कहानी- हाशिये से बाहर
कहानी
हाशिये से बाहर
-हंसा दीप
वे बहुत खुश थीं, इतनी कि वह खुशी पिलकते-पिलकते बाहर आ रही थी। रियूनियन का संदेश जब मिला तो बीते जमाने के सारे साथियों की धुंधली तस्वीरें सामने आने लगीं। उन तस्वीरों के साथ एक-एक का कच्चा चिट्ठा याद आने लगा जो वे अब तकभुलाए नहीं भूली थीं। उस दिन जब सब मिलेंगे, तबवे सारी बातें एक-एक करके सुनाएँगी तो हर कोई हँस-हँस कर दोहरा हो जाएगा। वे चेहरे जो सालों से जेहन में बने रहे, किशोरावस्था से अब सीधे वृद्धावस्था में दिखेंगे तो कैसा लगेगा। वे चुहलबाजियाँ, वे कक्षा की शैतानियाँ और वार्षिकोत्सव के वे कार्यक्रम, जब सब अपने आपको किसी नाटक के पात्र में बदलकर सारे गाँव का भरपूर मनोरंजन करते थे।
बाअदब, बामुलाहिजा होशियार की तर्ज में कमर कसने लगीं वे।
लेकिन रीतू मौर्य बनकर जाना था न कि प्रोफेसररीतू मौर्य ठाकुर बनकर।रीतू बनकर अब उसे अपने उस स्कूल में जाना था जहाँ से उसकी कई यादें जुड़ी हुई थीं। सचमुच जिसने भी इस विचार को मन में जगह दी वह काबिले तारीफ काम कर गया। उन्नीस सौ बयासी में हाईस्कूल पास करके निकले,उस पहले बैच के सभी छात्रों को दूर-दूर से आमंत्रित किया गया था। इसी साल यह स्कूल मिडिल स्कूल से हाइस्कूल में तब्दील हुआ था। इसका एक खास मकसद यह भी था कि इस रियूनियन के बहाने स्कूल को कुछ डोनेशन मिल जाता। उस कक्षा में पढ़ने वाले सभी छात्रों का पता-ठिकाना खोजकर उन्हें संदेश भेजा गया था। पता चला कि सिर्फ चार लोगों को तलाश नहीं कर पाए हैं, शेष सभी आ रहे हैं।
उन सब लोगों को एक नजर देखने का उतावलापन तो था रीतू को लेकिन फिलहाल एक खास बात पर दिमाग में जद्दोजहद हो रही थी कि उसे खुद भी बहुत अच्छा दिखना था। आखिर उस समय की सबसे सुंदर लड़कियों में उसका नाम था, सबसे होशियार लड़कियों में उसका नाम था और सबसे चुप रहने वाली लड़की तो शायद अकेली ही थी। तैयारियाँ होने लगीं, कुछ इस तरह कि एक बहुत खास दिन होगा यह और बहुत खास दोस्तों से अरसे के बाद पुनर्मिलन होगा।
उस दिन क्या पहना जाएगा उस पर मन बहुत बहस करता, कभी कहता कि नयी वेशभूषा खरीदो, साड़ी पहनने के बजायअब नया सलवार-कमीज खरीद लिया जाए। पाँच-दस साल उम्र के यूँ ही कम हो जाएँगे। कभी मन कहता कि साड़ी में वह ज्यादा अच्छी लगती है।कई पुरानी साड़ियाँ जो आजमायी हुई हैं उन्हीं को पहना जाए। बालों की सफेदी को रंग लेना भी जरूरी है।बरसों पहले यह सब छोड़ दिया था लेकिन अब लगता है कि इतना बूढ़ा दिखने की कोई जरूरत नहीं है। और चेहरे पर भी थोड़ा निखार लाना पड़ेगा, घर का बना उबटन लगाकर रोज हरी ककड़ी के टुकड़े आँखों पर टिका करके बैठने लगी रीतू। निखार आया कि नहीं यह तो पता नहीं लेकिन दिल को संतुष्टि जरूर मिल गयी थी।
आखिरकार एक साड़ी पर निगाहें टिकीं। सफेद रंग की बनारसी साड़ी जिसकी बॉर्डर पर हल्के भूरे रंग का जरी का काम था और अंदर छोटी-छोटी बूटियाँ थीं, जिसे रीतू ने सालों से नहीं पहना था। रविश के पापा ने दी थी वह साड़ी एक खास मौके पर। जब भी वह पहनती थी उनकी प्रशंसा वाली नजर अंदर तक हलचल मचा देती थी। वह जालिम नजर आज भी वैसी ही है। बस याद भर आने की देर है कि ठीक वैसी ही अनुभूति होती है जैसी उन दिनों होती थी, मीठी-सी। प्यार की बयार ही ऐसी है कि एक बार बहती है तो उसकी गुनगुनाहट सदा के लिये संगीतबद्ध हो कर बस जाती है दिलोदिमाग में। एक जमाना गुजर गया था उस साड़ी को कोई प्यार भरी नजर नसीब नहीं हुई थी। तो अंतत: तय कर लिया किवह साड़ी, और अपनी शालीन-सी शाल जिसे दाएँ कंधे पर डाले रखती तो सौम्य और शालीन प्रोफेसर नजर आती। वही पहनेगी उस दिन। आउटफिट तय कर लिया तो लगा कि एक बड़ा, जरूरी काम निपट गया।
प्रतीक्षा के बाद आखिर वह खास दिन आ ही गया। बहुत खुश थी वह। बहुत अच्छी भी लग रही थी आइने में। स्कूल तक का रास्ता तय करते हुए वे सारे चेहरे याद आने लगे जिनके बारे में उड़ती-उड़ती कुछ बातें सुनी थीं।सबसे बातें करके अपने-अपने जीवन की खास बातों को बताना-सुनना था। उतावले-से मन का रोमांच चरम पर था।
सुना है अरविंद विदेश चला गया है। अपनी पत्नी के साथ आ रहा है। ऐसा भी नहीं है कि वह विदेश से सिर्फ रियूनियन के लिये आ रहा है। वह तो यहाँ आया हुआ ही था और तारीखें उसके टाइम टेबल में फिट हो गयी थीं। विश्वास ही नहीं होता कि उसी स्कूल के छात्र विदेश चले गए और रीतू जिले से बाहर भी नहीं जा पायी। शादी भी यहीं और फिर नौकरी भी यहीं। इस पिछड़े इलाके में और कोई आना भी नहीं चाहता था तो यहाँ के रहवासियों को यहीं पोस्टिंग देना जायज था। हालांकि उसेइस बात का मलाल हमेशा ही रहा कि राज्य के बाहर, देश के बाहर जाने का सोचती तो एक नयी दुनिया से पहचान होती। लेकिन रीतू ने अपने कार्यकाल को आनंदपूर्व बिताया, बस इसीलिये इन चीजों का मलाल तो था पर अपने काम पर कभी हावी नहीं होने दिया।
और वह रजनीकांत, न जाने उसका क्या हुआ होगा जो बस रीतू को निहारता ही रहता था, एकटक। कुछ इस तरह कि कई बार अपना काम करते-करते उधर नजर जाती तो वह सहमजाती, घबरा-सी जाती थी। जब तक स्कूल पूरा नहीं हुआ रजनी का ताकते रहने का यह सिलसिला बगैर रुके जारी रहा। फिर सब अपने-अपने रास्ते चल पड़े, कुछ ऐसे कि कभी नहीं मिले। आज तक पता नहीं चला कि रजनी के मन में क्या था। अब बुढ़ापे में तो उससे पूछ ही सकती है कि “चल अब बता दे साफ-साफ, क्यों घूरता रहता था।” उसके आने की सूचना तो नहीं थी पर कौन जाने आ ही जाए। बरसों पुराने उस राज को जानने का यही एक मौका था।
वह चंदा जो अपने नखरों से बाज नहीं आती थी। कितनी मटक-मटक कर चलती थी, कुछ इस तरह कि जैसे ये सारे जवान होते लड़के बस उसी के हो जाएँ। पढ़ने में तो “ढ ढक्कन का” थी। कुछ आता-जाता नहीं था। सारा ध्यान तो सजने-सँवरने में ही चला जाता था। उसके कपड़े, उसके बाल, ऊँची एड़ी के सेंडल और काला चश्मा, पूरे स्कूल में एक ही लड़की थी जिसके पास ये सारे विविध सौंदर्य प्रसाधन हुआ करते थे। जितने फिकरे उस पर कसे जाते उतनी वह खुश होती थी। उन शरारती लड़कों को एक नाजुक-सी, मगर कातिल-सी नजर से देखकर आगे बढ़ जाती थी।
और माधुरी, जो बहुत पढ़ाकू थी पर नंबर अच्छे नहीं आते थे। वह किसी कंपनी में चेयरमेन थी, शादी नहीं की उसने। दो साल पहले ही रिटायरमेंट लेकर कहीं सैटल हो गयी। रीतू खुद भी तो प्रोफेसर बनकर रिटायर हुई है। रविश और रविना, दोनों बच्चे अपने-अपने घर हैं। उनके पापा के चले जाने के बाद रीतू ने इस बड़ी जिम्मेदारी को निभाया।
वह लड़का पांडू,जिसका पूरा नाम था पद्मेश पांडे, पर सब उसे पांडू ही बुलाते थे। सब लड़कों से अलग-थलग, बहुत चिकना चेहरा और होंठ ऐसे गुलाबी जैसे किसी ने गुलाबी रंग की परमानेंट लिपस्टिक लगा दी हो। बहुत गोरा-चिट्ठा था मानों अंग्रेजों का खून हो उसमें। झाबुआ जिले के इस गाँव में तब अंग्रेज और अंग्रेजी दोनों नहीं घुस पाये थे लेकिन उसे देखकर ऐसा लगता था जैसे इंग्लैंड से कोई बीज उड़कर आ गया हो और यहाँ की धरती में उग गया हो। बाल भी काले नहीं थे ऐसे भूरे थे कि उसे विदेशी तमगा आसानी से दिया जा सके। रीतू को बहुत अच्छा लगता था वह। चुपचाप कई बार उसे देखती रहती थी। क्या हुआ होगा उसका, किसके साथ शादी हुई होगी। उसे इतनी ही गोरी पत्नी मिली होगी, उसके बच्चे भी उसी के जैसे गोरे-चिट्ठे होंगे। ऐसे कई सवालों के जवाब आज मिलने थे।
एक दिवाकर था, जो हमेशा रीतू मौर्य से बराबरी करना चाहता था। हर विषय के नंबर पूछने जरूर आता ताकि पता कर सके कि कितनी मेहनत और करेगा तो उसके बराबर आ जाएगा पर बेचारा हर बार दो-चार नंबर से पीछे ही रह जाता। इस बात की खीज रहती उसे कि इतनी मेहनत करके भी आज तक रीतू को पीछे नहीं कर पाया।
कुछ और छात्र थे पर वे अपने काम से काम रखते और चले जाते। उनका कक्षा में होना, न होना बराबर था। देखा जाए तो बस ये हीवे खास लोग थे जो उसकी यादों की सूची में कायम थे, तकरीबन कई सालों से। स्कूल का वह आखिरी साल इसलिये भी जेहन में था कि उसके बाद भी पढ़ाई तो बहुत की लेकिन उसमें वह अल्हड़पन नहीं था जो हाई स्कूल के उस आखिरी साल में था। सब जानते थे कि अब अलग होना है तो बस खूब हँसते रहते थे, एक दूसरे की टांग खींचते रहते थे।
आठवीं कक्षा से ग्यारहवीं तक इन छात्रों का साथ था। ऐसी दोस्ती और ऐसी मस्ती जीवन में फिर कभी नहीं आ पायी। सबकी अंदर-बाहर की सारी बातें सबको पता चल जाती थीं। वैसे भी गाँव इतना बड़ा नहीं था कि किसी की कोई बात छुप सके। आज उन सब को एक नये रूप में देखना कितना उत्साहजनक होगा। उन सब लोगों से मिलना था जिनके साथ कभी कोई खास योजना नहीं बनती थी, बनती भी थी तो हर रोज बदल जाती थी। तब योजनाओं का कोई महत्व भी नहीं था। ये चेहरे वे थे जो कक्षा में बैठते थे, सुनते थे, कई बार हँसी-मजाक करते थे और अपने-अपने घर चले जाते थे। आज का दिन वह दिन था जो यादों के इतिहास में नाम दर्ज करवाने को आतुर था।
रीतू बराबर समय पर पहुँच गयी।
स्वागत के लिये इस साल के हाईस्कूल के कुछ छात्र थे। उन्होंने एक हाल की ओर इशारा किया कि वहाँ कार्यक्रम होगा। पहली लाइन सब मेहमानों के लिये थी लेकिन अभी कोई बैठा नहीं था। सब एक दूसरे से मिल रहे थे। सबसे पहले प्राचार्य महोदय से मिल लिया जाए, यह सोचकर वह आगे बढ़ी तो आँखों को अच्छा नहीं लगा जब देखा कि एक बारह-तेरह साल की बच्ची उस गोरे को धक्का देते हुए ला रही थी।वह गोरा और कोई नहीं पांडू था। वे गुलाबी होंठ काले पड़ चुके थे और सिर पर किसी भी रंग का कोई बाल शेष नहीं था। उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि उसे जबरन यहाँ लाया गया है। रीतू को देखकर चुपचाप बस हाथ भर हिलाया था। वह पास गयी औरबात करने की कोशिश करने लगी पर उसके प्रश्नों का पांडू के पास न कोई उत्साहजनक उत्तर था, न ही कोई प्रतिप्रश्न। उसकी उत्सुकताओं को एक ब्रेक-सा लगा, गोया एकाएक विचारों की दौड़ती गाड़ी एक स्पीडब्रेकर को क्रॉस करते हुए धीमी हो गयी हो।
सामने से वह नखरैली चंदा अपने पति का हाथ पकड़े ऐसे चलकर आ रही थी जैसे कोई जबर्दस्ती उन दोनों को पीछे से धकेल रहा हो। उसने रीतू के पास आकर उसका हालचाल पूछा और पति के साथ जाकर बैठ गयी। कम से कम इतना शिष्टाचार तो निभाया चंदा ने।
तभी अरविंद आया, विदेशी चमक जैसा कुछ नहीं था वहाँ, हाँ वह अपने मुँह पर रुमाल लगाकर बात कर रहा था। कहने लगा उसे धूल से बहुत एलर्जी है। रीतू बात आगे बढ़ाती तो वह हाँ, ना में जवाब दे देता। मानो बोलने के लिये मुँह खोला तो आसपास की सारी धूल उसके अंदर घुस जाएगी। रीतू की नजर सामने वाली दीवार पर गयी जहाँ धूल की एक मोटी-सी परत अपने शिकार का इंतजार कर रही थी।
वह हैरान थी कि सब आए तो हैं यहाँ, पर पुरानी यादों के साथ नहीं जी रहे यह समय।यहाँ भी अपने आज में जी रहे हैं, हाय-हलो करते, थोड़ी बहुत बात करके औपचारिक मुस्कान देते और अपनी कुर्सी में धँस जाते।
तभी रजनीकांत आया। वह प्राचार्य जी से बात करने में लगा रहा, चलो कम से कम यह तो बोल रहा है। वह पीछे खड़ी थी लेकिन रजनीकांत ने रीतू की तरफ देखा तक नहीं। रीतू अंदर ही अंदर मुस्कुरा दी“जितना देखना था उससे कई गुना ज्यादा तो पहले ही कक्षा में देख चुका था, अब न भी देखे तो क्या फर्क पड़ता है”। आखिरकार उसने पहचान लिया, रीतू के हालचाल पूछे।वह जाकर उन सबसे मिलने लगा जो कुर्सी पर बैठे थे। रीतू के भीतर के सवाल, सवाल ही रह गए। हिम्मत ही नहीं हुई कि उससे कुछ पूछे और उन प्यारी-सी नजरों की ताकते रहने की अनुभूति को तहस-नहस कर दे। अपना दिल तोड़ने के बजाय कुछ प्रश्न अनुत्तरित ही रहें तो बेहतर है।
सामने से एक भारी-भरकम-सा व्यक्ति आ रहा था जिसका नाम देखने के बाद भी याद नहीं आया रीतू को कि यह कौनसा छात्र है। उसके साथ उसकी पत्नी भी थी। उससे बात करने लगी तो पत्नी ने जवाब दिया कि – “ये अब बोल नहीं पाते हैं, कोशिश करते हैं पर साफ आवाज नहीं आती।” सचमुच वह अस्फुट स्वर में कुछ बोल रहा था, उसकी आँखों में वह चमक थी जो रीतू की आँखों की चमक से मेल खा रही थी। आवाज के बगैर आँखें जो कह रही थीं वह सुन पा रही थी।
सोचने लगी रीतू,कुदरत का खेल विचित्र है, जिसका नाम याद नहीं उसे सब कुछ याद है। जिन्हें सालों से सीने में याद रखे हुए है वे समय के साथ कदम मिलाकर आगे बढ़ चुके हैं। सब जिले के बाहर,राज्य के बाहर, देश के बाहर अपना जीवन जीकर आए थे।एक वही पिछड़ी हुई थी जो अपने जिले से बाहर नहीं गयी थी। एक वही पागल थी जो सबके बारे में बहुत कुछ जानने को लालायित थी। एक वही बुद्धू थी जो अब तक अतीत को याद कर रही थी। यानि कुल मिलाकर एक वही बेवकूफ थी।
अपनी सुंदर-सी साड़ी पर उसे तरस आने लगा जिसे आज कोई प्रशंसा भरी नजर नसीब नहीं हुईथी।दाहिने कंधे से अपनी शाल को तह करके बैग में डाल लिया उसने।सारा उत्साह ठंडा हो गया था। जैसे-तैसे कार्यक्रम खत्म करके, आयोजकों का आभार प्रकट करके वह निकल गयी वहाँ से। अपने अतीत के सुनहरे दिनों की यादों को आज की नीरसता के सागर में फेंक कर मायूस थी।
उम्र के हाशिये पर खड़े होकर थोड़ा बुझना तो जायज है पर जलते हुए दीपक को बुझा घोषित कर देना कहाँ का न्याय है।अब एक कसक है, यह रियूनियन होती ही नहीं तो यादों के खुशनुमा पल वैसे ही रहते। मगरएक तसल्ली भी है कि उसने, रीतू मौर्य ने, रीतू मौर्य ठाकुर ने, अभी तक अपनी जिंदगी को मुखपृष्ठ पर रखा है, हाशिये में नहीं धकेला है।
और वह कक्षा के उस छात्र का नाम याद करने की कोशिश करने लगी जो बोल नहीं पा रहा था।
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