मुझे देखकर बड़े ने किताब में गड़ी आँखें उठाईं और मृदु स्वर में बोले, “बैठो।”
आमतौर पर बड़े की स्टडी में सुबह चाय देने जाती हूँ तो वे बैठने को नहीं कहते। मैं कोतूहल से भर जाती हूँ- बड़े कोई बात कहेंगे। बड़े ने पुस्तक में पुस्तक-चिह्न लगाकर रैक में रखा, फिर आँखों पर ठीक से चश्मा जमाते हुए बोले, “तेरी पढ़ाई कैसी चल रही है शुभा? फस्र्ट तो आयेगी?”
बी. ए. पार्ट वन में पैंसठ प्रतिशत लेकर मैं अपने काॅलेज में फस्र्ट आयी थी। बड़े को मुझपर गर्व है। उत्तर दिया, “कोशिश तो कर रही हूँ बड़े।”
“जरूर आयेगी। मेरी शुभा कभी सेकेण्ड नहीं आयी।” उन्होंने प्याली में चाय डाली और खिड़की से फेन्सिंग के पास लगे पत्रहीन पीपल की ओर देखते हुए धीरे-धीरे सिप करने लगे।
बड़े की स्टडी की खिड़की बगीचे की ओर खुलती है। खिड़की के शेड पर मौलश्री और रजनीगन्धा की शाखें छितराई हुई हैं। फागुनी बयार के हर झोंके के साथ ढेर सी गन्ध सलाखों के रास्ते अन्दर घुस आती है। कमरा भीनी-भीनी महक से भर जाता है।
“आज शाम तेरी कल्याणी-दी आ रही है।” चाय खत्म करने के बाद बड़े सिगरेट सुलगा लेते हैं और खोये हुए से वृक्षों की झुरमुट से झाँकते आकाश की ओर ताकने लगते हैं।
“अरे सच !... सच बड ़े!” मैं उत्साह से भर उठती हूँ।
“कल शाम चटर्जी बाबू से काफी हाउस में भेंट हुई थी। उन्होंने बताया कि कल्याणी आयी हुई है।” बड़े तटस्थ भाव से कहते हैं। चेहरे या स्वर से जान पाना असम्भव है कि उन्हें कैसा लग रहा है।
चटर्जी बाबू पेशे से वैद्य और व्यसन से शतरंज के खिलाड़ी हैं। जब कल्याणी दी यहाँ थीं तो उन्हीं के साथ रहती थीं। अपने विद्यार्थी जीवन में बड़े को भी शतरंज का व्यसन था। छुट्टियों में दिन-दिन भर, चटर्जी बाबू के साथ जमे रहते थे। बड़े के चेहरे पर रहस्यमयता घिर आती है। आँखें चमकीली और तरल। आखिरी कश लेकर वे सिगरेट को खिड़की के बाहर फेक देते हैं।
“अच्छा शुभा अपनी भाभी से बोल देना।” कहने के बाद वे मेरे चेहरे को गौर से देखते हैं, मेरी दुविधा को भाँपते हैं, फिर निरीह भाव से, संशोधन जोड़ देते हैं, “अच्छा तुम रहने दो, मैं ही बोल दूँगा।”
मैं चाय की प्याली और पाॅट को ट्रे में समेटकर स्टडी से चली आती हूँ। यूनिवर्सिटी जाने के पहले बड़े अन्दर जाकर भाभी से कहते हैं, “शाम को कल्याणी आ रही है, निर्मला। तैयारी कर लेना।”
भाभी, जो गुड्डी को नहलाने के बाद फ्राॅक पहना रही हैं। हाथ रोककर संक्षिप्त सी ‘हाँ’ कहती हैं। शायद कुछ और भी कहना चाहती हंै, पर तब तक बड़े जूते खट-खट करते हुए चले जाते हैं। मैं खासकर भाभी की प्रतिक्रिया देखने के लिये आँगन में आ जाती हूँ। एक क्षण पहले आत्मतोष और तृप्ति से भरी, धनी पिता की गर्वीली बेटी, भाभी का चेहरा अचानक बहुत तिक्त, बहुत ईष्र्याभरा हो जाता है।
आठ वर्षों का अन्तराल- एक पूरा युग !..नहीं मनवन्तर !
मुझे सब कुछ ठीक-ठीक याद है। मैं बारह वर्ष की हूँ। एक दिन बड़े मुझे साइकिल पर बैठाकर ‘रवीन्द्र संगीत सदन’ में भर्ती कराने ले जाते हैं। विद्यालय शहर से दूर एक खपरैल वाले पुराने बँगले में है। अहाते में बेतरतीब झाड़-झंकाड़ और ऊँघे-ऊँघे दरख्त लगे हुए हैं। जंग खाये लोहे के गेट पर, नीम की टहनियों के सहारे एक साइन बोर्ड झूलता है- ‘रवीन्द्र संगीत सदन’। पीली रज से पुते पोर्च में, हाथ में रजिस्टर लिये एक आदमी खड़ा है। शायद चपरासी। बड़े उसे स्लिप देते हैं। बुलाये जाने पर बोगेनबिलिया से आच्छादित कमरे की चिक उठाकर अन्दर ले जाते हैं। कल्याणी चटर्जी से साक्षात्कार होता है- एक घटना जो बड़े के जीवन में आत्मसाक्षात्कार या निर्णायक मोड़ होने से कम महत्व नहीं रखती, लेकिन जिसका इस समय उन्हें कोई एहसास नहीं।
कल्याणी चटर्जी बड़े को एक फार्म देती हैं। भरने के बाद अभिभावक के स्थान पर बड़े हस्ताक्षर करते हैं, जितेन्द्र सिंह, रिसर्च स्काॅलर, प्रयाग विश्वविद्याालय, प्रयाग।
कल्याणी दी मुझसे कुछ सवाल पूछती हैं। सन्तुष्ट होने के बाद बड़े से पूछती है, “इसे लेने कौन आया करेगा?”
“लाइब्रेरी से लौटते हुए यहीं से निकल जाया करूँगा।” बड़े उत्तर देते हैं।
दीदी मुझे लेकर कक्षा में प्रवेश करती हैं। बाँस और खपरैल वाला एक बड़ा-सा हाॅल। मेरी उम्र की 20-22 लड़कियाँ फर्श पर बैठी हैं। दीवार से सटे चबूतरे पर दरी और दुग्ध-धवल चादर बिछी है। दीवार पर दीदी के हाथ का बनाया-पाणि का एक भावपूर्ण चित्र। कल्याणी दी अनुशासन पर छोटा-सा भाषण देती हैं। फिर तानपूरे पर भक्तिमती मीरा बाई का भजन गाती हैं- मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई...। गाते-गाते उनकी आँखें मुँद जाती हैं। भाव और सुर में इतनी खो जाती हैं कि मूर्ति की तरह दिखने लगती हैं। उतनी देर के लिये कमरे का सबकुछ बहुत पवित्र, बहुत सात्विक लगने लगता है।
वर्षान्त की साँझ उतरने लगती है। सब लड़कियाँ जा चुकी हैं। मैं पोर्च में बड़े की प्रतीक्षा करती खड़ी हूँ। सहसा हाथ में छाता और रजिस्टर लिये कल्याणी दी अपने कमरे से निकलती हैं और मेरे पास आ खड़ी होती हैं।
“तुम्हें कोई लेने नहीं आया शुभा ?”
मैं कुछ कहने को होती हूँ कि बड़े की साइकिल पोर्च में रुकती है।
“लाइबे्ररी से तो सही समय पर चल दिया था लेकिन रास्ते में एक जगह शतरंज की बाजी...” बड़े सकुचाते हुए सफाई देते हैं।
हम तीनों गेट पार करके डामर की सड़क पर आ जाते हैं। बड़े की असहज चेष्टाओं से साफ लगता है कि वे दीदी से बात करना चाहते हैं। लेकिन दीदी कोई प्रोत्साहन नहीं देतीं। अगले चैराहे पर चुपचाप मुड़कर चली जाती हैं। बड़े ठगे से उस ओर ताकते रह जाते हैं। फिर चेत में आते हुए मुझे कैरियर पर बैठाकर चल देते हैं।
उस दिन बड़े की स्टडी की बत्ती रात भर जलती रही थी। दूर जब बैंक में दो की गजर बजे तो माता जी उनके कमरे में जाकर बिगड़ने लगी थीं। बड़े ने चश्मा साफ करते हुए कहा था, “रिसर्च का काम है माता जी। मेहनत नहीं करूँगा तो कैसे चलेगा ?”
बाद में समझ आया कि बड़े आदत के खिलाफ झूठ बोल रहे थे। उसके बाद बड़े की कोई भी रात क्या दीदी के ध्यान के बिना गुजरी ! सहसा बड़े में अजीब-से परिवर्तन आने शुरू हो गये थे। पैण्ट-शर्ट छोड़ कर वे हाथ का धुला हुआ खादी का कुर्ता पाजामा पहनने लगे थे। हँसने की जगह सिर्फ उदासी से मुस्करा कर रह जाते थे। एक दिन यूनिवर्सिटी की लाइबे्ररी से गीतांजलि ले आये और बँगला सीखनी शुरू कर दी। फिर उनकी रेकें बँगला किताबों से भरने लगीं। पर सबसे त्रासद परिवर्तन मुझे यह लगा कि उनकी स्टडी के किवाड़ हमेशा बन्द रहने लगे थे। जब वह पढ़ रह होते तो किवाड़ अन्दर से बोल्ट होते। जब बाहर, तो किवाड़ों पर ताला झूल रहा होता। किस कदर मन-प्राण से चाहने लगे थे बड़े कल्याणी दीदी को ? पर इसके बावजूद उनके सामने पड़ने पर जैसे गूँेगे हो जाते। सारी घुटन, सारी दग्धता, सारा दुख, सारा प्रेम- निःशब्द ! सिर्फ निःशब्द !!
लेकिन एक दिन जैसे अदृष्ट नियति के तहत सारी बात अपने आप खुल कर सतह पर आ गयी।...
उस दिन कक्षा लेते समय दीदी के पेट में अचानक भयानक दर्द शुरू हो गया। पहले दो-तीन उल्टियाँ फिर टेम्परेचर के साथ असह्य कष्ट। चपरासी सहित सभी लड़कियाँ पशोपेश में पड़ी हुई थीं। तभी बड़े की साइकिल पोर्च में रुकी। कल्याणी दीदी की हालत देख कर वे बुरी तरह घबरा गये। काँपते स्वर में उनकी तबियत के बारे में पूछा और रिक्शा लेने भागे गये। दीदी घर जाना चाहती थीं लेकिन बड़े का आग्रह इतना प्रबल और आवेशपूर्ण था कि सीधे अस्पताल जाने को तैयार हो गईं। बड़े ने उन्हें प्राइवेट वार्ड में भरती करा दिया। दीदी को अपेण्डीसाइटिस निकला। अर्द्धबेहोशी की हालत में वे लगातार कराह रही थीं कि बड़े की स्थिर आँखों से उनकी आँखें जा मिलीं।... और एक दीर्घ क्षण के बाद जैसे चमत्कार हो गया। दीदी का कराहना बन्द हो गया। ऐसा नहीं था कि उन्हें कष्ट नहीं था। पर मन को चट्टान जैसा कोई सम्बल अचानक मिल गया हो, जिससे कोई भी पीड़ा सह्य हो जाती है- एक आत्मिक विश्वास कि वे देह, जीवन, मन, प्राण बड़े की सुरक्षा में सौंप कर निश्चिन्त हो सकती हैं। बड़े की वह उज्जवल दृष्टि मुझे आज तक याद है- एक निष्कम्प, दृढ़ और प्रार्थना भरी दृष्टि कि जरूरत हुई तो वे दीदी को भगवान से भी लड़ कर ले आयेंगे। और इसके बाद दीदी के लिये जैसे सब सहज हो गया था। लेकिन सब कुछ नितान्त गोपन। प्रकट में कोई शब्द, कोई संकेत नहीं।...
महीने भर बाद विद्यालय खुला तो दीदी में हल्का-सा परिवर्तन था। उनकी चाल-ढाल और बातचीत में अजीब सी मन्थरता और माधुर्य आ गया था। चेहरे पर सलज्ज लालिमा- जैसे शारदीय भोर के श्वेत-कमल पर किन्हीं अदृष्ट हाथों ने उषा का वर्ण पोत दिया हो... बड़ी-बड़ी आँखों में, जहाँ पहले चंचलता या उद्विग्नता की लहरियाँ दिख जाती थीं, गहन झील जैसी शान्ति आ गई थी।
साँझ को जब बड़े मुझे लेने आये तो सीधे दीदी के कमरे में जाकर उन्हें एक पुड़िया देने लगे।
“क्या है इसमें?” दीदी ने पूछा।
“खोल कर देखो।”
दीदी ने पुड़िया खोली तो रजनीगन्धा के फूलों की एक माला निकली, जिसे बड़े ने बड़ी मेहनत से सुई धागे से अपने हाथ से बनाया था। किंचित मुस्करा कर दीदी ने उसे अपने जूड़े में लगा लिया।
“तुम्हें रजनीगन्धा पसन्द है?” दीदी ने पूछा।
“बहुत। मेरी खिड़की पर फूलते हैं। तुम्हें ?”
“बहुत...। निमेष भर को दीदी ने पलकें उठा कर उनकी ओर देखा।
“आज मेरे फूल सार्थक हो गये...” बड़े ने बुदबुदा कर कहा और कमरे के बाहर आ गये।
रिसर्च पूरी हो चुकी थी। आशा थी कि बड़े को जल्द डाॅक्टरेट और यूनिवर्सिटी में लेक्चररशिप मिल जायेगी। मुझे लगता था कि वह दिन दूर नहीं जब कल्याणी दी, दुल्हन बन कर हमारे घर आ जायेंगी। कैसा लगेगा तब ? मैं सोचती और रात भर रोमांचित बनी रहती।
लेकिन तभी अप्रत्याशित घट गया।
एक दिन बाँदा वाले मामा जी हमारे घर आये। उनके साथ उसी शहर के एक बड़े व्यापारी थे। वे बड़े के लिये अपनी बेटी का सम्बन्ध लाये थे। माता जी उस परिवार और लड़की को उसके बचपन से जानती थीं। इसके अलावा एक और प्रबल आकर्षण उनके मन में था- उनके यहाँ से मिलने वाला लाखों का दहेज। लेकिन बड़े एकदम गुमसुम थे- जैसे साँप सूँघ गया हो।
“तुम क्यों चुप हो जितेन्द्र भइया? आखिर पढ़े-लिखे लड़के हो?” मामा जी ने कहा था।
“हाँ बड़े तू क्यों चुप है?” माता जी को उम्मीद थी कि बड़े चुपचाप स्वीकृति दे देंगे।
बड़े देर तक फर्श पर दृष्टि गड़ाये बैठे रहे थे, फिर धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में बोले थे, “मेरा शादी करने का इरादा नहीं है। क्षमा करेंगे।” और इसके साथ ही कमरे के बाहर चले गये थे। सब लोग हतप्रभ... अवाक रह गये थे। खासतौर से माता जी, जिनकी हर इच्छा बड़े के लिये कानून हुआ करती थी। पिता जी की असमय मृत्यु के बाद उन्होंने बड़े को असीम ममता और कठोर अनुशासन में पाला था।
उसी रात बड़े ने बिना बताये शहर छोड़ दिया था। माता जी गहरे आहत हुई थीं।
दूसरे दिन समाचार सुन कर कल्याणी दी हमारे घर आयी थीं। माता जी ठगी सी उनके शुभ्र सौन्दर्य को देखती रह गई थीं। दीदी स्पष्टतः दुखी थीं। वे माँ-बेटे के बीच दीवार नहीं बनना चाहती थीं। जैसे ही दीदी चरणस्पर्श के लिये झुकीं, माता जी न जाने क्या समझ कर दो कदम पीछे हट गई थीं।
“मेरे कारण जो परेशानी आप पर आयी है, उसके लिये मुझे दुख है... मैं कभी नहीं चाहती कि आप और उनके बीच खाई बने... वे इस समय कहाँ हैं, मुझे कुछ नहीं मालूम। मैं बहुत अभागिनी हूँ। बचपन ही में माँ-बाप का साया सिर से उठ गया... इसके बाद जहाँ भी गई दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा.. मैं आपके चरणों की सौगन्घ खा कर कहती हूँ, आप और उनके बीच कभी नहीं आऊँगी..” दीदी का स्वर भीगा हुआ लेकिन अविचलित था।
“बात ये है बेटी.. तुम बंगाली लोग.. हम बुन्देलखण्डी क्षत्री। हमारे-तुम्हारे बीच शादी विवाह कैसे बन सकता है। इसके अलावा मेरे अगर सिर्फ जितेन्द्र होता तो भी कोई बात नहीं। उसकी एक बहिन भी है। उसे कहाँ डालेंगे?”
“आप विश्वास रखें माता जी।” दीदी ने दुहराया था।
माता जी उन्हें हमारे कुल-देवता मुरलीमनोहर जी के मन्दिर में ले गई थीं- “वह बात यहाँ भी कह दो तो विश्वास हो जायेगा।”
“मैं भगवान को साक्षी बना कर कहती हूँ कि आप दोनों के बीच कभी नहीं आऊँगी।” दीदी ने अविचलित स्वर में कहा और जैसी आयी थीं, वैसी ही चली गयी थीं।
दूसरे दिन विद्यालय गई तो दीदी ने बड़े के नाम एक लिफाफा दिया था। बड़े के लिये अपना पहला और अन्तिम पत्र। और रात को सदा के लिये हमारा शहर छोड़ दिया था।
कुछ दिन बाद जीवन में हर तरफ से लुटे हुए से बड़े लौटे थे। दीदी का पत्र सौंपने पर उनकी निर्जीव आँखों में अजीब सी दीप्ति कौंधी थी। अगले दिन वे उम्मीद के खिलाफ बहुत शान्त थे। उन्होंने माता जी को विवाह की स्वीकृति दे दी थी। इसके साथ ही कल्याणी दी का चित्र जिसे वे अपनी पढ़ने की टेबल पर सजाये रखते थे, वहाँ से हट कर आलमारी में पहुँच गया था।
एक दिन धूम-धाम और भरपूर दहेज के साथ भाभी दुल्हन बन कर हमारे बँगले में आ गई थीं.. एक दिन वह भी आया, जब क्रोध से थरथराती भाभी ने कल्याणी दी का चित्र चूल्हे में झोंक दिया था और सारा घर सिर पर उठा लिया था। बड़े मूर्ति की तरह पथराये-से चुपचाप देखते रहे थे। अगले वर्ष इस अपराध-बोध के साथ कि बड़े के साथ अन्याय हुआ है, माता जी संसार से विदा हो गई थीं। रह गया था हम तीनों के बीच दिन-ब-दिन गहराता हुआ सन्नाटा।
...
वसन्त की साँझ गहराने लगती है। हवा में आम के बौर और फूलों की गन्ध है, बजरी के रास्तों पर पतझर के टूटे पत्तों का ढेर। भाभी के गहरे मेक-अप और पिता के घर से मिले आभूषणों से दीप्त चेहरे पर ईष्र्या भरा व्यंग्य है। बड़े हमेशा की तरह शान्त हैं। मैं उद्विग्न हूँ.. तभी गेट से एक रिक्शा अन्दर आता दिखता है। हाँ... कल्याणी दी हैं। हम सब स्वागत के लिये आगे बढ़ते हैं।
“ये शुभा है, बड़ी हो गई है। ये शुभा की भाभी निर्मला.. ये गुड्डी, हमारी बेटी..” बड़े परिचय कराते हैं। निमेष भर के लिये उनकी आँखें कल्याणी दी से मिलती हैं, फिर जैसे सायास एक-दूसरे को अनदेखा करने लगते हैं।
दीदी मेरे सिर पर हाथ फेरती हैं, गुड्डी के गाल चूमती हैं, भाभी से गले मिलती हैं।
“कैसी हो बहिन?” दीदी निश्छल भाव से पूछती हैं।
“आपकी दुआ है। आपकी तारीफ सुनी थी, दर्शन का सौभाग्य आज मिला।” भाभी भरसक नम्र होने की कोशिश करती हैं, लेकिन उनका दर्प और ईष्र्या छिपाये नहीं छिपती।
निमेष भर के लिये दीदी का चेहरा विवर्ण हो उठता है। अगले ही क्षण वे अपने को सँभाल लेती हैं।
कहाँ बदली हैं कल्याणी दी?... मैं अपने से कहती हूँ- वही शुभ्र वसन, पैरों में सुर्ख चप्पल, वही अनिद्य देहयष्टि, आँखों में वही शान्त झील सी रहस्यमयता, जूड़े में रजनीगन्धा के फूल। लगता है, जैसे आठ वर्षों का अन्तराल दीदी ने मात्र आठ दिन में ही बिला डाला हो।
“कलकत्ता में क्या करती हैं दीदी?” मैं पूछ लेती हूँ।
“वही, जो यहाँ करती थी। एक संगीत विद्यालय चलाती हूँ।” दीदी प्रसन्नभाव से कहती हैं। मुझे बड़े के जीवन में हमेशा के लिये डेरा डाल लेने वाली उदासी का ख्याल आता है। दीदी स्वार्थी लगने लगती हैं।
“यहाँ एक नीम का पेड़ था?” दीदी याद करती हुई कहती हैं।
“पिछले साल सूख गया था सो कटवा दिया।” उत्तर बड़े देते हैं।
घूमते हुए हम बड़े की स्टडी की खिड़की के पास आ जाते हैं।
“मुझे रजनीगन्धा बहुत पसन्द है।” दीदी मुग्ध भाव से कहती हैं।
“मुझे बिल्कुल नहीं।” भाभी विद्रूप से कहती हैं, “इसकी गन्ध से मितली आने लगती है।”
“अरे...” दीदी मृदु भाव से कहती हैं और आगे बढ़ कर बजरी पर बिखरे फूलों को अँजुरी में बटोरने लगती हैं।
दीदी की माँग में सिन्दूर नहीं है। पहले की तरह घनी केशराशि के बीच सफेद माँग चमकती है। लेकिन गले में मंगलसूत्र? दीदी ने विवाह किया या नहीं? शायद यही प्रश्न बड़े को भी मथ रहा है। नहीं, मैं गलत हूँ। बड़े के चेहरे पर कोई उद्विग्नता नहीं।
“एक बात तो बताओ बहिन, विवाह किया या नहीं?..” भाभी से रहा नहीं जाता।
“विवाह... वह तो यहीं हो गया था।” भाभी के द्वेष को दरकिनार करती हुई दीदी मुक्त भाव से मुस्कराती हैं।
“दीदी!...” मैं चैंकती हूँ।
“हो गया था शुभा। तुम्हें याद नहीं। गन्धर्व-विवाह।” दीदी गम्भीरता से कहती हैं।
बड़े पहली बार विचलित दिखते हैं। मैं अन्दर से अशान्त हो उठी हूँ। सबसे आश्वस्त दिखती हैं भाभी, जो कुछ नहीं समझतीं।
कुछ देर बाद दीदी जाने लगती हैं। गर्विता भाभी वहीं खड़ी रहती हैं। मैं और बड़े उन्हें छोड़ने के लिये गेट तक जाते हैं। मुझे अचरज होता है- बड़े या दीदी के मन में एक-दूसरे के लिये कुछ नहीं ! कुछ देर बाद दीदी चली जायेंगी। फिर कब आयेंगी, क्या पता? मेरी आँखें भीगने लगती हैं।
बड़े सड़क से गुजरते हुए एक रिक्शे को रोकते हैं।
“चलूँ ?..” दीदी पहली बार सीधे बड़े को सम्बोधित करती हैं। इतनी देर के मौन संभाषण के बाद ढाई आखर का एक शब्द।
“अच्छा...” कोशिश के बावजूद बड़े का स्वर भर्रा जाता है।
दीदी झुक कर बड़े की चरण-धूलि अपनी माँग से लगाती हैं, बड़े काँपती उँगलियों से उनके जूड़े की रजनीगन्धा की माला को सहलाते हैं। मुझे लगता है, अब वह चरम क्षण आ गया है, जब बड़े का सारा संयम, सारा धैर्य बाँध तोड़ कर बह निकलेगा। लेकिन दीदी इसका मौका नहीं देतीं। वे फुर्ती से आगे बढ़ कर मेरे गाल थपथपाती हैं और रिक्शे में बैठ जाती हैं। सुनसान सड़क पर जाता हुआ रिक्शा धीरे-धीरे हमसे दूर होने लगता है...
गहराते अन्धकार में, दूर पश्चिमी क्षितिज पर संध्या-तारा उग आता है। खाली-खाली दृष्टि से उस ओर देखते हुए बड़े कुर्ते की आस्तीन से अपना चेहरा पोंछते हैं- संज्ञाशून्य-से, हतप्रभ।
बड़े हमेशा मेरे लिये कुछ-कुछ रहस्यमय रहे हैं। लेकिन इस वक्त मैं साफ-साफ जानती हूँ कि वे लौट कर क्या करेंगे- अपनी स्टडी में बन्द होकर दीदी का पत्र पढ़ेंगे। दीदी का पहला और अन्तिम पत्र, जो आठ वर्ष पूर्व वे मुझे बड़े को देने के लिये सौंप गई थीं।
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वल्लभ सिद्धार्थ
जन्म: 1 अप्रैल 1937 को मऊरानीपुर (झाँसी) में।
शिक्षा: इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम0 ए0।
प्रकाशन: 1965 से 1995 तक सभी स्तरीय पत्रिकाओं में लगभग 150 कहानियाँ प्रकाशित. सभी प्रादेशिक भाषाओं, अँगे्रजी व जापानी में कहानियों के अनुवाद. 1996 से विश्व के क्लासिक का हिंदी अनुवाद.
कहानी संग्रह: महापुरुषों की वापसी, शेष प्रसंग, नित्य प्रलय, ब्लैक आउट, दूसरे किनारे पर, वल्लभ सिद्धार्थ की पारिवारिक कहानियाँ।
उपन्यास: कठघरे।
विविध: महाभारत के पात्रों का अंतर्मन, ताकि सनद रहे (ऐतिहासिक संस्मरण) तथा संवाद अनायास (साहित्यिक विमर्श)।
क्लासिक अनुदित पुस्तकें: तीन महान ग्रीक त्रासिदियाँ (नाटक), काफ्का से संवाद, दण्डदीप में (काफ्का की तीन लंबी कहानियाँ), जलपरी (पुश्किन का नाटक), पुश्किन की जीवनी (हेनरी त्रोएत), कप्तान की बेटी (पुश्किन का उपन्यास), दोस्तोएवस्की की जीवनी (हेनरी त्रोएत), हमशक्ल, एक हिमपात की कहानी (दोस्तोएवस्की के उपन्यास), युद्ध और शान्ति (तालस्तोय), अन्ना केरीनिना (तोलस्तोय), मृतात्माएँ (गोगोल), गोदो का इन्तजार (नोबेल प्राइज प्राप्त सेम्युअल बैकेट का नाटक), मक्खियाँ (ज्याँ पाल सात्र्र का नोबेल प्राइज घोषित नाटक, जिसे महान सात्र्र ने अपने विश्वासों के कारण अस्वीकार कर दिया.), आत्मा और कँटीले तारों का घेरा (अलेक्जंडर सोल्ज़ेनिस्तिन), इलियाड (ग्रीक, होमर), डिवाइन कामेडी (इैलियन, दाँते), नवजीवन (दाँते), दाँते की जीविनी (वाकेसियो), द एडल्ट (रूसी, दोस्तोएवस्की), प्रेत (इव्सन), द आउटसाइडर (अल्बर्ट कामू), चेखव की श्रेष्ठ कहानियाँ, पुनर्जीवन और दाँते की जीवन-कथा (दाँते एलिगिरी) आदि।
अनुदित पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य: अमेडी (एब्सर्ड नाटक, आयोनेस्का)े, आला अफसर (नाटक, गोगोल), न भूतो न भविष्यति (सोल्झेनित्सिन), द ब्रदर्स (दोस्तोएवस्की), चंगेज़ खान (वेजली यान)।
संपर्क: दमेले काॅलेज मार्ग, मऊरानीपुर- 284204 (जिला-झाँसी) उ0प्र0 मोबाइल: 07607038562