आल्हा
 


 

 

 

 



 

 


आल्हा बुंदेलखंड की वीर भूमि महोबा और आल्हा एक दूसरे के पर्याय हैं।
महोबा की सुबह आल्हा से शुरू होती है और उन्हीं से खत्म। बुंदेलखंड का
जन-जन आज भी चटकारे लेकर गाता है-

बुंदेलखंड की सुनो कहानी बुंदेलों की बानी में

पानीदार यहां का घोडा, आग यहां के पानी में

महोबा के ढेर सारे स्मारक आज भी इन वीरों की याद दिलाते हैं। सामाजिक
संस्कार आल्हा की पंक्तियों के बिना पूर्ण नहीं होता। आल्ह खंड से
प्रभावित होता है। जाके बैरी सम्मुख ठाडे, ताके जीवन को धिक्कार । आल्हा
का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि 800 वर्षो के बीत जाने के बावजूद वह आज
भी बुंदेलखंड के प्राण स्वरूप हैं। आल्हा
आल्हा गायक इन्हंे धर्मराज का अवतार बताता है। कहते है कि इनको युद्ध से
घृणा थी और न्यायपूर्ण ढंग से रहना विशेष पसंद था । इनके पिता जच्छराज
(जासर) और माता देवला थी। ऊदल इनका छोटा भाई था। जच्छराज और बच्छराज दो
सगे भाई थे जो राजा परमा के यहॉ रहते थे। परमाल की पत्नी मल्हना थी और
उसकी की बहने देवला और तिलका से महाराज ने अच्छराज और बच्छराज की शादी
करा दी थी। मइहर की देवी से आल्हा को अमरता का  वरदानल मिला था। युद्ध
में मारे गये वीरों को जिला देने की इनमें विशेशता थी। लाार हो कर
कभी-कभी इन्हें युद्ध में भी जाना पड़ता था। जिस हाथी पर ये सवारी करते थे
उसका नाम पष्यावत था। इन का विवाह नैनागढ़ की अपूर्व सुन्दरी राज कन्या
सोना से हुआ था। इसी सोना के संसर्ग से ईन्दल पैदा हुआ जो बड़ा पराक्रमी
निकला। शायद आल्हा को यह नही मालूम था कि वह अमर है। इसी से अपने छोटे
एवं प्रतापी भाई ऊदल के मारे जाने पर आह भर के कहा है-
पहिले जानिति हम अम्मर हई,
काहे जुझत लहुरवा भाइ ।
(कहीं मैं पहले ही जानता कि मैं अमर हूँ तो मेरा छोटा भाई क्यों जूझता)

ऊदल
यह आल्हा का छोटा भाई, युद्ध का प्रेमी और बहुत ही पतापी था। अधिकांष
युद्धों का जन्मदाता यही बतलाया जाता है। इसके घेड़े का नमा बेंदुल था।
बेंदुल देवराज इन्द्र के रथ का प्रधान घोड़ा था। इसक अतिरिक्त चार घोड़े और
इन्द्र के रथ मंे जोते जाते थे जिन्हंे ऊदल धरा पर उतार लाया था। इसकी भी
एक रोचक कहानी है। - ‘‘कहा जाता है कि देवराज हन्द्र मल्हना से प्यार
करता था। इन्द्रसान से वह अपने रथ द्वारा नित्ःय र्ही आ निषा में आता था।
ऊदल ने एक रात उसे देख लिया और जब वज रथ लेकर उ़ने को जुआ, ऊदल रथ का
धुरा पकड़ कर उड़ गया। वहां पहुंच कर इन्द्र जब रथ से उतरा, ऊदल सामने खड़ा
हो गया। अपनल मार्यादा बचाने के लिए इन्द्र ने ऊदल के ही कथ्नानुसार अपने
पांचों घोडे़ जो उसके रथ में जुते थे दे दिये। पृथ्वी पर उतर कर जब घोड़ों
सहित गंगा नदी पार करने लगा तो पैर में चोट लग जाने के कारण एक घोड़ा बह
गया। उसका नाम संडला था और वह नैनागढ़ जिसे चुनार कहते है किले से जा लगा।
वहां के राजा इन्दमणि ने उसे रख लिया। बाद में वह पुनः महोबे को लाया गया
और आल्हा का बेटा ईन्दल उस पर सवारी करने लगा।
ऊदल वीरता के साथ-साथ देखने में भी बड़ा सुनछर था। नरवरगढ़ की राज कन्या
फुलवा कुछ पुराने संबंध के कारण सेनवा की षादी मं्रंे नैनागढ़ गयी थी।
द्वार पूजा के समय उसने ऊदल को दख तो रीझ गयी। अन्त में कई बार युद्ध
करने पर ऊदल को उसे अपनल बनाना पड़रा। ऊदल मं धैर्य कम था। वह किसी भी
कार्य को पूर्ण करने के हतु शीघ्र ही शपथ ले लेता था। फिर भी अन्य वीरों
की सतर्कता से उसकी कोई भी प्रतिज्ञा विफल नही हुई। युद्ध मंे ही इसका
जीवन समाप्त हो गया। इसका मुख्य अस्त्र तलवार था।

ब्रहा्रा
यह परमाल का बेटा था। इसकी शादी दिल्ली के महाराज पृथ्वीराज को परम
सुन्दी कन्या बेला (बेलवा) से हुई थी थी। पाठकों को यह नही भूलना चाहिए
कि महोबी जाति के उतार थे। अतः इनके यहां कोई भी अपनी कन्या को शादी करने
में अपना अपमान समझता था। यही कारण था जो ये लोग अपनी शादी में भीषण
युद्ध किया करते थे। सत्य तो यह है कि यदि ये अपने राज्य विस्तार के लिए
इतना युद्ध करते तो निष्चय ही चक्रवर्ती राजा हो जाते। ब्राहा्रा का
ब्याह भी इसी प्रकार हुआ था। कई दिनों तक घोर युद्ध करना पड़ा। इसके गौने
में तो सभी वीर मार डाले गये। आल्हा काल की यह अन्तिम लड़ाई मानी जाती है
जिसमें अमर होने के नाते केवल आल्हा ही बच पाये थे। ब्राह्राा भी वीर गति
को प्राप्त हुआ और उसकी नयी नवेली बेलवा अपने पति के शव के साथ जल के मर
गयी। ‘आल्हा’ गायक निम्न पंक्तियां बड़े दुःख के साथ गाता हूॅ-
सावन सारी सोनवा पहिरे,
चौड़ा भदई गंग नहाइ।
चढ़ी जवानी ब्रहा्रा जूझे
बेलवा लेइ के सती होइ जाइ।

(सावन में सोना साड़ी पहनती थी, चौड़ा भादों मंे गंगा नहाता था। चढ़ती जवानी
में ब्रहा्रा जूझ जाता है और उसे लेकर बेलवा सती हो जाती है।)

मलखान
बच्छराज के जेठे पुत्र का नाम मलखान था। यह बड़ा ही शक्तिशाली था। कहते ह
कि यह जिस रथ पर सवारी करता था उसमंे 17 घोड़े जोते जाते थे। उस समय उसके
दोनों जंघे पर सौ-सौमन क लम्बे-लम्बे लोहे के खम्भे खड़े कर दिये जाते थे।
इनकी संख्या दो होती थी और वह युद्ध में इन्हीं से वार किया करता था। रथ
के भार से भूमि नीचे बैठ जाया करती थी। युद्ध में इनका रथ सबसे पीछे
रख्चाा जाता था। इनके प्रताप को आल्हा की दो पंक्तियां बताती है-
लूझि लगावन के डेरिया हो,
खंभा टेकन के मलखान।
(झगड़ा लगाने के लिए डेरिया और मुर्चा लेने के लिए मलखान था)
मलखान का ब्याह पानीपत के महाराज मधुकर सिंह की कन्या जगमोहन से हुआ था।
इस ब्याह में भी महोबी वीरां को खूब लड़ाई लड़नी पड़ी थी।  जगमोहन का भाई
नवमंडल इतना योद्धा था कि महोबियों की हिम्मत रह-रह के छूट जाती थी।
स्वयं ऊदल कई बार मूर्छित हो उठा था। नवमंडल के प्रति आल्हा की चार
पंक्तियां इस प्रकार हैं-
नौ मन तेगा नउमंडल के,
साढ़े असी मने कै साँग
जो दिन चमकै जरासिंध में
क्षत्रों छोड़ि धरैं हथियार ।
(नवमंडल का नौ मन का तेगा और साढ़े अस्सी मन की सॉग थी। जिस दिन जरासिंध
क्षेत्र में वे चमक जाते थे क्षत्री अपना अपना हथियार डाल देते थे।)
मलखान उसक मोर्चा थाम सका। वरदान के कारण पाँवांे के तलवे को छोड़ उसकी
सारी शरीर अष्टधातु की हो गयी थी। उसके शरीर से किसी प्रकार का वार होने
पर आग की चिनगारियां निकलने लगती थी। इसकी मृत्यु तभी हुई जब कि धोखे मंे
जगमोहन ने बैरी को अपने पति के तलवे में प्राण रहने की बात बता दी।
सुलखान
सुलखान आल्हा में अंगद के नाम से गाया गया है। यह मलखान का छोटा भाई था।
युद्ध काल में मलखान के रथ को यही हॉकता था। मलखान के पराक्रम का श्रेय
इसी को है। रथ को लेकर अभी आकाश मंे उड़ जाता था तो कभी बैरियों के दल में
कूद पड़ता था। कही-कहीं इसे भगवान कृष्ण की भी संज्ञा मिली है। इसके
अतिरिक्त उसे युद्ध कला का भी अच्छा ज्ञान था।
जगनी
जिस दल का सम्पूर्ण जीवन ही युद्धमय रहा उसमें एक कुशल दूत का होना भी
आवश्यक था। ऐसे कार्यो के लिए जगनी अपने दल में आवश्यकता पड़ने पर यह
सन्द्रश पहुंँचाया करता था। आल्हा मंे इसके लिए धावनि (दूत) शब्द का भी
प्रयोग किया गया है। इसकी चाल घोड़े से भी कई गुने तेज थी। दूसरे के मन की
बातें जान लेना था और भविष्य की बातें भी बता देता था। राह में चलते हुए
यदि महोबी वीर कहीं युद्ध में फँस जाते थे तो राज्य में खबर ले जाने का
कार्य जगनी को ही साैंपा जाता था।
सुखेना
तेलो सुखेना तलरी गढ़ के
जे घटकच्छे कइ अवतार।
(सुखेना जाति का तेली और तिलरी गढ़ का रहने वाला तथा घटोत्कच्छ का अवतार था।)
सबसे बड़ी बात यह थी जो उसे 12 जादू और 16 मोहिनी का अच्छा ज्ञान था। उस
समय जादू की भी लड़ाई हुआ करती थी। आल्हा की पत्नी सोनिवां भी जादू में
माहिर थी।ऐसे समय में सुखेना का रहना आवश्यक था। इसने कई बार अपने दल को
दुश्मनों द्वारा चलाये गये जादू से मुक्त किया था।
डेरिया
डेरिया ऊदल का सच्चा साथी, जाति का ब्राहा्रण था। पेचेदे मामलों से इसकी
सूझ-बूझ सर्वथा ग्रहणीय होती थी। यह एक अनोखा जासूस था, जिसे बावनों किलो
का भेद भली-भांति मालूम था। ऊदल की तरह यह उदकी नही था बल्कि बहुत
सोच-समझ कर कदम उठाता था। इसके लिए कभी-कभी ऊदल नाराज भी हो जाता था। कुछ
आल्हा गायक डेरिया के लिए ढेवा षब्द का भी प्रयोग करते है। परन्तु डेरिया
और ढेबा दो सगे भाई थे जो पियरी के राजा भीखम तेवारी के लड़के थे। एक दिन
दोनों पिता से आज्ञा ले विदेष को निकल पड़े । कुछ दूर आकर दोनों,
जान-बूझकर दो रास्ते पर हो लिये। इसप्रकार डेरिया महोबा पहुंचा और ढेबा
लोहगाजर। डेरिया हंशा नामक घोड़े पर सवारी करता था जो इन्द्र के घोड़े मंे
से एक था। इसे डेरिइया भी कहा जाता है। ऊदल को डेरिया पर गर्व था।
संकटकाल मंे वह इसीको पकाराता था। यह देवो का परम भक्त था और देवी इसे
इष्ट भी थी।
लाखन
महोबे की बढ़ती हुई धाक देख जहां दूसरे राजा जलते थे वही लाखन एक राजा
होते हुए भी महोबे की ओर से लड़ता था। यह कन्नौज के महाराज जयचंद्र का
लड़का था। इसकी 160 रानियाँ थी। ऊदल से इसकी मित्रता हो गयी थी और उसी के
साथ महोबे केू लिए सदा लड़ता रहा सी मंे उसकी मृत्यु भी हो गयी।  ऊदल के
साथ-साथ रहने से आल्हा की पंक्तियों में भी दोनों के साथ साथ समेटा गया
है। नीचे की दो पंक्तियां इसकी वीरता मंे तथा ऊदल की सहचारिता मंे कम नही
होगी-
लाखन लोहवा से भंुइ हालै,
अउ उदले से दऊ डेराइं।
(लाखन के लोहेग से पृथ्वी दहल जाती थी और ऊदल से तो परमात्मा ही डरते है।)

सैयद
वृद्धावस्था में कुशलता से युद्ध में जुझाने वाला सैयद ही था। इसका पूरा
नाम बुढ़वा सैयद ही था। इसका पूरा नाम बुढ़वा सैयद था और यह वाराणसी का
रहने वाला था। इसे महोबे का मन्त्री कहा गया है और अन्यान्य स्थलों पर
इसकी सूझ-बूझ एवं मन्त्रणा से महोबे एवं महोबियों की काफी रक्षा हुई।
भगोला और रूपा
(अहिर भगोला भागलपुर के) यह भागलपुर का एक अहीर था। इसकी शारीरिक शक्ति
का ‘आल्हा’ में खूब बखान किया गया है। कहते है कि युद्ध में यह मोटे-मोटे
पेड़ उखाड़ कर लड़ता था। इससे डर कर कितने बैरी भाग भी जाते थे।
रूपा जाति का बारी था। युद्ध-निमन्त्रण की चिट्ठियाँ यही पहुँचाया करता
था। अतः पहला मोर्चा भी इसी को लेना पड़ता था। इससे वह बैरियों की शक्ति
भी सहज ही आजमा लेता था।
उक्त बारहों वीरों के पराक्रम का परिणाम जो हुआ कुछ अंश में निम्न
पक्तियाँ बताती हैं, जिन्हें ऊदल ने ही अपने मुख से कहा है-
पूरब ताका पुर पाटन लगि
और पश्चिम तकि विन्द पहार,
हिरिक बनारस तकि तोरा धइ
केउना जोड़ी मोर देखान।
अन्तः आल्हा तो अमर माने जाते है शेष सभी वीरों का अन्त ब्रहा्रा के गौने
में पृथ्वीराज के प्रतापी पुत्र चौड़ा के हाथ हुआ। चौड़ा के हाथ इनकी
मृत्यु भी लिखी थी, आल्हा मंे ऐसा गाया जाता है।