अपने प्रेमी मयंक के बारे में सोच-सोच कर मैना
बेदम हुई जा रही थी कि इस वक्त वह कहां होगा! किस
स्थिति और किस दशा में होगा? अचानक उसके मानस
पटल पर हाथ जोड़े मयंक का परेशान सा चेहरा उभर
आया। जब उसने एक सहेली से मयंक की प्रशंसा सुन कर
उसे मिलने के लिए अपनी हवेली में बुलाया था। मयंक राज
नर्तकी मैना का ऐसा दीवाना था कि लगभग उसके हर
महफिल में उसकी कला को देखने के लिए पहुंच जाया
करता था।
‘‘ बैठो मयंक बैठो, अरे हाथ जोड़े क्यों खड़े हो? तुम से
मुझे कुछ खास काम है। ’’ मर्दो के दिलों पर राज करने
वाली शोडषी मैना ने अपनी शोख अदाओं के साथ बीस
वर्षीय युवक मयंक को बैठने का आग्रह किया। लेकिन
युवक माटी का मूरत बना अपने स्थान पर जहां का तहां
खड़ा रहा। वह अपने को मैना के सामने खड़ा कर पाने में
असहज महसूस कर रहा था। उसे अपनी औकात और मैना
की हैशियत की पूरी जानकारी थी।
मैना मांझा एस्टेट की एक खूबसूरत नर्तकी थी।
उसके नाच गान से खुश होकर वहां के राजा मांझी मकेर
के पौत्र राजन ने मैना को 15 गांव दान स्वरूप दे दिया
था। जहां उसकी मां अनवरी बेगम रैयतों पर शासन करती
थी और अपने करिंदों द्वारा उनसे जबरन कर वसूला करती
थी। जो रैयत पैसा देने में आना- कानी करते, उनके साथ
बुरा सलूक किया जाता था। मानसिक और शारीरिक
यातनाएं दी जाती थी। मैना की मां भी जमींदारों की तरह
ही तानाशाह थी। लेकिन रहमदिल मैना को यह सब
बिल्कुल पसंद नहीं था। उसके हृदय में गरीबों के लिए दया
और प्यार था. इस धंधे में उसने काफी चल अचल- संपत्ति
बटोरा था। नाम व धर्म कमाने के लिए उसने कई गांवों में
कुआं, तालाब और हाट-बाजारों में धर्मशाला का निर्माण
कराया थ। जहां हलक सूखे राहगीर अपनी प्यास बुझाते
और थके मांदे राही-बटोही अराम फरमाते थे।
उन्हीं पीड़ितों में मयंक के पिता रघुनी साह भी
एक थे। जिन्होंने अनवरी बेगम से अपनी बेटी की शादी में
दो सौ रुपये कर्ज लिया था। सूद के पैसों को लेकर कारिंदों
ने रघुनी साह को बुरी तरह से पिटाई की थी। उस यातना
से मयंक का परिवार दहशत में था। यही कारण था कि
मयंक हाथ जोड़े गुमशुम मैना के सामने खड़ा था। उसे
समझ में नहीं आ रहा था कि ऐय्याशी की जिंदगी जीने
वाली मैना उससे क्या चाहती है!
‘‘ अरे मयंक, ये रोनी सूरत क्यों बना रखी है! न बैठते हो
न कुछ बोलते हो? मैना से नहीं बोलने की कसम खा रखी
है क्या?’’ अपने स्वर में अपनापन का तंज कसती हुई
कजरारे मदभरे नैंनों वाली मैना ने एक बार मयंक को
देखा। छरहरे बदन के गौरवर्ण युवक का शारीरिक सौष्ठव
गजब का था। उसका तन और मन युवक के मजबूत
बाजुओं और चौड़े सीने में समा जाने के लिए मचल उठा।
‘‘ नहीं... नहीं...शहजादी साहिबा, ऐसी ...कोई बात ...नहीं
है..., क्या बताऊ आपको...’’ वह बोलते-बोलते एक-ब-एक
रूक गया और अपनी परेशानियों को छुपाने के लिए सिर
झुकाये अपने बालों को खुजलाने लगा।
‘‘ अरे, बोलते-बोलते रूक क्यों गये। अपनी पूरी बात तो
कहो, जो तुम्हारी जुबान पर आकर अटक गई है। बोलो
मयंक, बोलो ! आज तुम मैना के आमंत्रित मेहमान हो।
तुम्हारा स्वागत करना हमारा फर्ज है।’’ इतना कहने के बाद
इठलाती हुई शोडषी किसी राज महल की नायिका की तरह
अपने स्थान से उठी। अपने पैरों में नक्काशीदार जूतियों
को पहना और बलखाती हुई युवक के समक्ष आ खड़ी हुई।
अपनी मेंहदी रची कोमल अंगुलियों से उसने सहसा युवक
की ठोड़ी को ऊपर उठाया। चेहरा ऊपर उठते ही मयंक की
नजरें मैना से चार हुई। वह उसकी नीली झील से गहरी
आंखों में डूब गया। किसी मायावी जादू की तरह ऐसा डूबा
कि अपना होशो हवाश खो दिया।
सब कुछ किसी दिवा स्वप्न की तरह था। वह
कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मैना जैसी अदाकारा
का उसे दीदार होगा, वह भी इस तरह। मैना की अंगुलियों
का स्पर्श पाकर उसका तन और मन किसी विद्युत तरंग
की तरह झनझना उठा।. इतर व गुलाब जल की खुशबू ने
वातावरण को और भी हसीन बना दिया था। पूरे रंग महल
में हवा के झोंकों के ऊपर मैना के देह की सुगंध तैर रही
थी। जिसमें गोता लगाता हुआ मयंक अकस्मात उन्मुक्त
होकर मैना के कंधों पर अपना दोनों हाथ रख दिया जो
उसका ठोड़ी पकड़े अभिशप्त त्रिलोक सुंदरी अहिल्या की
तरह पाषाण का स्टैच्यू बनी हुई खड़ी थी।
मैना की इस भाव भंगिमा और मुखमुद्रा पर वह
मरमिटा। उधर मैना भी युवक के मिलन संयोग के कारण
अपना सुधबुध खो बैठी थी। युवक का सन्निध पाकर
उसका चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा। वह भी युवक की
कमर पकड़ कर आलिंगनबद्ध हो गई। बसंत ऋतु में बौराई
किसी तितली की तरह उस पर चिपक गई। साथ ही फूल
का रस चुसने लगी। मैना इस कदर मदहोश थी कि वह
भूल गई कि वह इस रियासत की मल्लिका है। रंग महल
में सार्वजनिक रूप से किसी पराये युवक से मिलना उचित
नहीं, वह तो कला पारखी व रसविज्ञों के लिए राधाबाग की
मैना है।
मांझा एस्टेट के राजपुरोहित स्वामी राधाकिशन जी
महाराज के सपनों की पंछी थी. जिसे उन्मुक्त गगन में
उड़ने के लिए अपना बावन बिधा का राधाबाग मैना के नाम
रजिस्ट्री कर दिया था। राधा राजपुरोहित की जो जीवन
संगनी थी, वह अपने पति को भगवान मानती थी. लेकिन
जब उसने एक रात राजपुरोहित के साथ कमसीन मैंना को
देख लिया तो उसी रात पति से उसका मोह भंग हो गया
और उसने अपनी देहलीला आत्मदाह कर समाप्त कर ली.
राजपुरोहित और मैना के संबंधों की कहनी भी बड़ी रोचक
और दुखद है।
दरबार-ए-आम के बाहर खड़े पहरेदार ने मैना के
खास दासी रूखशाना को दरबार में बेगम साहिबा अनवरी
बेगम के पधारे जाने की सूचना दी। वह प्रति दिन अपनी
रियासत की प्रजा की फरियाद सुनती थी। वक्त की पावंद
मैना रोजाना समय से पूर्व दरबार में अपना आशन ग्रहण
कर लेती थी। लेकिन आज वह दरबार में गैर हाजिर थी।
रूखशाना पहरेदार का संदेश पहुचाने के लिए रंग महल में
दाखिल हुई तो देखा कि उसकी शहजादी मैना किसी पर
पुरूष के साथ आलिंगनबद्ध थी। अचानक उसकी जुबान से
निकल पड़ा,‘‘ शहजादी साहिबा, बेगम साहिबा दरबार में
पधार चुकी है....और आप...?’’
दासी की आवाज सुनकर मैना चौंकी। तुरंत
मयंक के दामन से छिटक कर अलग हो गई। अपने को
संभालते हुए दासी की ओर देखा, वह बिना किसी जवाब का
इंतजार किये वगैर अपने स्थान की ओर जा रही थी। दूसरे
ही पल वह मयंक की ओर मुखातिब हुई। अब मयंक का
चेहरा पूर्व की तरह डरा और सहमा हुआ नहीं था। वह
बिल्कुल सामान्य लग रहा था। मैंना ने उसे एक चांदी का
सिक्का दिया और पीछे के रास्ते से बाहर निकल जाने का
इशारा किया।
मयंक के जाने के बाद वह ड्रेसिंग टेबल के
पास गई। आदमकद आईने में अपने चेहरे को निहारा। वह
अपना ही चेहरा देखकर हैरान रह गई। उसके प्रफुल्लित
चेहरे से नूर बरस रहा था। इंद्रधनुष सी तनी भौंहों के नीचे
मदमाती आंखों में खुमार था। मयंक का स्पर्श पाकर अंग
अंग गुलाब की तरह खिल उठा था। संतरे की फांक सा खुले
पतले होंठों की लालिमा गजब ढा रही थी। बेकाबू दिल की
धड़कनों के कारण उसका उन्नत उरोज अब भी नीचे-ऊपर
हो रहा था। वह दरबार-ए-आम में जाने से पूर्व अपने तन
और मन को संयमित कर लेना चाहती थी। उसने सामान्य
दिखने के लिए बेतरतीब बालों को कंघी से सहेजा और
अपने चेहरे पर हल्का मेकअप किया। वह अपने को सहज
महसूस करती हुई दरबार की ओर निकल पड़ी।
दरबार में जाते-जाते मैना को यकायक बांका
नौजवान मयंक का चेहरा उसकी आंखों में तैर गया। वह
सोचने लगी कि इससे पूर्व मयंक से उसकी मुलाकात क्यों
नहीं हुई! जबकि तालुकदारों, जमींदारों व राजघरानों में
उसका आना जाना लगा रहता था। एक से बढ़कर एक छैल
छबिले नौजवानों से वह मिल चुकी थी। लेकिन किसी से
कभी दिल की लगी नहीं लगी। वासना में डूबे राजकुमारों के
एक तरफा इश्कबाजी का चुभन वह झेल चुकी थी। दिलफेंक
रइसजादों की नजरें महफिलों में ताबले की थाप पर मचलते
उसके पैरों पर नहीं, बल्कि अदाकारी में मटकते उसके
नितंबों और चोली में कसमसाते यौवन पर टिकी रहती थी।
प्रोत्साहन राशि देने के बहाने उनका मकशद कोमल अंगों
को छुना, मसलना और कौमार्य भंग करना रहता।
मैना की चाहत में कोई कोई तो वासना में वशीभूत
होकर उसके ठिकाने तक पहुंच जाता और महज एक रात
के लिए अपना सबकुछ दावं पर लगा देने को तैयार
मिलता। जब मैंना का सन्निध नहीं मिल पाता तो वह बुरे
परिणाम की धमकी देते हुए लालची कुत्ते की तरह लार
टपकाते हुए वहां चला जाता।
घर लौटने के बाद मयंक की परेशानी कम नहीं
हुई। उसके माता-पिता काफी डरे हुए थे. घर पहुंचते ही
उससे तरह तरह के सवाल करने लगे। शहजादी ने तुम्हें
क्यों बुलाया था! कहीं तुम्हारे साथ कोई बुरा सलूक तो नहीं
किया?
उनका कहना था कि जब हम कर्ज लिए हैं तो
दरबार में हमें ही बुलाना चाहिए। माता पिता के मरने के
बाद ही उनकी संतानों को तलब किया जाता है। वैसे भी
बेगम साहिबा दरबार में सुनवाई करती है कोई दूसरा नहीं,
तो फिर शहजादी मैना तुम्हें क्यों बुलाने लगी ?. शोचनीय
स्थिति में मयंक के माता पिता उसके जवाब की प्रतीक्षा में
थे। मयंक ने जब कोई उत्तर नहीं दिया तो उन्हें लगा कि
कर्ज का सूद इस माह नहीं देने पर शायद उसे डांट-
फटकार लगाई गई होगी, इसलिए वह उदास है!
माता- पिता को परेशान देख कर मयंक ने
अपना मौन तोड़ा और गोल मटोल जवाब दिया कि आज
शहजादी से मुलाकात नहीं हो सकी। कल फिर उससे मिलने
जाना है। बेगम और शहजादी किसी काम में व्यस्त थी।
वह सफेद झूठ बोल गया। कहा कि उनकी हवेली के बाहर
बुलाने का इंतजार करता रह गया था। तभी पहरेदार ने
बाहर आकर उससे कल आने की बात कही। तब मयंक के
माता- पिता ने राहत की सांस ली।
मैना का दिया हुआ चांदी के एक सिक्का ने
मयंक की नींद उड़ा दी थी। वह सोच रहा था कि उसने
सिक्का देकर उसे दूसरे दिन आने का नेवता क्यों दिया!
सिक्का वह नहीं भी देती तो उसके यहां उसे तो जाना ही
था। आखिर वह इस सिक्का का क्या करे ! अगर परिवार
के लोग सिक्का के बारे में पूछेंगे तो वह क्या जवाब देगा?.
फिर वह सोचने लगा कि किसी की शादी विवाह में वह
घुड़सवारी करता है तो मजदूरी और बख्शीश में दो सेर जई,
जौ, चना, गेहूं आदि मिलता, जिसका उपयोग वह घोड़ा को
खिलाने में करता. जबकि मैना ने उसे बिना काम का एक
रुपये का सिक्का दे दिया। इस हराम की कमाई को लौटा
देना चाहिए! इसी उधेड़बुन में उसे कब नींद आ गई पता
नहीं चल सका।
अचानक किसी की आहट पाकर मयंक की नींद
उचट गई। उसे लगा कि रात के सन्नाटे में मैना आई है ।
वह यहीं कहीं है जो किसी भी पल उससे आकर लिपट
सकती है। उसके आलिंगन की अनुभूति से उसका रोम रोम
रोमांचित हो उठा। चुंबन और गर्म सांसों का अहसास कर
वह करवटें बदलने लगा। इसी बीच उसकी नजरें विस्तर पर
लेटे-लेटे ही नीम अंधेरे में किसी को ढूंढ़ने लगी। लेकिन उसे
कुछ भी नजर नहीं आई। उसने सोचा शायद झोपड़ी के
बाहर रातरानी का पौधा है। तेज पुरबइया के झौंको और
उसकी सरसराहट ने शायद उसकी नींद उड़ा दी है। वह मन
ही मन एक शेर बुदबुदाया, ‘‘ नसीम तेरे शबिस्तां से होकर
आई है, और खुशबू है तेरे बदन की सी.....’’
दूसरे दिन हर्षित मुद्रा में जब मयंक मैना की
दहलिज पर पहुंचा तो वह अंदर नहीं जा सका।. उससे कहा
गया कि दरबार-ए-आम दिन के 10बजे होता है। अभी
किसी की फरियाद नहीं सुनी जाएगी, तुम बाद में आना।
यह सुनकर उसका हर्षित मन मल्लिन हो
उठा। पानी के बुलबुले की तरह उसका उमंग यकायक
गायब हो गया। मैना की दिवानगी में वह ऐसा रमा था कि
वक्त का ज्ञान ही नहीं रहा। वह मैना से मिलने दिन के
10 बजे की जगह सुबह आठ बजे ही पहुंच गया था। उसने
मुख्य द्वार पर खड़े पहरेदार से कहना चाहा कि वह
फरियादी नहीं है, उसे तो शहजादी मैना ने खुद ही बुलाया
है। लेकिन संकोचवश वह अपने मन की बात उससे कह
नहीं सका। पहरेदार भी दूसरे लोगों से बातचीत में व्यस्त
हो गया।
वह वहीं खड़ा-खड़ा सोचने लगा कि अब क्या करे!
तभी उसे याद आई कि मैना राधा बाग में हो सकती है।
लेकिन उस बाग में आम लोगों का घुसना मना था।
वह बमुश्किल राधा बाग की चहार दिवारी पर चढ़ पाया।
दीवार पर बैठकर मैना को ढूंढ़ने लगा। इतने बड़े बाग में
उसे वह कहां खोजे? उसके लिए कठिन समस्या थी। तभी
उसकी नजर दासी रूखशाना पर पड़ी, जो बाग के कुआं से
बाल्टी में पानी भर कर तांबे के कलश में रख रही थी। वह
उसके पास जाने की तरकीब सोचने लगा। तभी उसे एक
पेड़ दिखाई पड़ा। जिसकी डाल दीवार के पास झुकी हुई थी।
उसके सहारे वह बाग के अंदर प्रवेश कर गया। उसे भय था
कि दासी उसे देखकर चिल्लाएगी। इसलिए वह पेड़ों की
ओट में छुपते हुए उसके पास पहुंचा और अपनें मुंह पर
अंगुली रख कर उसे न चिल्लाने का आग्रह किया। जिसका
अनुशरण रूखशाना ने किया। उसे देखते ही वह पहचान
गई। इधर-उधर देखकर उसने इशारे से पूछा कि यहां जान
जोखिम में डालकर किससे मिलने आए हो। तब मयंक ने
शहजादी का फरमान उसे सुनाया।
दासी रूखशाना को मयंक की बेबसी पर दया
आ गई। उसने बाग के पूरब की तरफ जाने का इशारा
किया। साथ ही धीमे स्वर में बोली कि शहजादी गुलाब बाग
में है।
‘‘आपको कांटों से डर नहीं लगता ?’’ फूलों से खेल रही
मैना को देखकर मयंक ने उसे टोका।
‘‘अरे, मयंक तुम ! और, इस वक्त ?’’ मैना चौंकते हुए
मयंक की ओर देखकर मुस्कुराई और अचरज प्रकट करते
हुए बोली, ‘‘ कांटों से खेलना तो मेरी बचपन की आदत है।
’’
‘‘ बहुत खूब, आपने मुझे बुलाया था, इसलिए आ गया।
समय का ज्ञान नहीं रहा। इस सिक्के के कारण रात भर
सो नहीं सका। इस बला को आप ही रखिए।. यह मेरी जेब
में समा नहीं रहा है?’’
‘‘ ऐसी क्या बात है। मैंने तो यूंही तुम्हें दे दिया था। क्या
परेशानी है, साफ साफ बताओ? ’’
‘‘ मेरे मां-बाप आपका कर्जदार हैं। समय से सूद का पैसा
भी नहीं दे पाते है। मैं भी बेरोजगार हूं। ऐसे में बिना
मेहनत का यह सिक्का मेरे गले नहीं उतर रहा है। आप ही
इसका हल निकाले।’’ मयंक ने साफगोई के साथ अपनी
बात रखी।
मयंक की सादगी और ईमानदारी पर मैना मरमिटी।
वह उसकी बेबसी पर तरस खाये बिना नहीं रह सकी। उसने
सहानुभूति प्रकट करते हुए कहा,
‘‘ओह, ऐसी बात है। मैं तुम्हारे मां बाप का कर्ज माफ
करवा दूंगी। रही बात तुम्हारी नौकरी की तो मैं तुम्हें अपना
अंग रक्षक नियुक्त करती हूं। वह सिक्का मैना की रखवाली
के लिए अग्रीम राशि समझो और कुछ ख्वाहिश हो तो
बोलो?’’ प्रसन्न मुद्रा में मैना ने अपना आदेश सुना दिया।
जिसे सुनकर मयंक की आंखों में आंसू भर आए। हाथ जोड़
कर मैना का शुक्रिया अदा किया। मयंक की डबडबाई आंखो
को देखकर मैना भी भावविह्वल हो उठी और मयंक को
अपने गले से लगा लिया।
उसके बाद मैना और मयंक की जोड़ी ऐसी
जमी कि देखने वाले कहते थे कि ईश्वर ने दोनों को एक
दूसरे के लिए बनाया है। महफिल में जब दोनों के पांव
थिरकते तो शमां बांध देते। मैना का साथ पाकर घुड़सवार
मयंक, काफी बदल गया था।
शास्त्रीय नृत्य व संगीत की कई विधाओं को सीख
लिया था। उसकी कला-कौशल को देखकर मैना की संगीत
मंडली भी दंग रह जाती थी। लेकिन होनी को कुछ और ही
मंजूर था। महफिलों में मैना के साथ मयंक की चर्चाएं
अनवरी बेगम को नागवार गुजरती थी। मयंक की प्रशंसा
सुनकर बेगम की छाती पर सांप लोट जाता था। उसके
दिलों दिमाग पर कर्जदार रघुनी साह का पुत्र मयंक छाया
रहता। वह उसकी प्रतिभा से जलती थी।. मैंना से मयंक का
मिलना- जुलना बिल्कुल पसंद नहीं करती थी। वह मैना-
मयंक की जोड़ी को तोड़ना चाहती थी।
राधा बाग का सरोवर केवल स्त्रियों के लिए
था. उसके निर्मल जल में शहजादी और उसकी सहकर्मी ही
जल क्रीड़ा करती थी। लेकिन उसके विपरीत एक दिन मैना
व मयंक जल क्रीड़ा कर रहे थे। चांदी सा चमकते जल में
मैना का गोरा बदन शोला की तरह दमक रहा था। वह
मछली की भांति तैयरती हुई कभी मयंक को अपने आगोश
में भर लेती तो कभी मयंक उसे अपनी पीठ पर चढ़ाए
मगरमच्छ की तरह जल तल पर घूमता फिरता।
इस जल क्रीड़ा की सूचना किसी ने मैना की मां अनवरी
बेगम को दे दी। वह लाव लश्कर के साथ सरोवर जा पहुंची
और दासियों से अपने आने की सूचना मैना के पास
भेजवाई। इस खबर से मैना और मयंक सकते में आ गए।
कपड़े बदल कर मैना दासी के साथ बेगम के पास पहुंची।
उसको लेकर बेगम हवेली चली गई और मैना को डांटने
फटकारने लगी.
‘‘हमारे धंधे में प्यार- मोहब्बत की कोई जगह
नहीं होती मैना! तुम आवश्यकता से ज्यादा जज्बाती न
बनो। अपने दिल पर पत्थर रखना सीखो, तभी पुरूष प्रधान
इस समाज में सिर उठाकर चल सकोगी। नहीं तो ये दरिंदे
तुम्हें नोंच खाएंगे। कल, बल और छल तवायफों का
हथियार है। उसी के सहारे वे मर्दों के दिलों पर राज करती
हैं जो इस नीति का पालन नहीं करती। वह बेमौत मारी
जाती हैं। बेदर्द जमाना उसकी पीड़ा पर तरस नहीं खाता।
हमारा काम नाच गान कर मुजरा करना है। रईसों का
मनोरंजन करना है, देह व्यापार करना नहीं! क्या
समझी?....’’ अनवरी बेगम ने मैना को समझाते हुए कहा।
रंग महल में टंगे मैना के प्रेमी मयंक के तैल चित्र को
अनवरी बेगम ने नीचे गिराया. उसे अपनी जूती की ठोकर
से मारा. ठोकर मारने से जी नहीं भरा तो फिर उसने
अपने दाएं पैर की जूती रखकर कूचल डाला।
मैना अपनी आंखों के सामने अपने प्रेमी की तस्वीर
की ये दुर्द्शा देखकर केवल आहें भरकर रह गई और किसी
बंदनी की तरह सिर झुकायें गुमशुम खड़ी रही।
‘‘ वह दिन तुम याद करो, जब तेरे यार ने सोना गाछी में
तुम्हें बेच दिया था.... जहां तेरे पांवों में पाजेब की जगह
घुंघरूओं ने घेरा डाल दिया था... ”
बेगम थोड़ी देर चुप हो गई और फिर कहा, “
उस वक्त तुमने खुद सिसकते हुए मुझे बताया था कि
डुमरिया रियासत की तुम राजकुमारी हो। शादी के चार माह
बाद ही तु्म्हारा शौहर किसी जंग में मारा गया था। तब
तुम जवान जिस्म लेकर बेबा की जिंदगी बीता रही थी।
इसी दरमियान तुम्हारे रियासत के एक युवक राशिद पर
तेरा दिल आ गया था। रियासती पाबंदी के कारण तुम
दोनों का मिलन नहीं हो पा रहा था. लेकिन प्रेम का रंग
ऐसा चढ़ा कि दोनों भाग कर कलकत्ता पहुंच गए। मौज
मस्ती करने के बाद राशिद ने तुम्हें रंडियों के नरक में
ढकेलकर भाग निकला। जहां से निकलने के लिए सारे
दरवाजे बंद हो गए थे. लेकिन तुम्हारी आत्मा उस नरक से
निकलने के लिए बेचैन थी। ” लंबीं सास खींचते हुए बेगम
ने पुन: कहना शुरू किया.
“ मुझे मासूम और आकर्षक चेहरेवाली किसी युवती
की तलाश थी। जब मैं तुम्हारे कोठे पर पहुंची तो संयोग
कहो कि वहां तुम मिल गई। तुम्हारी मासूमियत पर मुझे
दया आ गई और खरीदकर अपने घर लाई। वहीं पर
तुम्हारी शिक्षा, दीक्षा, शास्त्रीय नृत्य और संगीत की
व्यवस्था की। आज तुम यहां मेरी बेटी की हैसियत से हो।
यह राज हम दोनों के अलावा कोई नहीं जानता।
आज पूरे इलाके में मैना के नाम का डंका बजता है।
लोगों के लबों पर तेरा ही नाम है। तेरा एक झलक पाने के
लिए युवा बेकरार हो जाते हैं। कभी उसके बारे में सोचती
हो, जिसने तेरे नाम पर बावन बिघा का राधा बाग लिख
दिया। एशो आराम की सा्री चीजें उपलब्ध कराई। वह
राजपुरोहित तेरा कौन है! वह तुम से क्या चाहता है? जब
उसके कान में तेरी यह हरकत पड़ेगी तो हम कहीं के नहीं
रहेंगे....’’ इतना बोलते बोलते अनवरी बेगम माथा पकड़कर
बैठ गई।
अपने ख्वाहिशों और अरमानों का खून होते देख
दब्बू एवं संकोची किस्म की मैना यकायक आक्रोशित हो
गई। जैसे ही बेगम ने बोलना बंद किया। उसकी जुबान से
निकल पड़ा,
‘’‘ अच्छा भाषण दिया आपने। पता नहीं आप मेरी मां हैं
या डायन !’’
‘‘अरे, तूने मुझे क्या कहा, डायन ?’’ डायन शब्द पर
तिलमिलाकर अनवरी बेगम उठकर खड़ी हो गई और
विस्मित होकर मैना से पूछ बैठी.
‘‘ हां हां, मैंने डायन कहा । ’’ मां के बदले व्यवहार से
उत्तेजित मैना गुस्से में चीख पडी और बोली, ‘‘ डायन भी
अपना घर छोड़कर खाती है. लेकिन आप तो उससे भी दो
कदम आगे हैं। सबसे बड़ा घिनौना काम तो आप करती है,
जो किसी को कानों कान भी पता नहीं चलता !’
‘तुम्हारे खिलाफ ऐसा कौन सा घिनौना काम किया है।
बोलो, जरा हम भी तो सुने? ’’ अनवरी बेगम अपने को
संभालती हुई बोली।
‘‘ मोम की गुड़िया समझ कर अक्सर मुझे रातों को कहां
भेजा जाता हैं, आपसे बेहतर कौन जानता है! आपका
मददगार राजपुरोहित हो या कोई रईसजादा, सभी हरामजादे
हैं। उनका दिल बहलाना अंगारे पर चलने जैसा है। तब
आपकी नसीहतें कहां चली जाती हैं? जब शराब के नशे में
आपकी फूल सी बेटी को वे नोंचने के लिए दौड़ाते है। कभी
बाल पकड़ कर खींचते है तो कभी गालों को छूने की होड़
में नाखून मार देते हैं. जाम में अफीम मिला कर उन्हें न
सुलाऊं तो अस्मत बचना भी मुश्किल हो जाये। ’’
‘‘ तू झूठ बोलती है। उन पर बेहूदा आरोप लगा रही है।
साकी बन कर जाम पिलाना कोई बुरी बात नहीं है। अपनी
जवानी में मैंने भी यह सब किया है। एक तुम हो कि
नाचीज एक घुड़सवार पर मरमिटी हो! समाज में जिसका
कोई वजूद नहीं है। उसे भूल जाओ।’’
‘‘ आपको कभी अहसास नहीं होता कि आपकी बेटी के सीने
में भी दिल है, जो प्यार पाने का हकदार है. आपने जान
बुझकर मेरे अरमानों का गला घोंटा है.....’’ मैना व्यथित
होती हुए बोल रही थी, तभी बीच में ही अनवरी बेगम
गुस्से में फट पडी,
‘‘ चुप शैतान, छोटा मुंह बड़ी बात। पराये के लिए मां से
लड़ती है। मेरी नेकी का यही सिला दे रही है तू। मैं यदि
तुम्हें आश्रय नहीं देती तो पता नहीं आज कहां सड़ती
रहती।’’ नागिन की तरह अनवरी बेगम ने फुफकारा और
तीन बार अपनी तालियां बजाई। तालियों की आवाज
सुनकर उसके सिपहसलार आ गए और इशारे का इंतजार
करने लगे।
‘‘आप बार-बार मेरी आप बीती दुहराकर क्या कहना चाहती
हैं ?....” उत्तेजना में चीख पड़ी थी मैना, ‘‘ आप मेरी सगी
मां होती तो ऐसा बर्ताव कभी नहीं करती। असली मां
अपनी संतान की सुख समृद्धि चाहती है न कि उसकी
बर्बादी? अगर मयंक के साथ किसी तरह का बुरा सलूक
किया गया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा....।’’
अनवरी बेगम के इशारे पर मैना और मयंक को
बंदी बना लिया गया। उस दिन के बाद से मयंक का कुछ
भी अता- पता नहीं चल सका। उसे छोड़ दिया गया या
मौत के घाट उतार दिया गया!
‘‘ शहजादी, यह क्या हो गया, मैना मयंक की जोड़ी को
किसकी नजर लग गई? आप कुछ तो बोलिए। मुझे ऐसे
क्यों घूर रही हैं? मैं... मैं ...मैं...आपकी प्यारी दासी
रूखशाना.....’’ बंदीगृह में बंद मैना ने जब रूखशाना की
आवाज सुनी तो उसकी तंद्रा भंग हुई। वह अपने विचारों से
वापस आई। वह रूखसाना को देर तक देखती रह गई।
शून्य में ढूंढ़ती उसकी आंखों में उदासीनता थी। यकायक
उसके शुष्क होंठों से बोल फूटे,
‘‘ कुदरत का खेल निराला है रूखशाना, मेरा मयंक कहां है?
’’ बड़ी मुश्किल से मैना ने दासी से सवाल किया।
‘‘ मुझे कुछ भी मालूम नहीं शहजादी, चुपके से मिलने आ
गई हूं। बेगम साहिबा से आपकी मुक्ति के लिए फरियाद
करूंगी।’’ इतना कहते हुए रूखशाना रो पड़ी।
‘‘ नहीं, रूखशाना, नहीं! मेरे लिए फरियाद मत करना। अब
मैं शहजादी कहां रह गई। बंदी का जीवन तो तुम जानती
ही हो ! हो सके तो मालूम करना कि मयंक कहां है, फिर
मुझसे मिलना.....’’ मैना आसमान की तरफ देखते हुए
अपने मन की बात कही।
मैना ने खाना पीना छोड़ दिया था। वह मयंक
की याद में अर्द्ध विक्षिप्त सी हो गई थी। एक दिन
रूखशाना ने उसे बताया कि मयंक अब इस दुनिया में है
या नहीं, कुछ पता नहीं चल पा रहा है। उसके गांव भी गई
थी। उसके मां बाप को भी कुछ मालूम नहीं है।
यह सुनते ही उसके दिल पर बज्रपात हुआ। वह
चैतन्य शू्न्य हो गई। यकायक मूर्छित होकर नीचे गिर
पड़ी। दासियों ने इसकी सूचना बेगम साहिबा को दी। वैद्यों
के देख रेख में उसका इलाज होने लगा। लेकिन उसके
स्वास्थ्य में किसी तरह का सुधार नहीं हुआ।.
इन तमाम घटनाओं की जद में बेगम साहिबा
की बादशाहत थी, जो अपने वसूलों की खातिर बेकसूर और
मजलुमों को शूली पर चढ़ाती जा रही थी। सोचते-सोचते
मैंना ने एक-ब-एक आसमान की ओर देखा, उसकी जुबान
से निकल पड़ा,‘‘ या खुदा परवर दिगार! उनके रहमों करम
पर रहम कर। पीड़ितों को उनकी जुल्मों शीतम से निजात
दिला....’’
मैना का खूबसूरत चेहरा कंकाल बन गया था। देखने
वाले उसे पहचान नहीं पाते थे। साथी के न रहने से उसके
जीने की इच्छा मर चुकी थी। उसे मयंक के वगैर पूरी
दुनिया मरघट सा लगने लगी थी। उसे बार-बार एक ही
बात का पछतावा होता था कि अपना दिल हारी भी तो
मयंक पर, जबकि उसके जीवन में लाखों चाहने वाले मिले।
किसी ने उसे आकर्षित नहीं किया। जिस पर वह मरमिटी
आज वहीं नहीं रहा।
एक रात मैना पूर्णिमा के गोल चांद को देख रही
थी। चंद्रलोक पर मयंक की सुघर छवि दृष्टिगोचर हो रही
थी। चांद को निहारते- निहारते उसे लगा कि मयंक किसी
परी की तरह उड़ता हुआ धरती की ओर आ रहा है। वह
असीम उमंग और उल्लास में भर गई। यकायक उसके
शिथिल शरीर में न जाने कहां से स्फूर्ति आ गई।
अकस्मात वह अपनी लकड़ी की तरह सूखे पैरों पर खड़ी हो
गई और आकाश की ओर दोनों बाहें फैलाकर मयंक...मयंक
चिल्लाने लगी। लगा कि अब उड़ कर वह मयंक को अपने
आगोश में भर लेगी।
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