मेरा स्थानान्तरण दक्षिण के एक छोटे से शहर वारांगल में हो गया था। मेरे बैंक की एक मात्र शाखा उस शहर में थी। जाने के अलावा कोई विकल्प नही था। मैं अपना बोरिया बिस्तर लेकर उस शहर में अनजाने लोंगों के बीच पहुॅंच गया था। बैंक के वरिष्ठ सहयोगी द्वारा एक मित्र का पता दिया गया,जो उनके गाॅंव का निवासी था। मित्र का मकान उसी शहर में था जो गाॅंव से कुछ किलोमीटर दूर था।
. मैं जिस दिन निर्धारित पते पर पहुॅंचा वो जनवरी की सुबह थी। टे्रन से उतर कर सीधे पते पर पहुॅंचा-सुबह का आठ बजा था। मेरी नौकरी मार्च,2006 में शुरु हुई थी और ये 5जनवरी,2008की अपनी उपस्थिति दर्ज कराती सुबह थी। ंज्यादा अनुभव नही था। लेकिन अपनी योग्यता के भरोसे अनजान शहर में नये अनुभव के लिये प्रस्तुत था। मेरी तरह वे सज्जन भी ज्यादा अनुभवी नही थे-नाम था शंकरन। वह 35-.36 साल का युवा था। पहली बैठक में ही मेरी और उसकी जम गई। उसका मकान चार कमरे का साफ-सुथरा शहर के कोने पर सड़क के किनारे था। दो दिन साथ रहे। उसी मकान के एक कमरे में प्रोढ़ किराये पर रहते थे। शंकरन को अपने गॅंाव जाना था,जाते जाते वो उन सज्जन से परिचय करा गया। कह कर गया था किसी भी बात के लिये परेशान होने की जरुरत नही है-ये तुम्हारी मदद करेंगे। अब मैं था और वो तीरथदास गुप्ता थे जो आगरा के रहने वाले थे। रोज सुबह-शाम गुप्ता जी से मुलाकात होती। चाय से लेकर खाना आदि साथ ही होता। उनके साथ मेरा मन लगने लगा था। धीरे-धीरे परिचय प्रगाढ़ता मे बदलने लगा और मेरा मन लगने लगा था। मैं अपनी लिखी कविता और वे अपने बारे में धीरे-धीरे बताने लगे थे।
. एक दिन रविवार की छुटटी थी,हम दोनो अपने अपने बारे में बताने को तड़प रहे थे। शरुआत उन्होंने की। उनका दर्द उनकी जवान पर आ गया था। गुप्ता जी ने कहना शुरु. किया-‘‘यार मैंने जब से होश सभांला है,अपने आप को कमतर ही पाया। हर मुकाम पर लगा कि मेरा कोई अस्तित्व ही नही है। जब भी कोई बात होती मेरी कमियाॅं मुझे प्रताड़ित करती। दोस्तों के बीच ज्यादा बोल नही पाता और सबकी हॅंसी का पात्र बनता । मैं भी हर बात को हॅंसी में उड़ा देता,ज्यादा सोचता नही था।
. मेरा स्वभाव ही मेरा सबसे बड़ा दुश्मन था। तालाब मे कंकडी मार देने जितनी देर लहरें उठती फिर शान्त हो जाती,ऐसा था मेरा स्वभाव। यह बात बहुत देर में समझ पाया। तब तक काफी देर हो चुकी थी। हर कोई मुझे हल्के में लेता और मेरी कमियाॅं निकाल कर नीचा दिखाने को लालायित रहता ।
. बचपन में जिस मुहल्ले में रहता था, पड़ोस में एक लड़का रहता था वो मुनीश था। उसकी मेरी दोस्ती थी। मैं कक्षा 8 में पढ़ता था और वो नौ में,एक ही स्कूल में पढ़ते थे। हर रेाज उसके घर जाता और घं़टे दो घ़ंटे बैठ कर गप्पबाजी करता और घर वापस आ जाता। उस समय माॅ का कहना था कि शाम को सात बजे तक वापस आ जाना-ऐसा नियम बन गया था। मैं अपने में मस्त रहता। बचपन में अपने आस पास क्रिया प्रतिक्रिया जल्दी आसानी से समझ मे नही आती थी। काफी देर बाद भेजे में घुसता कि किसने क्या कहा? एक दिन एक दूसरे मित्र से खेल में झगड़ा हो गया तो बोला,‘‘तू अपने आप को क्या समझता है,तेरा दोस्त मुनीश तो कह रहा था कि तू उसके स्टेन्डर्ड का नही है,तू ही उसके पीछे पड़ा रहता है,वो तुम्हें दोस्त मानता ही नही। एक सनाका हुआ और काॅंच की प्लेट में रखी हुई दोस्ती टूट कर बिखर गई। और मैं ऊपर से नीचे तक लहूलुहान हो गया था।
. मुनीश के घर जाना बन्द कर दिया था। कभी आमना सामना हो जाता-राम राम हो जाती। उसने कभी नही पूछा कि तुमने घर आना क्यों बन्द कर दिया। समय ने रुकना कहाॅं सीखा,अपनी गति से आगे बढ़ता रहा। बढ़ती उम्र के साथ नये दोस्त बने, नये अडडे बने। पान की दुकान पर रोज शाम को कुछ दोस्तों की टोली मिलने लगी-पांडे,अरमान आगर, दिक्षित,सन्तोष,दुबे,द्विवेदी,श्रीवास्तव,त्रिपाठी,करोलिया। और भी लोग थे जो समय के साथ आते गये-मि़त्रता प्रगाढ़ होती रही। उन्ही दोस्तों की मंडली काफी बाद तक चली और ऊपर लिखे नाम ही ज्यादा नजदीकियाॅं पा गये। दोस्तों में जैसा कि होता है,सभी एक को टारगेट बना लेते है और सभी की हकूमत उसी पर चलती है। निर्मल पांडे के भाई की बरात में एक जगह एक ढ़ाबे पर सबने खाना खाया। जैसे ही खाना खाकर उठा निर्मल ने डंाटना शुरू कर दिया-दाल क्यो छोड़ दी-नही खानी थी तो बता देते-फेंकी जायेगी। मैनें उठते उठते मेजों पर नजर दौड़ाई-मैं अकेला नही था। उस समय मै कुछ नही बोला लेकिन आज भी वह बात कचोटती है। हरीश की बहन की शादी शहर से कुछ दूर एक मंदिर से की गई थी। मुझे आदेश हुआ कुछ सामान ले आओ। किसी कारणवस15-.20 मिनट की देरी हो गई। बहुत कुछ सुनने को मिला-जिसको कहना चाहिये था,उनसे न कहकर सारा गुस्सा मुझ पर निकाला गया। यह बात कई महीनों तक धारावाहिक रुप से चलती रही-आज तक मन कसकता है-बिना दोष के प्रताडित किया गया। यही कमी थी कि समय पर जवाव नही दे पाता था। अम्रत तो अक्सर ही तू तड़ाक करके बात करता। मेरी भी शादी हो गई,उसे एन्जोय करता हुआ कालेज की जिन्दगी के साथ कार्यालय की जिन्दगी एन्जाॅय करने लगा। जब अपने चारों ओर देखता तो पाता कि जैसे हर कोई अपना मतलब साधना वाहता है। किसी को आपसे काई मतलब नही, बस कैसे भी अपना काम निकालो और भूल जाओ।
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. दिन बीतने लगे। मुझे अपने चारों कोई अपना न दिखाई देता। कालेज के दिनों में कई दोस्त थे, एक था हरे कृष्ण-कद नाटा रंग काला-ब्राम्हण। चालबाजियाॅं, फरेब, दुर्भावना, द्वेष जैसे उसके अलंकार थे। जिसके भी साथ रहता उसी की पीठ में छुरा घुसेड़ देता। मैं उसकी सभी चालबाजी जानते समझते हुये भी उसके साथ रहता। कालेज और कार्यालय में साथ पढ़ते,नौकरी करते थे। एक बार की बात है,मैं फोन करने कार्यालय गया। शाम का समय था। पत्नी की दादी की तबियत खराब थी। उस समय फोन हर जगह उपलब्ध नही थे। कार्यालय के फोन से बात कर लिया करता और नकद पैसा नही देना पडता़ं। उस दिन पत्नी साथ थी,उसका साथ होना ही मेरे लिये बाद में बचाव का कारण बना। दूसरे दिन सुबह जैसे ही कार्यालय पहुॅंचा, साहब ने बुला भेजा-बोलें,‘‘आप कल शाम कार्यालय आये थे।’’ ‘‘जी सर मेरी पत्नी की दादी की तबियत खराब थी। पत्नी ने यहाॅ से फोन किया था। ओैेर तुरंत ही हम वापस चले गये थे। क्यों साहब क्या बात है?’’ ‘‘किसी ने अलमारी का ताला तोड़ कर दस रिम कागज चुरा लिया है।’’ ‘‘साहब मैंने तो रजिस्टर में आने जाने का समय तारीख सहित अंकित किया है।’’‘‘ठीक है तुम जाओ।’’ बाहर आकर अपनी सीट पर बैठ गया। सकते में था। इन सब बातों का अनुभव नही था। जब बहुत परेशान हो गया तो साहब से मिला -‘‘सर मैं बहुत परेशान हॅूं। रात भर नही सो सका’ं ‘‘क्यों?’’ ‘‘आपने मुझे बुला कर पूछताछ की तो मुझे लगा कि जब मैंने कुछ किया नही,फिर क्यों बुला कर पूछा गया।’’ ‘‘ बस इतनी सी बात है?’’ ‘‘जी सर ’’ ‘‘ तुम चिन्ता नही करो,मैं जानता हूॅं,तुम्हारा कोई कसूर नही लेकिन जानकारी तो लेनी पड़ती है,इसलिये पूछा,इसकी चिन्ता मत करो। कभी कोई परेशानी हो तो मुझे बताओ। जाओ और खुश रहो।’’ वह दिन मेरे लिये बड़ा तनाव भरा दिन था। साहब से मिलने के बाद मुझे राहत मिली। बाद में पता चला कि मेरी पत्नी के साथ होने के कारण ही मैं शक के दायरे से बाहर रहा अन्यथा मेरे उपर भी शक किया जाता।
काफी समय बीत गया था। समय का पता ही नही चला। रात के ग्यारह बज चुके थे,लग रहा था कि कहानी खत्म ही न हो लेकिन कभी ऐसा कभी हुआ है जो अब होगा। मैं उठा पानी पिया, गुप्ता जी को पानी दिया और पूछते हुये कि चाय पियेगें? उत्तर का इन्तजार किये बिना ही चाय बनाने चला गया। थोड़ी देर ही चाय के दो प्याले हाथ में लिये गुप्ताजी के सामने आ बैठा और बंेसब्री से बोला फिर क्या हुआ भाई साहब ? गुप्ता जी ने केप्सटन सिगरेट जलाई और ढेर सारा धुआं छोड़ा-जैसे बहुत देर से तलबगार थे-इस ध्ुांये के। कहना शुरू किया-एक दिन मेरे कार्यालय में एक रेलवे रसीद आई। उसे जिसको देनी थी,उसका नाम रजिस्टर में चढ़ा कर रख दी। जिसको रसीद लेनी थी, बिना हस्ताक्षर किये रेलवे रसीद लेकर अपने कार्यालय चला गया और भूल गया। जब 250रु0 का रेलवे डेमरेज का नोटिस आया तब ढंूढा गया। एक दिन रनर ने जो डाक लेकर साइड आता जाता था, मेरे सामने रेलवे रसीद रख दी और बताया कि उपखंडीय कार्यालय की खिड़की पर रखी हुई थी। मैने साहब को बताया। वे कुछ नही बोले और डेमरेज सरकारी खर्च पर दिये जाने के आदेश दीये अन्यथा मेरे वेतन से काटे जाते। मतलब ये कि कार्यालय में कभी कोई गंभीर संकट नही आया। जिन्दगी मजे में कटती रही। दोस्त जितने भी थे जो कार्यालय के अतिरिक्त कुछ ही थे,उन्ही के साथ शाम कटती। होली,दिवाली,और छुटटी के दिन भी कट जाते। बैठकों में बाद में महसूस किया गया कि अधिकतर बहस दो एक लोगो के बीच ही घूमा करती। वे चार थे जिनकी आपस में पटती। शेष तो शामिल होकर डिस्टर्ब ही करते। धीरे-धीरे समय बीतता रहा। सबने शादी कर ली और फिर बच्चों की शादी हुई। धीरे-धीरे दूरियॅंा बढती गई। अब दोस्ती देास्ती नही रह गई थी। अगर आपको जरूरत हो तो आयो। उनकी तरफ से कोई पहल नही होती। अगर आप पहुॅंच जायो तो ठीक अन्यथा वे कभी नही आते। कुछ दिन बाद मैं सेवानिृत हो गया-पत्नी का देहान्त हो चुका था,मन लगता नही था। एक बार घर में ताला लगाया और ट्रेन में बैठ गया। ट्रेन जाती रही-जाती रही मेरा कोई गन्तव्य नही था। वो तो भूख प्यास के कारण ट्रेन में ही बेहोश हो गया। और यहाॅ अस्तपताल मंे भर्ती कर दिया गया। अस्तपताल से छूटने के बाद दर दर भटकने लगा। तब यही शंकरन मुझे मिला। अपने घर में ले आया शरण दी और मैं तब से यहीं हूॅं। लगभग दस साल हो गये। बिना किसी उददेश्य के--------
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. अजय कुमार दुबे,
. 691,सिविल लाइन्स,
. झांसी
. मोबाइलन0-07897238351