फिल्म लेख ---------------- नीली आंखों वाला बेमिसाल अदाकार चंद्रमोहन
डाॅ. रमेशचंद्र
फिल्मी दुनिया में वैसे तो अनेक अदाकार आए, किंतु चंद्रमोहन जैसा शायद ही कोई हुआ। चंद्रमोहन का शानदार व्यक्तित्व, रोबदार आवाज, नीली मंज़री आंखें और दमदार संवाद अदायगी सचमुच देखने लायक होती थी। यह कभी न भूलने वाला ऐसा अदाकार था, जिसे फिल्म प्रेमी आज भी याद करते हैं तो कह उठते हैं - " वाह चंद्रमोहन भी क्या खूब अदाकार था ? "
चंद्रमोहन का जन्म मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले में 1906 को हुआ था। उनके पिता कश्मीरी ब्राह्मण थे। उस समय चंद्रमोहन के पिता ग्वालियर रियासत में नौकरी करते थे। उनके पिता का नाम जगन्नाथ सहाय वाटल था। जब चंद्रमोहन बहुत छोटे थे तभी उनकी मां रूप किशोरी वाटल का निधन हो गया था। उनकी दादी ने उनका लालन पालन किया।
चंद्रमोहन का बचपन अधिकतर ग्वालियर रियासत क्षेत्र में ही व्यतीत हुआ। पिता की मृत्यु के पश्चात वे घर से निकल पड़े। उन्होंने अनेक प्रकार की नौकरियां की। इसी प्रकार नौकरी करते हुए एक बार उनकी नौकरी एक फ़िल्म वितरण कंपनी में लग गयी। इस वितरण कंपनी के माध्यम से चंद्रमोहन का फिल्मों में प्रवेश संभव हुआ।
एक फिल्म के अनुबंध के सिलसिले में चंद्रमोहन की मुलाकात फिल्म निर्माता और निर्देशक व्ही. शांताराम से हो गयी। इस मुलाकात से व्ही. शांताराम उनके व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी फिल्म में काम करने का प्रस्ताव दे दिया, किंतु चंद्रमोहन ने किसी कारणवश इस प्रस्ताव को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। दो वर्ष बाद चंद्रमोहन फिर व्ही. शांताराम से मिले तो चंद्रमोहन का उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया।इस बार चंद्रमोहन इंकार नहीं कर सके और प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। इस तरह चंद्रमोहन की पहली फिल्म "अमृत मंथन " 1934 में बनी। इस फिल्म में चंद्रमोहन ने कहानी के एक महत्वपूर्ण पात्र
" राजगुरू "की भूमिका निभाई। यह भूमिका इतनी प्रभावशाली थी कि सभी ने प्रशंसा की। अपने शानदार अभिनय से चंद्रमोहन पहली ही फिल्म से लोकप्रिय हो गये। यह फिल्म हिन्दी और मराठी दोनों ही भाषाओं में बनी थी।
इसके बाद चंद्रमोहन की अगली फिल्म "धर्मात्मा " आई, जो कि व्ही. शांताराम की ही फिल्म थी। इस फिल्म में चंद्रमोहन के अलावा बाल गंधर्व और रत्नप्रभा भी अदाकार थे। इस फिल्म में चंद्रमोहन ने एक " महंत " की भूमिका निभाई थी अगली फिल्म इसी जोड़ी यानी चंद्रमोहन और व्ही. शांताराम की 1936 में आई "अमर ज्योति "। इस फिल्म में चंद्रमोहन ने "दुर्जय " की शानदार भूमिका निभा कर अपना लोहा मनवा लिया। चंद्रमोहन बाॅक्स आफिस पर सफलता की गारंटी बन गये। उनके यहां फिल्म निर्माताओं की भीड़ जुटने लगी। इसमें 1939 की सोह़राब मोदी की "पुकार " प्रमुख फिल्म थी,जिसने त़हलका मचा दिया। इस फिल्म में चंद्रमोहन का बादशाह जहांगीर की भूमिका में शानदार अभिनय देख कर इस लेख का लेखक भी आश्चर्यचकित रह गया था। इस फिल्म में चंद्रमोहन ने क़माल का अभिनय और संवाद अदायगी की थी। ऐसा अभिनय केवल " मुगल -ए-आज़म " में पृथ्वीराज कपूर ने किया था। मज़े की बात है कि फिल्म " मुग़ल -ए- आज़म " में पहले चंद्रमोहन ही लिए गये थे, परंतु उनके अचानक देहावसान हो जाने से यह भूमिका बाद में पृथ्वीराज कपूर को मिली। यहां यह बात बताना आवश्यक हो जाता है कि जो रोल मुग़ल -आज़म में दिलीपकुमार ने निभाया था, उसे पहले अभिनेता सप्रू निभा रहे थे। इसी प्रकार अनारकली के रोल में जहां मधुबाला थी, इसके पहले नरगिस को लिया गया था। परंतु चंद्रमोहन के निधन से बाद में सब कुछ बदल दिया गया।
मेरे मत से फिल्म " पुकार " में चंद्रमोहन ने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया था। चंद्रमोहन की संवाद अदायगी और आंखों से अभिनय करना, सचमुच क़माल का था। इस फिल्म ने सफलता का कीर्तिमान रच दिया था। इसमें अभिनेत्री नसीम बानो ( सायरा बानो की मां ) का अभिनय भी काबिलेतारीफ़ था। इस फिल्म में नसीम बानों की आवाज़ में गाये गये क ई गीत थे। चंद्रमोहन एक सफ़ल सितारा थे, परंतु उन्होंने कभी भी इसका घमंड नहीं किया,अलबत्ता वे स्वाभिमानी बहुत थे। इस बात को लेकर चंद्रमोहन की व्ही. शांतारा से एक बार फिल्म के एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करने पर कहा सुनी हो गयी। बात यह थी कि व्ही. शांताराम पहले वाली फिल्म के हिसाब से उन्हें पारिश्रमिक देना चाहते थे, जबकि अब चंद्रमोहन की पारिश्रमिक वैल्यू बहुत बढ़ गयी थी। अतः चंद्रमोहन ने कहा कि उन्हें पारिश्रमिक उनके मान सम्मान को देखते हुए दिया जाना चाहिए, इस पर व्ही. शांताराम उनसे नाराज हो गये। उन्होंने गुस्से में कहा कि वे इतना ही पारिश्रमिक देंगें। इस पर चंद्रमोहन ने इंकार कर दिया तब व्ही. शांताराम ने भड़क कर कहा कि वे दूसरा चंद्रमोहन पैदा कर लेंगे।
तब चंद्रमोहन ने ज़वाब दिया - " दूसरा चंद्रमोहन पैदा करने की मेरे बाप ने भी कोशिश की थी, परंतु वे दूसरा चंद्रमोहन पैदा न कर सके और बृजमोहन पैदा हो गया। आप भी कोशिश कर लीजिए। "
ब्रजमोहन चंद्रमोहन का छोटा भाई था।
इसके बाद दोनों के संबंध बिगड़ गये और कभी साथ में काम नहीं कर पाए। चंद्रमोहन की सफलता का झंडा लहराता रहा। उनकी अगली फिल्म " गीता " आई जो 1940 में रिलीज हुई। इस फिल्म में चंद्रमोहन का डबल रोल था। इसके बाद फिल्म " रोटी " आई, जिसमें ग़ज़ल गायिका बेग़म अख़तर उनकी अभिनेत्री थी।इस फिल्म में चंद्रमोहन ने मक्कार सेठ लक्षमीदास की भूमिका निभाई थी। यह 1942 की फिल्म थी।
चंद्रमोहन की अगली फिल्मों में " तक़दीर "
1943, "शकुंतला " 1943," " पन्ना दाई " 1945, " " हुमायूं "1945 आदि फिल्में आई। कुछ फिल्मों के असफल हो जाने से चंद्रमोहन के पारिश्रमिक पर असर पड़ा। अब फिल्म निर्माता उनके मनमुताबिक़ पारिश्रमिक देने में आनाकानी करने लगे, लेकिन चंद्रमोहन का शाही खर्च पहले की तरह ही चलता रहा।
चंद्रमोहन को पैसा लुटाने का बड़ा शौक था। वे ज़रूरतमंदों की चुपचाप मदद कर देते थे। उन्हें रेस के घोड़े खरीदने, उन्हें दांव पर लगाने और महंगी शराब " स्काॅच व्हिस्की " पीने का बड़ा शौक था। पैसा बचाना उन्होंने सीखा नहीं था। अतः उनकी आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो गयी। उनके मित्र मोतीलाल भी उनकी तरह पीने के शौकीन थे। चंद्रमोहन की अंतिम दौर की फिल्म थी "शहीद "। यह 1948 की फिल्म थी। इस फिल्म में उन्होंने दिलीपकुमार के पिता राय बहादुर द्वारकादास की भूमिका निभाई थी।यह भूमिका स्मरणीय इसलिए है कि इसमें कोर्ट में दिये गये उनके वक्तव्य ने उनको हमेशा के लिए यादगार बना दिया। फिल्म के इतिहास में इस कोर्ट दृश्य को हमेशा के लिए याद रखा जाएगा। इस लेख का लेखक भी इस दृश्य को देख कर अभिभूत हुए बिना नहीं रह सका था। यहां एक बात बताना आवश्यक है, जब चंद्रमोहन की ये फिल्में बन रही थी तब इस लेख के लेखक का जन्म भी नहीं हुआ था। उसने बड़े होने पर ही चंद्रमोहन की ये फिल्में देखी है। इस फिल्म का एक गीत आज भी लोकप्रिय गीतों में माना जाता है, जिसके बोल हैं- " बदनाम न हो जाए मुहब्बत का फ़साना..। " इस फिल्म की नायिका थी अभिनेत्री कामिनी कौशल। एक दूसरा गीत था -" वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो। " यह मुहम्मद रफ़ी तथा अन्य गायकों के समवेत स्वर में था,जिसे दिलीपकुमार पर फिल्माया गया था।
1948 के साल ही फिल्म " रामबाण " और फिल्म "दुखियारी " भी रिलीज़ हुई। लेकिन 1949 आते आते वे बीमार रहने लगे। उन्हें इसके पहले "मतिभ्रम " की बीमारी स्थिति से भी गुजरना पड़ा। वे जीवन भर नास्तिक रहे, परंतु एक समय ऐसा भी आया कि वे काली मां के भक्त हो गये। उनके जीवन में कितनी ही अजीबोगरीब घटनाएं हुई। वे सपनों में काली मां से बातें करते थे। उनके रात को नींद में देखे गये क ई स्वप्न भी उनके सामने घटित हुई घटनाओं के रूप में साकार हुए।
मार्च 1949 में चंद्रमोहन की तबीयत अधिक बिगड़ गयी।पन्द्रह दिन की बीमारी के बाद जब उनका अंतिम समय आया तो उन्होंने अपनी महिला मित्र "शीला " से अपने मित्रों "मोतीलाल " और "कुमार "को बुलवाया।चंद्रमोहन आजीवन अविवाहित रहे। वे कुछ देर तक काली मां की तस्वीर देखते रहे और बोले - " मां बुला रही हैं..।"इसके बाद उन्होंने अपने नेत्र हमेशा के लिए बंद कर लिए। मात्र 43 वर्ष की अल्पायु में चंद्रमोहन का चले जाना बहुत दुखद् घटना थी।
निधन के समय चंद्रमोहन के पास एक पैसा भी नहीं था। कहते हैं कि उनका अंतिम संस्कार "फिल्म आर्टिस्ट एसोसिएशन " की ओर से किया गया।
चंद्रमोहन के निधन से समस्त फिल्म उद्योग में शोक की लहर छा गयी। चंद्रमोहन के परम मित्रों में मोतीलाल, कुमार, उल्हास और राजन हक्सर आदि थे।
चंद्रमोहन एक जिंदादिल इंसान और अभिनय के बेताज बादशाह थे।
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