नई शिक्षा नीति मे शिक्षा की पहुँच, समानता, गुणवत्ता, वहनीय शिक्षा और उत्तरदायित्वके लिए विभिन्न नए प्रयोग प्रतिपादित हैं । ‘भारतीय अनुवाद और व्याख्या संस्थान’,‘फारसी, पाली और प्राकृत के लिये राष्ट्रीय संस्थान’तथा उच्च शिक्षण संस्थानों में आर्ट्स, साइंस या कॉमर्स के छात्रों के लिए परस्पर एक दूसरे के विषयों कि उपलब्धता ऐसे निर्णय हैं जिनसे निस्सन्देह उन छात्रों का बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान बढ़ेगाजो इसे बढ़ाना चाहेंगे । यानि छात्रों को पढ़ने की सुविधा तो पर्याप्त दे दी गई है परन्तु क्या वो अपनी भाषा और साहित्य पढ़ना चाहेंगे? क्या उनमे चाव उत्पन्न करने के लिए अपनी भाषा और साहित्य मे पर्याप्त ग्लैमर(आकर्षण, रुझान, अमल) है?
अगर नहीं तो क्या ये भी आवश्यक नहीं कि उनमे अपने साहित्य के प्रति चाव जगे और वो उसका अध्ययन करना चाहें?
भाषासाक्षारता व अध्ययन की उपलब्धता बढ़ाने की आड़ मे क्या ये कहा जा सकता है कि हमारे साहित्य के उत्थान के लिए इस नीति मे इस दिशा मे पर्याप्त उद्योग किया गया है?
उपरोक्त सारी बातों से मेरा तात्पर्य मात्र इतना है कि क्या नई शिक्षा नीतिसाहित्य के उत्थान मे कोई भूमिका निभाएगी? यदि हाँ तोआखिर कितनी ?
क्या कारण है किअँग्रेजी साहित्यऔर शोध मे रोज नए नाम और आयाम नज़र आते हैं जबकि हमारे यहाँ शोध के नाम पर हमारे तथाकथित मेधावी कुछ गिने चुने लेखकों तक सीमित होकर रह जाते हैं ?
आखिर हमारे शोधछात्र कबतक और कितना घिसेंगे प्रेमचंद, मंटो और निर्मल वर्मा को?
आखिर कबतक हम दुनियाँ से कहते रहेंगे कि हमारे हाथ सूँघ लो हमारे बापदादों ने घी खाया था ?
ये जग जाहिर है कि शोध के नाम पर पूर्णतया नहीं तो अधिकांशतया खानापुरी तो हो ही रही है ?और जो ये खानापुरी नहीं कर रहे वो उनका अपना जुनून है, चाव है।यानि वोजुनून,वो चाव हमने नहीं पैदा किया?
हम सब जानते हैं कि श्री देवकीनन्दन खत्री जी प्रतिदिन अपने उपन्यास चन्द्रकान्ता के एक पृष्ठ का सृजन करते थे जो अगले दिन उनके अखबार मे छपता था । जिसके बारे मे नेहरू जी के शब्द थे,‘हजारों लोगों ने सिर्फ़ उस एक पृष्ठ को पढ़ने के उत्साह मे हिन्दी सीखी थी।’यानि वो अपनी लेखनी की शक्ति से लोगों मे उस कथा के प्रति, चाव व ग्लैमर उत्पन्न करने मे सक्षम हुए थे । ऐसा ही चाव व रुझान दूसरे कालजयी लेखकों की कृतियाँ ने भी पैदा किया था। यही कारण है कि बौद्धिक गोष्ठियों मे उन महान लेखकों का नाम लेकर लोगों को अपने साहित्यविद होने का अहसास कराना, उनकी कृतियों को हाथ मे ले कर घूमना फैशनबना गया था। वस्तुतः इसी आकर्षण ने शोधछात्रों को भी आकर्षित किया।स्पष्ट है कि चाव और रुझान ने फैशन का रूप लिया।
नौकरी और रोजगार के क्षेत्र मे अंग्रेज़ियत के बढ़ने से धीरे धीरे हमारी भाषा और साहित्य को किनारे करना शुरू किया।अँग्रेजी भाषा व साहित्यने रोज नए नामों और आयामों के साथ ज़ोर शोर से अपनी तड़क भड़क दिखानी शुरू की और आज हम इस स्थिति मे पहुँच गए कि हमे इस विषय मे बात करनी पड़ रही है। दरअसल अधिकांश उद्योग अँग्रेजी बोलने वाले कर्मचारियों को न सिर्फ़ वरीयता देते हैं बल्कि उन्हें ही रखना पसंद करते हैं । सारे साक्षात्कार भी अँग्रेजी मे ही होते हैं । हिन्दी की ओर उदासीनता का ये भी एक और मुख्य कारण है । यानि हमारे साहित्य की अन्ततः दो मुख्य समस्याएँ हैं ‘आकर्षण और आजीविका’।
आकर्षण
आज के युग मे तड़क भड़क का जादू यानि ग्लैमरसर चढ़ के बोलता है । फैशन का जमाना है । तब सवाल उठता है, कि ‘क्या अब हमारे यहाँ ऐसे लेखक पैदा नहीं होते जिनका नाम लेकर लोग अपने साहित्यविद होने का अहसास कराना व उनकी कृतियों को हाथ मे ले कर घूमना फैशनसमझें?
‘जी बिलकुल हैं । कोई कमी नहीं है । परन्तु हमने तो कविसम्मेलन, व्यंग्य सम्मेलन, मुशायरा, किस्सागोई, गोष्यठियाँ, निबंध, आलोचना, प्रोत्साहन पुरस्कार, कहने का मतलब सारे खेल तमाशे कर के देख लिए लेकिन कुछ ख़ास फ़र्क नज़र नहीं आया ।इस नित्य बदलती सोच और तेज़ी से बदलती पसन्द के जमाने मे आकर्षित करने के लिए अब ज़्यादा ग्लैमर वाले प्रचार की आवश्यकता है ।आख़िर कैसे पैदा होगा ये रुझान?
दरअसल हमे आवश्यकता है अपनी शिक्षा नीति मे ऐसे विधान की जो हमारी भाषा के आकर्षण को इस नई पीढ़ी या छात्रों के दिलोदिमाग मे फैशन के रूप मे इस तरह बैठा दे कि वो इसे प्रयोग करने मे उतना ही गर्व महसूस करने लगें जितना अँग्रेजी को प्रयोग करने मे करते हैं ।
अंग्रेजी व विदेशी साहित्य को ये ग्लैमर लिट्रेरी एजेन्टों के माध्यम से प्राप्त होता है । क्योंकि ये बड़ी पैनी दृष्टि रखते हैं कोई नया अनोखा सृजन या सृजक इनकी दृष्टि से बच नहीं सकता । ये ही प्रकाशक, लेखक, पाठक, प्रचार, संचार, रेडियो, टीवी सबके हित का एक वकील बनाम जज की तरह पूरा ध्यान रखते हैं । ये अपने व्यवसाय के प्रति इतने ईमानदार होते हैं कि सब इनका भरोसा करते हैं सब इनकी बात मानते हैं ।हमारे देश मे टांग खिचाई की परम्परा होने के कारण लिट्रेरी एजेंट अव्वल तो हैं नहीं और जो हैं वो लिट्रेरी यानि साहित्यक होने के स्थान पर तीन नये प्रकार के हैं । आइये इसे विस्तार से समझते हैं।
- आलसी:
ये ढर्रे वाले साहित्य पर केन्द्रित रहते हैं क्योंकि ये बिना मेहनत खूब बिकता है । कारण ? अधिकांश प्रकाशक, साहित्य के आकर्षण, रुझान, अमल मे से मात्र अमल पर केंद्रित रहते हैं यानी बाज़ार के बजाय दुकान की चिन्ता करते हैं चूंकि पुराने, लेखक (यानि प्रेमचन्द, मंटो और निर्मल वर्मा...आदि) आसानी से बिक जाते हैं । इसी प्रकार फिर दूसरी भाषाओं के प्रसिद्ध लेखकों के अनुवाद आसानी से छपते बिकते हैं । इसीलिए लेखक के स्थान पर अनुवादक अधिक मिलते हैं । मैं ये नहीं कहता कि इसमे कुछ बुराई है लेकिन हिन्दी का मौलिक सृजन इससे आहत होता है। बड़े प्रकाशकों का एक तबका सिर्फ यही सुरक्षित व्यापार करता है।
- विरोधी:
इन्हें वो साहित्य पसन्द आता है जिसमे भारत या भारतवासियों को जम के गाली दी गयी हो क्योंकि उस पर सामान्यतः पुरस्कार मिलने मे आसानी होती है । ये अँग्रेजी के प्रभाव से भी ग्रसित हैं । खुदा न खासता इनको अगर आपकी कोई रचना पसंद आ भी जाये तो ये कहेंगे कि आप इसे अँग्रेजी मे अनुवादित कर लाएँ। हम पहले अँग्रेजी मे प्रकाशित करेंगे फिर हिन्दी मे। इसके लिए ये पूर्ण रूप से जिम्मेदार नहीं है दरअसल पाठकों को भी ये अहसास-ए-कमतरी है। हिन्दी की किताब हाथ मे ले के घूमने मे शरम आती है और अँग्रेजी की किताब ले के घूमने मे शान समझते हैं। लीजिये फिर हिन्दी बेचारी हो गयी। हम फिर वहीं पहुँच गए जहाँ से चले थे।
- धनाढ्य:
ये वो लिट्रेरी एजेन्ट हैं जिन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि आपने क्या लिखा है,उसमे मौलिकता है या नहीं,समाज या दुनियाँ के विचार करने के लिए कुछ है भी या नहीं। ऐसे किसी विचार के प्रति ये निर्विकार होते हैं आप फोन कीजिये, आपके लेखन के बारे मे सुने बगैर ही ये बीच मे बात काट के एक बड़ी रकम बताते हुए कहेंगे इतने रुपये लगेंगे आपका काम हो जाएगा । अब इनसे कोई पूछे कि जब आप कहीं काम करते है या नौकरी करते हैं तो वहाँ से आपको पारिश्रमिक मिलता है न कि आप मालिक को काम करने देने की कीमत देते हैं कि लो भैया, तुमने हमे काम करने दिया उसके लिए धन्यवाद स्वरूप ये धन तुम रखो।
ये वर्ग किताब की छपाई से लेकर लोकार्पण के लिए हाल, किराए के दर्शक, पुरस्कार वगैरह सब आपके ही पैसे से आयोजित करते हैं । अब किताब लोगों तक पहुँचती है या नहीं उनकी बला से ।
कुल मिला केभारतीय लिटरेरी एजेंट नाम का ये जीव न तो प्रशिक्षित है न ही इनके लिए कोई नियम कानून,आचार संघिता ही है ।
आजीविका
मेरे एक सिद्धान्तवादी वरिष्ठ, वैद्युत अभियंत्रण मे अपनी पढ़ाई पूरी करने व वरीयता क्रम मे द्वितीय स्थान प्राप्त करने के बाद, भारत की एक बहुत बड़ी तथा प्रसिद्ध कंपनी मे साक्षात्कार के लिए गए। अभिवादन के पश्चात उन्होंनेसाक्षात्कार समिति से पूछा,‘क्या मैं अपना साक्षात्कार राजभाषा हिन्दी मे दे सकता हूँ ।’
‘नहीं यहाँ सारा काम काज अँग्रेजी मे होता है अतः हमे अँग्रेजी मे बात करने वाले इंजिनियर की आवशयकता है।’
‘तब मैं क्षमा चाहता हूँ श्रीमान।’इतना कहकर उन्होंने हाथ जोड़ दिये तथा वापस जाने के लिए मुड़े । तब साक्षात्कार समिति ने उन्हें रोका और उन्हें हिन्दी मे बोलने की अनुमति दी । परन्तु साक्षात्कार के उपरान्त उन्हें अंग्रेजी मे साक्षात्कार न देने के कारण अयोग्य घोषित कर दिया गया। मैं स्वयं भी कई बार इस प्रकार के अनुभवों से हो कर गुजारा हूँ और देखा है कि इस प्रकार के साक्षात्कारों मे चुने गए प्रत्याशियों का स्तर तकनीकी जानकारी के दृष्टिकोण से संदेहास्पद था ।’
हमारे डॉक्टरों, इंजिनियरों,एकाउंटेंटों को दिनभर आम आदमी से हमारी भाषा मे बात करनी होती है लेकिन जब वो नौकरी के लिए जाते हैं तो उनका भी साक्षात्कार अँग्रेजी मे ही होता है। नौकरी चाहे,डॉक्टर,इंजिनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंटकी हो या ड्राईवर, कंडक्टर, खलासी की;अधिकांश उद्योगों की पसंद अँग्रेजी बोलने वाले कर्मचारी ही होते हैं ।पदोन्नति मे भी उन्हें ही वरीयता मिलती है।
मेरी ये भी समझ मे नहीं आता कि जब भाषा साहित्य के उत्थान हेतु इतना सारा कार्य होना बाकी है तो सम्बन्धित पदों की संख्या इतनी कम क्यों है ?
शिक्षा नीति व शिक्षण की भूमिका:
- व्यावसायिक प्रशिक्षण
पत्रकारिता की ही तरह लिट्रेरी एजेन्ट के लिए भी व्यावसायिक प्रशिक्षण कोर्स होना चाहिए । डॉक्टर, इंजिनियर चार्टर्ड अकाउंटेंट, ड्राईवर, कंडक्टर, खलासी की तरह इनकी भी लाइसेंसिंग होनी चाहिए। आचार संघिता, अभियोग तथा दंड का विधान होना चाहिए। दुनिया कि दूसरी भाषाओं ने इसी प्रकार अपने साहित्य का विस्तार किया है ।
- नौकरी व रोजगार मे प्रोत्साहन
उद्योगों को निर्देश होना चाहिए कि वो अँग्रेजियत की मानसिकता से बाहर आयें और अपनी भाषा मे साक्षात्कारलें व योग्यतानुसार चयन करें न कि भाषा के आधार पर । अपनी भाषा मे काम करने वाले कर्मचारियों के प्रति सार्वजनिक रूप से वैसा ही सम्मान प्रकट करें जैसा अँग्रेजी बोलने वालों के प्रति करते हैं। इस निर्देश का उल्लंघन करने पर दंड का विधान होना चाहिए।
विभिन्न विद्या संस्थानों व सम्बन्धित विभागों मे भाषा व साहित्य के उत्थान सम्बधित पदों का विस्तार होना चाहिए। इन पदों का वेतनमान भी अन्य पदों के समान हो ताकि योग्य प्रत्याशी आकर्षित हों।
- तकनीकी एकरूपता
हमारी मानसिकता है कि जनसमर्थन या शक्ति मिलते ही हम अपनी ढफली अपना राग अलापने लगते हैं और टकराव के रास्ते पर चल पड़ते हैं । उदाहरण के लिए जब सारी दुनियाँ ओपन टाइप डिजिटल प्रकार के फॉन्ट इस्तेमाल कर रही है तो हम क्यों अपना वही ट्रू टाइप का पुराना रिकार्ड बजाने पर तुले हैं?क्या ये हमारा अकारण पूर्वाग्रह नहीं है?
“जो रहीम ओछो बढ़े, तौ अति ही इतराय,
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ों जाय ।
आखिर क्या जरूरत है दो प्रकार के फॉन्ट की ? क्या भ्रमित और परेशान करने के लिए ?ओपन टाइप, डिजिटल प्रकार के फॉन्ट के लिए एक नया मानक है, जिसे एडोबी और माइक्रोसॉफ्ट द्वारा संयुक्त रूप से विकसित किया है।ये यानि ओपन टाइप फ़ॉन्ट एक एकल फ़ाइल है, जिसका उपयोग रूपांतरण के बिना Macintosh और Windows दोनों प्लेटफ़ॉर्म पर किया जा सकता है। इस्तेमाल करना भी आसान है । बाजार मे जो साधारण अँग्रेजी का कीबोर्ड उपलब्ध है यानि जिसकी हमारी आपकी उँगलियां अभ्यस्त हैं उसी से काम हो जाता है।
कहने का मतलब हमे ये लड़ाई दूसरी भाषाओं से लड़कर नहीं उनके साथ चल कर जीतनी होगी ।जब हम तरह तरह के आंदोलन और वहिष्कार करके देख चुके और कोई उपलब्धि नहीं हुई, कुछ भी हासिल नहीं हुआ तो क्यों न एक बार टकराव का रास्ता छोड़ दुनियाँ के साथ चल के देखा जाये ।एक यही रास्ता बचा है जो कि निरापद तो है ही और हमने इसपर चलकर भी नहीं देखा ।