भारत के लोकजीवन की अवधारणा ब्रह्मांड को संचालित करने वाली परमात्मा की मायाशक्तियों से आच्छन है। लोक में देव या देवता शब्द का प्रयोग मनुष्य के आत्मसाक्षात्कार से आर्भिभूत अहर्निश दिव्यता को उपलब्ध होने पर तथा पवित्र आत्माओं एवं जड़ चेतन प्रकृति ओर सूर्य, चंद्र, ग्रह नक्षत्रों व जगत के कर्ता- धर्ता परमेश्वर के लिए प्रयुक्त हुआ है। जगत में जो दृश्यमान आवृत्य है ओर जो दृष्टि से परे अनावृत है वही परमात्मा का अविच्छिन अंश है। आवृत अंश/भाग संसार है जो परमात्मा की मायाशक्ति से आच्छन्न है। यह माया ही आदघ्याशक्ति है जो दुर्गा कही गई है। दुर्गा के 9 स्वरूप है जिनसे संसार का कार्य संचालन माना गया है। परमात्मा देश-काल की परिधि से रहित है परंतु जब भी प्रकृति ओर उसके कार्य रूप संसार का जिक्र होता है तो परमात्मा ही प्रकृति सत्ता को स्फूर्त रूप दिये जाने के कारण सबका अधिष्ठान कारण माना गया है, यानि अक्षय शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है। वैसे ही लोक जीवन में अनादिकाल से श्रुति- स्मृति परंपरा के प्रवाहरूप में पुरखों को स्थान दिया जाकर लोककल्याणकारी भाव से पूजा जाता है। देवी देवतायों को शक्ति का अवतार माना गया है जिनकी शक्तियाँ अनावृत होने पर शाश्वत के प्रति आस्था का सैलाब उमड़ता है वही आवृत भाग के प्रगटन न होने से रहस्य बना रहता है। देश के कई प्रान्तों, जनपदों, ग्रामों में धर्म-आध्यात्म की प्रवाहित लोक सांस्कृतिक शक्तियों की त्रिवेणी में अवतारों के साथ-साथ कुल के देवता- लोक देवता ओर देवियों के उदभव,विकास ओर सुयश के संबंध में प्रचलित गीत- गाथाएँ ओर किवदंतियाँ आस्था का केन्द्रबिन्दु बनी हुई है। यहा हम बुंदेलखंड के जनजीवन में रचे बसे लोक देवता कारसदेव जिन्हे शिव का अवतार भी माना गया है उनके जन्म, कर्म आदि को लेकर जनमानस के मन की जिज्ञासायों को अनावृत करने का प्रयास करेंगे साथ ही उनके भाई हीरामन देव एवं अजयपाल जो कारसदेव के साथ जंगल मे गाय चराया करते थे पर चिंतन मनन करेंगे। बुन्देली गाथा पर इतिहासकार नर्मदाप्रसाद गुप्त,डॉ॰ गंगाप्रसाद बरसैया,दीवान प्रतिपाल सिंह, काशीप्रसाद जायसवाल एवं गोरेलाल तिवारी आदि ने बुंदेलखंड की लोक संस्कृति ओर इतिहास आदि में लोकदेवों का वर्णन किया है जिनमें, घटना, काल, चरित्र को लेकर अनेक मतभेद देखने को मिले। प्राय: सभी की अभिव्यक्ति को जोड़घटाकर जो अतिशयोक्तिपूर्ण लगा उससे परहेज कर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है जिसमे लोकदेवता कारसदेव भी यहा के जनमानस मे प्रमुख स्थान रखते है । कारसदेव पशुओ में गो रक्षक के साथ लोकरक्षक देवता माने गए है तभी भाद्रपक्ष की चतुर्थी को रात के 12 बजे उनका जन्म होना मानकर इस दिन इनकी विशेष पूजा की जाती है ओर भक्त रातभर ढांक (डमरू) जैसे आवाज के साथ विचित्र घुन में गोटें (गीत) गाते है जिसमे कारसदेव के जन्म से लेकर बाल्यावस्था, युवावस्था के शौर्य का सुंदर चरित्र सुनने को मिलता है। हर धर्म-वर्ग के लोग अपने हर छोटे बड़े कर्म में पूजा, प्रतिष्ठा, संस्कार में अपने देवी देवता का आव्हान करते है, उनकी मनौती के लिए रात्रि जागरण, भजन-कीर्तन पूर्ण समर्पण के साथ अनुष्ठान करते है। सबके अलग-अलग देवी-देवता है, सबकी अलग-अलग विशिष्ठ पूजाए हो सकती है,सबकी मान-मनावत भिन्न हो सकती है। इस समाज में मनुष्यों ने देवताओं को कई वर्गों में विभक्त कर पूजा है जिसमें सबसे पहले प्रकृति पूजा को प्रथम मान्यता है ओर प्रकृति को देवत्व का स्थान देकर वृक्ष, भूमि, पर्वत, नदी, पवन, सूर्य,चंद्र, शनि आदि को प्रकृतिपरक देव माना है वही जो अनिष्टकारक है वे अनिष्टदेव के रूप में पूजे जाते है जिनमें अग्नि, सर्प,भूत,प्रेत आँधी ,मृत्यु, राहू, केतू आदि शामिल किए गए है। अनेक जातियो के लोगों ने अपनी-अपनी जाति का होने से देवताओं को जातिपरक मानकर पूजना शुरू किया है जिनमें बड़ा देव, ठाकुरदेव, नारायण देव, घमसेन, नगरसेन,कारसदेव, ग्वालबाबा, गुरईया देव (ग्वालों व अहीरों के) मसान बाबा(तेलियों के) भियाराने बाबा (काछियों के) गौंड बाबा, गुरुआ बाबा, हीरामनदेव, नटनी मैया, हंसों मैया चौखे बाबा, जोधाबाबा, बनवारी बाबा,पटेल बाबा, सफाबाबा, माटूबाबा(ग्वालों के) को पूज्य माना है वही स्थलपरक देवी देवताओं मे गाँव-खेड़े की सुरक्षा के लिए खेड़ापति माई जो खेरमाई जो हर गाँव खेड़े के बाहर विराजमान होती है, खेड़ापति हनुमान जी जिनका मंदिर गाँव, शहर के बाहर होता है, खेतों की मेड के देवता के रूप में मिडोइयाबाबा , कुआ या घाट के लिए घटोइया बाबा, पौरिया बाबा,विवाहपरक देवी देवताओं में गणेश, पार्वती-गौरी, दुल्हादेव एवं हरदौल बाबा तथा शक्तिपरक में शिव, दुर्गा, काली, हनुमान,चंडिका, भैरोदेवे स्वास्थ्यपरक देवताओं में धन्वन्तरी देवता, शीतलामाता, मरईमाता, करौली माता,अश्विनीकुमार आदि है वही लोकमानस द्वारा संतान के रक्षक देवी देवता के रूप में बीजासेनदेवी, षष्ठी माता,बेइया माता, दशारानीमाता, रक्कसबाबा,सहित अपने कुल देवी देवताओ ओर पूर्वजों को विशिष्ट रूप से पूजा जाता है। इनसे हटकर पशु-पक्षियों की व्याधि ओर उनके उपचार के लिए अकेले कारसदेवता का नाम आता है जो विशेष रूप से गौधन –भैस आदि जानवरों को किसी कीड़े द्वारा सताने,सर्प द्वारा डसने,किसी भी तंत्र-मंत्र ओघड़-मसान द्वारा प्रताड़ित करने पर उस जानवर की फरियाद कारसदेव के चबूतरे पर करने से, उस पशु का दूध अर्पित करने से वह जानवर स्वस्थ हो जाता है। चंदेलों के शासनकाल में कारसदेव की गोटों में उन्हे शंकर का अवतार माना जाकर स्थानीय देवों में शामिल किया गया है। इसके अलावा लोक देवों में मनिया बाबा, चंडिका देवी, भैरवबाबा,मैहर की शारदा देवी, हीरामन बाबा, अजयपाल बाबा आदि को शामिल किया गया है। आल्हाखंड से बुंदेलखंड तक आल्हा की गाथाओं,कारसदेव की गोटों,कजरीयन के राछरे, गहनई ओर कन्हैया आदि में इन देवों का उल्लेख मिलता है। बुंदेलखंड में गोपालक देवता के रूप में कारसदेव की पूजा की जाती है जो समूचे ब्रजमण्डल सहित बुंदेलखण्ड, मालवान्चल के हर शहर, कस्वे,जनपद व गाँव में यादव, अहीर, ग्वाला, गुर्जर, गड़रिया आदि समाजों द्वारा भाद्रपक्ष को खीर पूड़ी से पूजे जाते है। इसके अलावा पूजा में दूध, दही, शुद्ध घी चढ़ाकर कारसदेव से अपने-अपने पशुओं के निरोगी रहने ओर सभी तरह की बाधाओं से मुक्त रखने के प्रार्थना की जाती है। कारसदेव सच्चे अर्थों में पशुओं के रक्षक वीर योद्धा थे यही कारण है की उनकी मढ़िया के सामने घोड़ा प्रतीक रूप में खड़ा किया जाता है ओर मान्यता है कि कारसदेवता घोड़े पर चढ़कर गो हंतायो से युद्ध कर पशुओ कि सुरक्षा करते थे। कारस देव का जन्मकाल ग्यारवी- बारहवी सदी के मध्य माना गया है जहा उनके नाम के साथ हीरामन का भी उल्लेख मिलता है जो कारस देव के साथ गाय चराने जंगल जाया करते थे। कारसदेव के जन्म को लेकर अनेक किवदंतिया प्रचलित है जिसमें बुंदेलखंड के ग्राम झांज के गुजर परिवार में एक निसंतान सरनी माँ का जिक्र किया गया है कि उन्होने 12 वर्ष तक शिवजी की कठोर तपस्या निराहार रहकर की थी । एक दिन प्रात: सरोवर में सरनी माँ को एक विशाल कमल का फूल दिखा जिसपर एक सुंदर सा शिशु बालक लेटा हुआ था जिसे सरनी माँ ने शिवजी की कृपा मानकर गोद में ले लिया ओर पुचकारने लगी । सरनी की एक पुत्री ऐलादी का परिचय एक गोट में मिलता है जो वीरांगना थी- बारा बरस तपिया तपी,करें न अन्न आहार। सरनी गई स्नान खों,अहेले तला के पार । कमल पर पौर्ढो राजकुमार॥ सौ सौ दल कमला खिले, भ्रमर रहे गुंजार । एक कमल पर ऐसे लगे, जैसे दियला जले हजार॥ कमल पर पौर्ढो राजकुमार॥ उठा सरनी ओली लये, कारस को पुचकार जप-तप सब पूरन भये,मोरी शिव ने सुनी पुकार। कमल पर पौर्ढो राजकुमार॥ संसार में प्राय: हर आदमी अधूरा है ओर वह थक हारकर हताश हो जाता है तब देवी देवताओं की शरण में पहुचकर मानसिक तुष्टि पाता है जो देवता के प्रसाद या वरदान की तरह उसके अंतस को आनंद से भर देती है। सरनी माता कारसदेव को लेकर घर गई जहा उन्हे लाड प्यार से पाला। कारसदेव के हीरामन ओर सूरजपाल नाम के दो चचेरे भाई का उल्लेख मिलता है जो बहुत ही साहसी ओर वीर थे उनके पास अपार गोधन था जिसे तीनों मिलकर गाये चराने जाते थे। कारसदेव की गोटों में इसका वर्णन किया गया है – जनम के कारसदेव कनईया, पतों भेद काऊये नईया। ऐलादी ने बारह बरस सेवा कर लई, भोला अड्बंगेनाथ की।। ताली खुली भोला अड्बंगेनाथ की,आज कौ माँगों पाव । ऐलादी ऐसे वीर मांग रई, गईयन के चरैया धोरी की रखैया। सूरजपाल के भैया ,जेठी बल पाय॥ कारसदेव की बहिन ऐलादी की वीरता के किस्से भी चर्चित रहे है जिसमें कहा जाता है कि एक दिन दिल्ली के बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी का मदमस्त हाथी सांकल तोड़कर भाग गया ओर उनसे कई लोगों को कुचल कर मार दिया, खेत खलियानों को नष्ट कर दिया, राजा के सैनिक उसे पकड़ने की हिम्मत नहीं कर प रहे थे तब हाथी की सांकल जो जमीन से रगड़ती जा रही थी उसे ऐलादी ने देखा ओर हाथी की सांकल पर पैर रखकर रोक दिया ओर सैनिको से बोली तुम्हारे हाथी को ले जाये अगर मेरे पिता राजू चंदीला को अगर पता लग गया कि तुम लोगों ने हाथी से जानमाल का इतना नुक्सान पहुँचाया है ,तो तुम्हारी उम्र जेल में ही बीतेगी सैनिकों ने लौट कर सारा समाचार बादशाह को सुनाया। बादशाह ने शक्तिशाली ओर सुंदरी वीरांगना की प्रशंसा की तो उनका बेटा जिद कर बैठा कि वह ऐसी वीरांगना से विवाह करेगा ओर उसने शादी का प्रस्ताव भिजवा दिया। साथ ही संदेश भेजा कि अगर इंकार किया तो युद्ध करना होगा। राजू चंदीला ने युद्ध को चुना, भयंकर युद्ध हुआ, राजू चंदीला की थोड़ी सी सेना बादशाह के सामने धराशाई होने लगी अगले दिन हार निश्चित मानकर ,राजू चंदीला रात्रि में सुरंगो में होते हुए बचते बचाते ,अपनी पुत्री और पत्नी को लेकर ,भरतपुर की ओर रवाना हो गये, जहाँ उन्होंने बैर तहसील के निठार गाँव में बसेरा किया ,दूसरे दिन बल्लभगढ़ होते बूढी जहाज पहुंचे ,जहाज पहुंचकर राजू चंदीला ने ,मान्या लुहार के यहाँ नौकरी कर लीमान्या लुहार काफी बलशाली और बात बाला योद्धा था ,उसको जब राजू चंदीला ने मामला समझाया तो मान्या लुहार बादशाह के खिलाफ राजू चंदीला को दोस्त की तरह समर्थन दिया। ऐलादी का यह प्रसंग को लेकर अलग अलग मान्यता है कोई इसे कारस देव के जन्म कि पूर्व होना बताता है तो कोई जन्म के समय होना बतलाता है। बुन्देलखण्ड अंचल के ग्राम झांझ में कारसदेव का जन्म एक गुर्जर परिवार में माता सारनी के यहा भादों वदी चौथ की रात के 12 बजे होने का प्रसंग भी चर्चित है जिसे आज भी गुर्जर, ग्वाल, अहीर एवं यादव समाज के बीच उनकी गाथा को गोट शैली में प्रस्तुत किया जाता है गाथा के नायक, पशुपालक जाति के वीर कारसदेव के चबूतरे छोटे आकार में ईटों से घरनुमा आले जैसे बने होते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी माना जाता रहा है कि इन चबूतरों पर एक में कारसदेव और दूसरे में भाई सूरजपाल प्रतिष्ठित है ओर इन देवताओं को सम्मान देने के लिए बांस पर सफेद झंडी की ध्वजा फहरायी जाती है। प्रत्येक वर्ष भादों मास की कृष्ण चतुर्थी एवं शुक्ल चतुर्थी को गुर्जर अहीर पड़िहार के साथ इकट्ठे होते है जिस पर कारसदेव की सवारी आती है। कारसदेव गायों को चराने के साथ साथ उनकी रक्षा भी करते है, गोटो में एक किस्सा आता है कि कोई भुवनसिंह जो भुवना नाम से विख्यात था वह जंगल में चरनेवाली गायों को चोरी कर मुस्लिम म्लेक्षों को बेचता था ओर ऐसे ही वह गाय के एक झुंड को अपने ताकतवर नौकरों के साथ चोरी करके ले जा रहा था तब कारसदेव 12 साल के थे उनको खबर लग गई वे हाथ में नंगी तलवार लिए भुवना से मुक़ाबला करने चल दिये ओर उसके नौकर गायों को हाँककर ले जा रहे थे तभी कारसदेव ने उन्हे ललकारा। भुवना ने उन्हे बच्चा कहकर लौट जाने को कहा ओर बोले अगर मरना है तो आ जाओ। कारसदेव ने भुवना एवं उसके साथ शक्तिशाली योध्दाओं का डटकर सामना किया ओर परास्त कर खदेड़दिया ओर उसके द्वारा चोरी करके ले जायी जाने बाली सभी गायों को मुक्त कराया जिसका गोट में चित्रण मिलता है – बढ़ा द्ये बछेरा अपनें खिरक के, कारस पाँचे भुवन के दोर । रूरुर –खुरूर बच्छा डारे,ठाढ़े बदलों लै लियो बहोर । सुन रे भुवना कान लगाय । बिजुरिया ऐसों खाँड़ों,कांडों जैसे जीभ काड़े करिया नाग । भुवना आग बबूला भयों,आओ सामें मार छलांग , बोलो देहों मजा चखाय। कारस सुन भुवना कि बात, मनें मन मुस्काय। कर लै दो-दो दावरे , बोलो खाँड़ों उठाय । अपनों बदलों लेबें चुकाय। भुवना धरन गिरों रे ऐसे, जैसे गिरे टूट के डार। बारह बरस को कारस खेलें , लै कै नगन तलवार। झांझ के मिट गए दुक्ख अपार॥ बुंदेलखंड में कारसदेव को लेकर प्रचलित किवदंतीयों में प्रसंग मिलता है कि एक बार भगवान शंकर अपने इस स्वरूप कि परीक्षा लेने एक साधु के रूप में आए तब कारस वहाँ बच्चों के साथ खेल रहे थे कारस ने देखा वे यहा गायों को चराते है लेकिन कभी कोई साधू नही दिखा, इन साधु महाराज को देखकर कारस ने उन्हे प्रणाम कर निवेदन किया कि आपको कोई कष्ट तो नहीं, अगर कोई सेवा हो तो निसंकोच कहिए। शिव शंकर रूपी साधु बालक के विनम्र स्वभाव देखकर बोले अगर तेरी मेरे प्रति गहरी श्रद्धा है तो मेरे कमंडल में बिन व्याही बकरी का दूध लाकर दे दो। बालक कारस जानता था कि जो बकरी अभी व्याही ही नही, जिसने बच्चा जना नहीं वह कैसे दूध देगी फिर भी कमंडल हाथ में लिए कारस पास ही बकरी चराने वाले ग्वाले के पास पहुचे ओर सारी बात विस्तार से बता दी। ग्वाला भी आश्चर्य से भरा था कि यह कैसे संभव है फिर भी उसने कारस को एक बिन व्याही बकरी की ओर इशारा करके दूध दुहने को कहा। कारस ने उस बिन व्याही बकरी के नीचे कमंडल रखा तो उसके थनों से अपने आप दूध कि धार बहने लगी, कारस समझ गए जरूर ये साधु भगवान महादेव है। कहा जाता है कि महादेव के वरदान के कारण ही 1000 में से एकाध बिन व्याही बकरी ही दूध देती है जिसे अलहद बकरी कहा गया है। कारस कमंडल में दूध लिए साधु के पास पहुचे तो साधु ने कारस से प्रश्न किया तुम्हारा गुरु कौन है, कारस ने कहा मेरा कोई गुरु नही है तब साधु ने कारस से सेवा लेने से इंकार कर दिया ओर कहा जिसका कोई गुरु नही उसकी कोई सेवाए नही ली जा सकती है, जब गुरु बन जाये तो सेवाए स्वीकार होगी । कारस ने तत्काल भगवान शंकर के चरणों में अपना मस्तक रखा ओर बोले आप हे भगवन आपसे अच्छा गुरु कौन हो सकेगा इसलिए दूध पीने से पहले मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर लीजिये। साधु वेशधारी भगवान शंकर ने कारस को अपना शिष्य बना लिया ओर कुछ दिन उसी स्थान पर तपस्या करने लगे ओर कारस उनकी सेवाए करते हुये लौकिक- पारलौकिक व आध्यात्मिक शक्तियों से पूर्ण होते गये। कुछ माह बाद तपस्या पूरी होने पर साधु वेशधारी शिवशंकर जाने लगे तब कारस ने अपने गुरु से प्रार्थना की कि इस सूखे, निर्जन जंगल को जिसमें आपकी तपस्या का प्रभाव है को जलकुंड से परिपूर्ण कर दे ताकि यहा सभी कि प्यास बुझ सके, भगवान शिवजी तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गए। कारसदेव गुरु के स्थान पर शिवलिग स्थापित कर उसकी पूजा करने लगे बूढी जहाज गांव के गुर्जरों के लिए वह स्थान एक पवित्र धाम हो गया तथा गुरु की तपस्या के स्थान पर पूजा बाला शिवलिग मौजूद है ,और पूजा बाले स्थान से ही शीतल गंगा निकलती है ,जिसे शीते कुंड कहा जाता है,जिसका महत्व पुष्कर सरोवर की तरह है। कारस देव अध्यात्मिक शक्तियों से युक्त महान शक्तिशाली योद्धा थे जिन्होने अपने छोटे भाई सूरपाल के साथ , मेवाड़ तक राज्य किया और चमत्कारों से जन जन के लोकप्रिय बन गए ,हर इंसान और पशुधन को बीमारियों से मुक्त करते रहे ,भैसे पर सवार उनका स्वरुप दुश्मनों को यमराज का अवतार लगता था , सूरपाल को आज की मूर्तियों में घोड़े पर सवार और कारस देव को भैसे पर सवार माना जाता है। कारसदेव के चमत्कारिक कार्य –में एक प्रसंग उनके 13 साल की आयु का मिलता है जिसमे वे बाँगर के राजा गढ़ुवाढ़ार की बेटी जमदेव के सौंदर्य के किस्से सुनकर उसे प्राप्त करने की जिद अपनी माँ से करते है, माँ समझाती है तुम बच्चे हो, राजा का सामना नहीं कर सकोगे। माँ सरनी कारस देव को राजा की पूरी तैयारी बताती है की उसने उसकी बेटी की रक्षा के लिए किस तरह बारह कोस का जंगल के बाद बांस ओर काँटों के कटीले पेड़ो से सुरक्षा की है, अगर इस पार कर आगे बढ़ भी जायोगे तो शेरो से सामना होगा फिर हाथियो को तैयार किया है, जहा से बच भी गए तो गहरी गहरी खाइयों खुदी है ओर उन खाइयो के बाद परकोटे है जिसको तुम कैसे पार करोगे, लेकिन कारस नही मानते है ओर माँ से कहते है वे सभी का सामना करने को तैयार है राजा की हर चुनोती मंजूर है आप आज्ञा दे दे, माँ सरनी की आज्ञा पाकर वे बाँगर जाते है जिसे गोटों में सुंदरस्वरूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है – इतने बचना सरनी माता ने सुन लये, वीरन के धर्मन के द्वार। वीरन बाँगर की रटना छोड़ दो। वीरन तोरी छोटी उमर कईए लिलोर,टूटे नईया दूद के दाँत । तौपे ऐडन से बछेरा दबे न, तौपे सदे न दुधारों सेल। बाँगर में बारह कौस को जंगल कईए सरगन में मंडराय रहे कटंगी बांस मोरे वीरन। पैले पारे सिंहन के लगे, दूजे पारे नाथन के लगे। है झाड़ी बीच मझार। चौथे पारे लगे हथियन के, राजा रहो है लगवाय। राजा ने गेर गढ़िया खाई खुदवा दई उर गेर गढ़िया कोट दओ फिरवाय॥ माँ सरनी की आज्ञा पाकर कारसदेव घोड़े पर सवार होकर निकल पड़ते है ओर सभी बाधाए पार कर बेटी जमदेव का अपहरण करके अपनी माँ के पास ग्राम झांझ ले आते है । राजा बालक के दुस्साहस से क्रोधित हो जाता है ओर कारसदेव की हत्या का षड्यंत्र रचकर एक ब्राह्मण को भेजता है लेकिन वह ब्राह्मण राजा को कारसदेव की शक्ति, शौर्य ओर चमत्कारिक पुरुषार्थ की जानकारी देकर राजा से कहता है की तुम्हारी राजकुमारी के लिए इससे अच्छा वर कही नही मिलेगा, राजा सुयोग्य वर जानकार प्रसन्न हो जाता है जिसे गौट में इस प्रकार गाया जाता है – बामुन के वारे ने चूरिया खरीद लई। धर लयों चुरेरे को भेष । चुरियन के पसारे धर लये मूढ़ मझार । बदलत जा रये माना सी झांझ में, माना सी झांझ में । की खोरन में लम्मी दे रये आवाज, ओ बाई बैने हरों। चूरिया तो पैर लो बड़े भारी मौल की । सरनी माता भीतर से बाहर कड़ आई, समझा रही चुरेरे को । बैन ऐलादी चुरेरे को समजा रई । मोरे कारस खों पेर में पदम, माथे पे चंद्रमा होय। जिन के बछेरा उड़ आसमान खों जाये। जीकों मरईया नईया कोनऊं लोक में, इतने बचना चुरेरे ने सुन लये॥ कारस देव के जीवन की सबसे बड़ी चमत्कारिक घटना तब की है जब वे तपस्या हेतु हिमालय चले गए थे तब यहा ग्राम झांझ में उनके छोटे भाई सूरपाल को एक विषधर सर्प ने डस लिया जिससे उनकी मौत हो गई कारसदेव की बहिन ऐलादी सुरजपाल की आकस्मिक मौत से अकेली पड़कर चीखने चिल्लाने लगी ओर गम में बेहोश होकर एक पत्थर पर गिर गई जिससे उसके सिर से बहुत सारा खून बह निकला। ऐलादी सूरजपाल के गम मे रोती ओर होश खो बैठती जिससे उसके सिर से गिरे रक्त से ऐलादी के हाथ रंग गए जो पत्थर की सिलाओ पर पटकने से पत्थर लाल हो गया। मान्यता है की ऐलादी के खून से रंगे हाथ की छापे आज भी जहाज गाँव के मंदिर के पास मौजूद है। उधर ऐलादी के शौकाकुल होने पर कारसदेव ने हिमालय में तपस्या के दौरान अपनी शक्ति से देख लिया ओर व अपने भाई सूरजपाल के शव के पास आए। कारसदेव अपनी अध्यात्मिक शक्ति से साँपों को आकर्षित करने लगे जिस इलाके में कारस देव के छोटे भाई सूरपाल को साँप ने काटा था उस इलाके के समस्त साँप घबरा कर इकट्ठे होने लगे ,और सभी साँप छोटे भाई सूरपाल को स्वयं द्वारा ना डसे जाने की दुहाई देने लगे ,अंत में डसने बाला सांप भी आ गया ,और भय से डसे गए भाई को जहर वापस खींचकर पुनर्जीवित करने को तैयार हो गया ,लेकिन शर्त रखी कि जहाँ भी जहर को डाला जायेगा वो स्थान निर्जन हो जायेगा ,या फिर कमसे कम दो व्यक्तियों जान ले लेगा कारस देव ने शर्त मान ली और छोटे भाई सूरपाल जीवित हो उठे । कारसदेव ने अपने दो मित्रों को जहर पीने को राजी किया जो बाद में देवता के रूप में अमर हो गए। कारसदेव के कहने से उसके जिन दो मित्रों ने जहर पिया ओर पाने प्राण दिये उनका पुर्नजन्म हुआ ओर वे कारसदेव का आशीर्वाद से चमत्कारिक देव बने जिन पर कोई साँप या साँप का जहर बेअसर साबित होने लगा ओर उन्हे वरदान मिला की ऐसे लोग या पशु जिन्हे सर्प काट ले वे इन दोनों मित्रो के पास पहुचे तो उनपर सर्प का असर नहीं होता है ओर वे जीवित हो जाते है। एक मित्र चंदोला गोत्र में मध्यप्रदेश के मुरैना जिले के रेती गाँव में हुआ जहा उसका चबूतरा हीरा भूमियां नाम के लोकदेवता के रूप में प्रतिष्ठित है तथा दूसरे मित्र विरजा का चबूतरा राजस्थान के धौलपुर जिला में स्थित है ओर मान्यता है कि किसी भी प्रकार के सांप का काटा हुआ जानवर या मनुष्य अगर इन लोकदेवताओं के मंदिर तक ले आया जाये तो उसकी मृत्यु नहीं होती ,आज भी किसी के भी सांप द्वारा डसे जाने पर सीधा मंदिर स्थान पर लाया जाता है। कारस देव गुर्जरों के साथ साथ सभी के पशुधन की हर प्रकार की बीमारी से बचाव करने बाले ,बाँझ गाय, भैस को गर्भवती बनाने का आशीर्वाद देने बाले ,और गाय भैस को इच्छित बछड़ा और पाड़ी (कटली ,कटड़ी ) प्रदान करने बाले देवता है। इनकी पूजा के समय जो भी प्रसाद वितरित किया जाता है उस प्रसाद को वही पर पूर्ण खाना होता है कोई बचाकर घर नहीं ले जाता है। इनके प्रसाद में सफ़ेद ध्वजा, नारियल आदि चढाने का चलन है। जहा इनकी पूजा होती है वहाँ पूजा के समय इनके नाम का दरवार लगता है, जिसमें लोग अपनी समस्या को सामने रखते हैं। कारसदेव के संबंध में होली, दीपावली या नवरात्रि के अवसर पर अहीर जाति के लोग इन दोनों लोक-देवताओं के समक्ष नृत्य करते हैं।
गाय ओर पशुओ के रक्षक लोक देवता-कारस देव