यू के चाला हो गया?
डा. पुष्पलता
पंडित उमाशंकर ने जाकर पूछा - ”कहाँ से आई तू इतनी रात को? यहाँ क्यों बैठी है? अपने गाँव, बच्चों के नाम बता दे। तेरे घर छोड़ आऊँगा।“
”सब मेरे बच्चे ही हैं, तुम भी।“ उसने कहा।
”अजी दिमाग से परेशानी में लगती है“, दुकान वाले ने दुकान बंद करते हुए कहा।
पंडित ने अपनी पंडिताइन से कहा, ”बाहर एक औरत बैठी है, उसके लिए चार रोटियाँ बना दो।“
”कहाँ से आई वो?“
”पता नहीं, कहाँ से आई? माँ वाली बीमारी है शायद उसे, अपने घरवालों का पता भी नहीं बता पा रही।“
”रोटी देकर पंडिताइन बोली, ”अकेली औरत, सर्दी की रात बाहर कैसे सोएगी? कपड़ा भी नहीं इसके पास तो।“
पंडित ने कहा, ” कुछ कपड़ा दे दो। जो दुकानें बन रही हैं पास में, उसमें लेट जाएगी।“
”तुममें तो दिमाग नहीं है, अकेली जवान औरत वहाँ कैसे लेटेगी? कुछ ऊँच-नीच हो गयी तो!“
”अब घर में कैसे लेटाएँ? क्या पता, कौन है? परेशानी में है या बहाने कर रही है। घर में नहीं लेटाते।“
”अंदर की कुंडी लगा लेंगे। बरामदे में लेट जाएगी।“ पंडितायन ने कहा।
”कभी गंदा-वंदा कर दे?“
”कर देने दो। जो होगा देखा जाएगा। वैसे तो अच्छे घर की दिखाई दे रही है।“
पंडिताइन ने धुला हुआ कम्बल और साफ दरी निकालकर दे दी।
घर में लेटाना पंडित को ठीक नहीं लगा। बोला, ”यहाँ दुकानों के सामने कपड़ा बिछाकर लेट जा।“
”यहाँ कैसे लेट जाऊँ? इज्जत-आबरू का खतरा।“
पंडित घर में आकर हँसने लगा।
”क्यों हँस रहे हो?“
”यूँ हँस रहा हूँ, वैसे तो होश नहीं, इज्जत-आबरू की होश है। कह रही है, यहाँ कैसे लेट जाऊँ? इज्जत-आबरू का खतरा।“
”तुम्हें कहा तो था बरामदे में लेटा दो।“ पंडिताइन बाहर आकर बोली, ”अरी! ले यहाँ बरामदे में लेट जा।“
”तू भी लेटना मेरे पास“, औरत ने कहा।
”सो जा, हम भी यहीं हैं।“
सुबह उठकर पंडिताइन ने चाय के साथ पराँठे भी बना दिए। सोचा - खाकर चली जाएगी। पर वह नहीं गई। जब दो-तीन दिन हो गए पंडित ने सोचा, कुत्ते गाय को भी तो रोटी देते हैं। रोटी खाती रहेगी।
नेता सूरजभान ने बात फैलानी शुरू कर दी। पंडित ने अपने घर में नई औरत रख ली है। एक रोज सामने देखकर राजकली ने पंडिताइन से पूछा, ”तुमने यह औरत अपने घर में क्यों रखी हुई है?“
”बहन एक दिन रात को यहाँ बैठी थी। हमने सर्दी की रात है, अकेली औरत, यह सोचकर घर में लेटा दी। अब जाती ही नहीं है। इसका यह भी पता नहीं, कहाँ से आई जो छोड़ आएँ।“
”तुम्हें कुछ पता? सारे गाँव में लोग यूँ कह रहे हैं कि पंडित ने नई औरत रख ली है।“
”गाँव वालों का तो दिमाग खराब है। यह तो मैंने ही लेटाई थी उस दिन। अब यह जाती ही नहीं है।“
”फिर भी जवान औरत को तुम क्यों रखते हो अपने घर में?“
”परेशानी तो मुझे भी है। पर क्या करूँ? अब इसे कहाँ छोड़ें? बैठे-बैठाए गले में मुसीबत पड़ गई यह तो।“
”चाहे मर्द कैसा भी हो फिर भी है तो मर्द ही“, राजकली ने पंडिताइन से कहा।
पंडिताइन के दिमाग में भी कुछ शक-सा हुआ।
”तुम इसे छोड़कर आओ कहीं भी“, पंडिताइन ने आज्ञा-सी देते हुए कहा।
”अब कहाँ छोड़ूँ इसे? माँ वाली बीमारी है इसे। पहचानती नहीं किसी को। खाए जाएगी दो रोटी, कुत्ते-बिल्ली भी तो खा लेते हैं।“
”हमें तो खिलानी नहीं।“
पंडित सोचने लगा, माँ को कैसे दरवाजा बंद करके रखता था। कभी कहीं चली न जाए। कहीं दूसरी जगह इसकी जिन्दगी खराब न हो जाए। यहाँ तो फिर भी इसे कुछ खतरा नहीं है।
”पड़ी रहेगी यहीं।“ पंडित ने कहा।
”तुम्हारी क्या लगती है यह? तुम यह बता दो।“
”मेरी क्या लगती बेचारी“, पंडित को उसे भगा देने में कुछ दिक्कत-सी थी।
नेता गाँव वालों के दिमाग में जहर बोता फिर रहा था। लोगों ने पंडित को पूजा-पाठ में बुलाना बंद कर दिया। उसके बारे में उल्टी-सीधी बातें करने लगे थे। गाँवों की औरतों ने भी पंडित के घर जाना बंद कर दिया। कोई आ भी जाती तो पंडितायन के दिमाग में शक का कीड़ा छोड़कर जाती। पंडिताइन को पंडित पर कुछ भरोसा-सा था।
कुछ दिनों बाद।
पंचायत के सामने पंडित उमाशंकर गरदन नीची किए बैठा था।
”अब क्या करें?“ एक ने पूछा।
”करना क्या है? नाक कटवा दी इसने और इसकी छोरी ने। बिरादरी से निकालकर बाहर करो इसे।“ हरिचरण बोला।
”बहुत बड़ी-बड़ी बातें छोंकता है। जात-बिरादरी में कुछ नहीं रखा। सब नीचे ही आकर बनी हैं। सबके अन्दर एक-सा हाड-माँस दिया है भगवान ने। देख लिया अपने भाषणों का नतीजा।“ मेहरचन्द ने कहा।
”क्या करें, पंचो बताओ, बोलो?“ हरिचरण ने पूछा।
”साथ रखने का धर्म तो छोड़ा नहीं इसने और इसकी लड़की ने। बोलना क्या है, बिरादरी से बाहर करो।“ एक ने कहा।
सबने हाँ में गरदन हिला दी।
”हाँ तो सुनो, अगर कोई पंडित से किसी भी तरह का रिश्ता रखेगा, उसे भी बिरादरी से बाहर कर दिया जाएगा।“ सरपंच ने फैसला सुना दिया।
पंचायत निपट गई थी। सब अपने-अपने घर चले गए।
पंडित सोचने लगा, इससे तो अच्छा था लड़के की बात मानकर किसी और जगह जाकर ही लड़की के फेरे जिस गैर बिरादरी वाले के साथ भागी, उसी के साथ फेर देता। जिस फजीहत की वजह से हाँ नहीं की थी, वह तो फिर भी हो गई।
परिवार के लोग दुःखी होते हुए भी पास नहीं आ रहे थे। सबने पंडित को ब्याह-शादी में बुलाना बन्द कर दिया था। पंडित को रात को नींद नहीं आती थी। पंडित ने एक दिन कहा, ”अब यहाँ नहीं हरिद्वार में जाकर रहेंगे।“ सब बातें याद आ रही थीं। कैसे लोगों के काम करवाता, भागा फिरता था। धक्के खाता था।
पंडिताइन ने कहा ”चाहे भीख माँगकर गुजर करनी हो अब इन कमीने लोगों के साथ नहीं रहेंगे। कितनी बार कहा, इसे छोड़ आओ, छोड़ आओ, पर तुमने क्या सुन कर दिया। रही-सही कसर लड़की ने पूरी कर दी।“
सब खुश होकर सामान बाँध रहे थे। दो दिन से घर में खाने को कुछ नहीं था। सबने गुड़ खाकर, पानी पी लिया था। मुहल्ले वालों का व्यवहार देखकर उनकी आँखों में आँसू छलक-छलक पड़ते थे। सबको जैसे जेल में से रिहाई मिली थी। मगर उमाशंकर पंडित का बेटा रविशंकर भूखा-प्यासा भी यहाँ से जाने को तैयार नहीं था। उसका मन शीशराम की लड़की ओमवती से जुड़ा था। वह भी उसे देखकर अक्सर मुस्कराकर निकल जाती थी। कभी एक बार देखकर आँखें झुकाकर चली जाती थी।
सबको सुबह जाना था।
रविशंकर रास्ते में खड़ा होकर ओमवती का रास्ता देखने लगा। शाम को जब वह पशुओं को लेकर आ रही थी, उसने कहा, ”कल हम जा रहे हैं, रात को नौ बजे कुएँ के पीछे मिलना है तुझसे।“
”मैं नहीं आऊँगी।“
”आ जाइए फिर कभी मुझे देख नहीं पाएगी।“
मजबूर होकर ओमवती बिटोड़ों के पीछे उससे मिलने चली गई।
”हम सब सुबह जा रहे है। सारा गाँव हमें पसन्द नहीं करता। सोचा जाते-जाते तेरे से मिल लूँ।“
ओमवती की आँखों से आँसू बहने लगे। वह उससे लिपटकर रोने लगी। सूरजभान ने उन्हें देख लिया। उसने सोचा, इससे बढ़िया मौका नहीं मिलेगा पंड़ित को निपटाने का। गाँव वाले उसके बजाए पंडित की बात मानने लगे थे। उसे इस बात का बहुत गुस्सा था। दो मिनट में सारे गाँव में उसने हवा सी फैला दी। गाँवों के लोगों ने जरा सी देर में पंडित के घरवालों को पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। सब गालियाँ बक रहे थे। लाठियाँ बरसा रहे थे।
”हमारा ही दिया खाते हो। हमारी ही इज्जत से खिलवाड़ करते हो“, एक ने कहा।
”इसकी तो जात ही खराब है। इसकी लड़की भाग गई थी, दूसरी जाति के लड़के के साथ, तभी जो जाति-बिरादरी से बाहर किया था इसे।“ दूसरे ने कहा।
सूरजभान ने सबको भड़काकर जानवर बना दिया था। पंडित अधमरा पड़ा था। पंडिताइन और उसका बेटा मर गए थे। पुलिस गाड़ी में डालकर उनका पोस्टमार्टम करवाने ले गई थी। पंडित को तीन दिन में होश आया था। पूरा परिवार खत्म हो गया, यह पता चलते ही वह पागल-सा हो गया। कभी हँसता, कभी रोता। कभी लोगों को समझाने लगता। अब वह और वही बाहरी औरत ही घर में बैठे दिखाई देते थे। दो दिन से तरस खाकर राजकली खाना दे रही थी।
सूरजभान ने पंचायत इकट्ठी करके कहा- ”पंडित और उसके परिवार को उसके कर्मों की सजा मिल गई पर हम फिर भी इन्हें किसी चीज की कमी नहीं होने देंगे। यह हमारा धर्म है।“
सब सूरजभान के असर में गर्दन हिला रहे थे। सूरजभान के एक-दो चेले सूरजभान जिन्दाबाद के नारे भी लगा रहे थे।
रात को शराब पीते हुए बीर सिंह बोला, ”बड़े भाई! जवाब नहीं तुम्हारा भी, साँप भी मर गया लाठी भी नहीं टूटी।“
सूरजभान अपनी बु(िमानी पर फूलकर कुप्पा हो गया। सुबह वह अपने घर से लाया हुआ खाने-पीने का सामान पंडित के घर रखकर खुश होता हुआ जा रहा था। घर पहुँचते ही पुलिस ने उसके हाथों में हथकड़ी लगा दी।
”मेरा कसूर क्या है?“
”तेरे खिलाफ पंडित की लड़की ने गाँव वालों को उकसाकर अपनी माँ-भाई की हत्या करवाने की रिपार्ट लिखवाई है।“ पुलिस वाला बोला।
”गवाह कौन बने?“ उसने पूछा
”गवाह शीशराम की लड़की ओमवती बनी है।“ पुलिस वाले ने बताया।
पुलिस सूरजभान को लेकर जा रही थी। उसके परिवार वाले रो रहे थे। रास्ते में देखकर बीर सिंह बोला, ”बड़े भाई, यू के चाला होग्या?“
उधर पंडित की लड़की और दामाद पंडित को लेने आए थे।
”पिताजी! चलो, हम आपको लेने आए हैं?“ पंडित का दामाद बोला।
”कुछ भी नहीं रहा, सब खत्म हो गया। तेरी माँ, तेरा भाई, सब मार दिए।“ रोते हुए पंडित बेटी से बोला।
लड़की, पिताजी से लिपटकर रोने लगी। किसी तरह दामाद ने चुप किया।
”चलो पिताजी“, वह बोली।
”चल री“, पंडित ने उस औरत की तरफ हाथ से इशारा किया।
”यह कौन है?“ पंडित की लड़की ने पूछा।
”यह अब हमारे साथ ही रहती है।“ पंडित ने बताया।
पंडित की लड़की कुछ सोचने लगी।
एक गाड़ी आई। उसमें से एक लड़का निकला और उस औरत का हाथ पकड़कर बोला - ”माँ।“ औरत भी उसे देखते ही खुश हो गई।
”चल माँ“, लड़के ने कहा। अखबार में पंडित के परिवार के साथ अपनी माँ का फोटो देखकर वह अपनी माँ को लेने आया था।
”आप लोगों का बहुत अहसान है मुझ पर“, पंडित की तरफ मुँह करके हाथ जोड़कर लड़के ने कहा।
”चल बेटा“, लड़के का हाथ पकड़कर औरत बोली। उसे लड़के में कुछ अपनापन सा लगा था।
”चलती हूँ।“ पंडित की तरफ मुँह करके सिर पर हाथ फेरकर औरत ने कहा। ”ध्यान रखिए अपना, बेटे!“
पंडित ने हाथ जोड़ दिए। ”ध्यान रखना, माँजी का।“ उसकी आँखों में माँ से बिछुड़ने जैसा दर्द उभर आया था। गाँव वालों के मुँह खुले रह गये थे।
एक गाँव वाला बोला ”यू के चाला हो ग्या?“