कहा था कि आप अपनी बहू के साथ अपने मतभेदों को छोड़कर उसे सौहार्दपूर्वक स्वीकार कर लें। बार बार कहने पर भी वे नहीं मानीं, उलटा श्रीहरि को कहने लगीं कि महाराज, आप हमारे गृहस्थों के झगड़ों दूर रहे, वही अच्छा! श्रीहरि ने उसी पल तैयार हो रहे भोजन को भी छोड़ दिया, और संतों के साथ गाँव से निकल दिए... । 36 बार जिस गाँव में उन्हों ने पधरावनी की थी, उसे उन्होंने जीवनभर के लिए छोड़ दिया, केवल इसलिए कि उस माताजी ने समन्वय को नहीं अपनाया और एकता को ठुकरा दिया था !
राम और घनश्याम के चरित्र और स्मृति की महिमा से आलोकित रामनवमी का यह दिन हम सब पर समझदारी, सहयोग, समन्वय, सेवा और समर्पण का पंचामृत बरसाए, तो हमारे लिए हर पल "राम और घनश्याम जयंती" के आनंद का ही होगा! बाकी सच तो यह है कि "कीजे नाथ हृदय मंह डेरा" की प्रार्थना के बदले में प्रभु श्रीराम को मिटने की मंशा रखने वाले हमेशा की लिए इतिहास से मिट जाते हैं...