साक्षात्कार/असगर वज़ाहत

प्रख्यात नाटककार असगर वज़ाहत के बहुचर्चित नाटक ‘जिन लाहौर नीं वेख्या ओ जम्या ई नईं’ पर इन दिनों सुप्रसिद्ध निर्देशक राजकुमार संतोषी फिल्म बना रहे हैं। भारत विभाजन की त्रासदी को चित्रित करता यह नाटक दुनियाभर में चर्चित है। कुछ समय पूर्व ज्ञानपीठ से आए वज़ाहत के नाटक ‘गोडसे : गांधी.कॉम’ की भी खूब चर्चा है। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश :-
‘जिन लाहौर नीं वेख्या…’ पर फिल्म बनाने का ख्याल इंडस्ट्री को बहुत देर से आया है?
आमतौर पर फिल्मी दुनिया में यही होता है। सत्यजीत रे को भी प्रेमचंद की कहानी पर फिल्म बनाने का ख्याल बहुत देर से आया था। प्रेमचंद की कहानी पर बनी फिल्म उनकी बहुत सारी फिल्मों के बाद बनी थी।
आज के इस दौर की फिल्मों में साहित्य की अहमियत क्या हैै?
दरअसल फिल्म से साहित्य की दूरी बहुत ज्यादा है। साहित्य का कार्यक्षेत्र मुंबई न होकर दिल्ली, इलाहाबाद, भोपाल, कानपुर और जयपुर इत्यादि हैं। इस वजह से फिल्म वालों का ध्यान कम जाता है। जब कोई कृति हिंदी से अनूदित होती है और फिल्म से जुड़े लोग उस कृति को पढ़ते हैं, तब फिल्म वालों को उस कृति की अहमियत पता चलती है। हमें इस पर भी काम करना चाहिए।
हिंसा, अपराध और सेक्स के दौर में साहित्य कहां टिक पाएगा? 
आज-कल की फिल्मों में हिंसा और आतंक ज्यादा है, तभी तो साहित्य की अहमियत पता चलेगी। दरअसल इन समस्याओं का समाधान साहित्य ही सुझाएगा। इन बुराइयों को साहित्य ही दूर कर पाएगा। मनुष्यता को सार्थक करने का काम साहित्य ही करेगा। हिंसा और अपराध का जवाब राजनीति नहीं दे सकती। इनको माकूल जवाब साहित्य ही देगा।
क्या फिल्मों में सत्यजीत रे और ऋषिकेश मुखर्जी का दौर फिर से लौटेगा? 
देखिए, इतिहास अपने को दोहराता है। एक समय आता है जब लोग एक चीज से ऊब जाते हैं तो दूसरी तरफ आकर्षित होते हैं। अच्छी फिल्मों का दौर फिर आ रहा है। अब लोग सच लगने वाले जीवन की फिल्में पसंद करते हैं। अब तो लोग सचमुच जैसा जीवन है, वैसी कहानी और फिल्म पसंद करते हैं। मानव जैसा मानव देखना चाहते हैं। ऐसे में फिर साफ-सुथरी और अच्छी कलात्मक फिल्में बनेंगी।
साहित्य बाजार का विरोधी है, लेकिन क्या लिटरेचर और फिल्म फेस्टिवल बाजार के ही रूप नहीं हैं? 
जब तक आयोजकों का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं होता, तब तक तो ठीक है लेकिन जैसे ही आयोजक इस प्रकार के उत्सवों में पैसा बटोरने की कोशिश करने लगते हैं, वह बाजार हो जाता है। आयोजकों का मकसद अगर संस्कृति, कला को प्रोत्साहन देना है तो ज्यादा अच्छा है। हमें भी वहां जाकर अच्छा लगता है। वैसे मुझे लगता नहीं कि ऐसे आयोजनों से कमाई हो पाती होगी।
आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहरे बैठाए जा रहे हैं?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिना साहित्य में कुछ भी नहीं हो सकता। ललित कलाएं, साहित्य और संगीत ही आजादी के मूल तत्व हैं। अगर किसी की विचारधारा दूसरी है तो उसे संवाद को महत्व देना चाहिए, हिंसा को नहीं। यह समस्या के समाधान का रास्ता नहीं है। वैचारिक टकराव तो विचार से ही हल होगा। टीचर भी प्यार से पढ़ाता है तो बात समझ आती है, पिटाई से बच्चा नहीं समझता।
नई पीढ़ी को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
युवा पीढ़ी को साहित्य, कला और संगीत से अवश्य जुड़ना चाहिए, क्योंकि यहीं से उन्हें जीवन जीने का सही रास्ता मिलेगा। ताकत मिलेगी। युवा साहित्य, संगीत व कला को अपने पाठ्यक्रम का हिस्सा मानकर अपनाएं, क्योंकि वे चाहे पढ़-लिख कर डॉक्टर, इंजीनियर या कुछ भी और बन जाएं, विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए उन्हें ताकत साहित्य, कला और संगीत से ही मिलेगी। इनके बगैर मनुष्य का जीवन पूर्ण नहीं होता। अगर युवा साहित्य को गंभीरता से ग्रहण करना शुरू करेंगे तो उन्हें अपनी समस्याओं का समाधान मिलना आरंभ हो जाएगा। तब उनको आत्महत्या करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। युवा पीढ़ी का साहित्य से जुड़े रहना बहुत जरूरी है।


प्रस्तुति-रीतिका