दो कविताएं

वो कमरा

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मैंने कभी नही चाहा 

कि किचन से निकली 

जली भुनी बातें,

 बाहर निकलते ही  ,

 बन जाये राई का पहाड़

 और पैदा करे हमारे बीच

 मनमुटाव ..

 न ही कभी ये चाहा कि 

हमारे वैचारिक मतभेद

 रूप लें छोटे बड़े झगड़ों का

 और आ जाएं वे उठकर

ड्रॉइंग रूम से डाइनिंग टेबल पर 

जहाँ नमक मिर्च लगाकर 

उसे कर दिया जाए 

और भी तीखा और कड़वा 

और जिसे सुनकर 

तुम्हारे मुंह से निकले 

 सिर्फ कसैली बातें..

और न ही मैंने कभी ये चाहा 

कि बातें बिगड़कर

आंधी की तरह घुस जाए

हमारे बेडरूम में 

जो कि नहीं बना है

मर्माहत करने

कोमल भावनाओं को

नहीं बना है कुचलने

सलोने सपनों को 

बल्कि..बना है वो खास कमरा 

सिर्फ प्यार करने को..

समर्पण को..

और स्वीकार करने एक दूसरे को ...

 

 

2

पतंग

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उड़ना चाहती है

उमंगों की हवा के साथ 

दूर..

खुले फैले

जीवन के आकाश में

पर चेतना की डोर

खींच लेती है

रह रह कर

और जोड़े रखती है उसे

यथार्थ के मांझी से

ताकि तेज़ उन्मुक्तता के बहाव में

समय की धार से

कट कर

दिशाहीन न हो जाये 

मेरी

ख्वाहिशों की पतंग