कहानी-'कापर ब्राउन'

आॅटो वाले ने जब मुझे नई दिल्ली स्टेशन के बाहर छोड़ा तो घड़ी शाम के चार बजा रही थी। अन्दर यानि प्लेटफाॅर्म पर जाने के लिए लम्बी कतारें लगी थी और वह भी एक-दो नहीं; तीन-चार कतारें। त्योहरों के मौसम में, विशेष कर बिहार, बंगाल और उत्तरप्रदेश के राज्यों में त्योहार हो तो प्रायः ऐसी कतारें लगा ही करती हैं। मेरी गाड़ी में अभी बहुत देर थी फिर भी मैंने निश्चय किया कि अन्दर प्लेटफाॅर्म पर पहुँच कर ही गाड़ी की प्रतीक्षा करना ठीक रहेगा। करीब एक घंटे बाद मैं सुरक्षाकर्मियों के जाँच के घेरे से मुक्त हो पाया। सामने के बड़े डिसप्ले बोर्ड पर कई बार नज़र दौड़ायी परन्तु वहाँ मगध एक्सप्रेस के विषय में कोई भी जानकरी नहीं उपलब्ध थी। पूछताछ की खिड़की पर फिर से खड़ा होना पड़ा। दस-पन्द्र मिनटों बाद मेरी बारी आई। पूछने पर पता चला कि पटना जाने वाली मगध एक्सप्रेस के जाने के समय का निर्धारण अभी नहीं किया गया था। मैंने इसका कारण जानना चाहा तो खिड़की पर बैठा कर्मचारी कुछ झल्ला सा गया परन्तु जब मैंने विनम्रतापूर्वक पुनः जानना चाहा तो उसने बताया कि गाड़ी विलम्ब से कुछ ही देर पहले आई थी और इसलिए उसके खुलने के समय का निर्धारण अभी नहीं किया गया था।
 मैं प्लेटफाॅर्म संख्या सोलह पर चला आया क्योंकि मुझे पता था कि मगध एक्सप्रेस प्रायः उसी प्लेटफाॅर्म से जाती है। चाय के स्टाॅल से मैंने चाय ले ली और की जा रही उदघोषणाओं को ध्यानपूर्वक सुनने का प्रयास करने लगा। इधर से उधर घूम कर और पत्रिकाओं के स्टाॅल पर खड़े हो कर करीब एक घंटे का समय मैंने किसी तरह गुजार दिया। प्लेटफाॅर्म पर संपूर्णक्रांति एक्सप्रेस लगायी जा रही थी। यह गाड़ी भी विलम्ब से आयी थी और अब इसके खुलने का समय शाम के साढ़े छह बजे तय किया गया था। तभी उदघोषणा हुई कि मगध एक्सप्रेस के खुलने का समय रात ग्यारह बज कर तीस मिनट निर्धारित किया गया है।
 अब मेरे लिए सबसे बड़ी समस्या यह थी कि पाँच घंटे से ऊपर का समय कैसे गुजारा जाए ? प्लेटफॅार्म के एक छोर से दूसरे छोर तक मैंने दो चक्कर लगाए। अभी प्लेटफाॅर्म पर भीड़ ज़्यादा न थी और पूर्वी छोर पर बैठने के लिए कुछ बेन्च अभी भी खाली थे। वैसे भीड़ का क्या, जैसे ही किसी टेªन का समय होगा भीड़ आ जुटेगी। मैंने सोचा कि पहले कुछ खा-पी लूँ और फिर बैठ कर टेªन की प्रतीक्षा की जाए। कुछ समय और गुजरा और इस बीच संपूर्णक्रांति एक्सप्रेस जा चुकी थी। समय गुजारने के लिए मैंने दो पत्रिकाएँ खरीद लीं। त्योहारों के भीड़ को ध्यान में रख कर मेरे पुत्र ने मेरा आरक्षण वातानुकूलित डब्बे में कई महीने पहले करवा दिया था। पता चला कि ये डब्बेे वी. आई. पी. गेट से आगे लगेंगे इसलिए मैं प्लेटफाॅर्म के पूर्वी छोर पर चला आया। इस बीच खाली पड़ी हुई बेन्चों पर लोग बैठ चुके थे। बेन्चों की पंक्तियाँ समाप्त हो गई और मुझे एक खंभे के नीचे सीमेंट का चबूतरानुमा स्थान खाली मिला। एक आदमी के बैठने के लिए यह स्थान पर्याप्त था। मैं बैठ गया, सामने लगी घड़ी लााल रंग की रोशनी बिखेरती सात बजा रही थी और अन्धेरा अपने पांव पसारने लगा था।
 मैं पत्रिका को उलट-पुलट कर देखने लगा और फिर एक आलेख को पढ़ने लगा। . . . .मैं उसमें खोया था कि मेरी तंद्रा टूटी - सामने एक लड़की हाथ फैलाए भीख मांग रही थी। उसकी उम्र दस वर्ष के लगभग रही होगी। उसने ऊपर एक मैला-कुचैला कुर्ता सा पहना रखा था और नीचे फटा हुआ सलवारनुमा पहनावा था। इस सलवार की एक टांग फटी हुई थी, उसे बीच से सिल दिया गया था जिसके कारण वह पैर छोटा हो गया था और घुटने तक ही आ रहा था। उसका चेहरा और हाथ-पैर चमक रहे थे। ऐसा लग रहा था कि उसने तेल लगा रखा है। सभवतः यह चमक उसके गोल-मटोल होने के कारण थी। उसके बाल रूखे और बिखरे हुए थे और उनमें कई दिनों से न तो तेल डाला गया था और न ही उनमें कंघी की गई थी। उसका रंग तांबे के उस पात्र सा तांबई था जिसे कई दिनों से साफ नहीं किया हो। इसपर भी मुझे उसके चेहरे पर मासूम बचपन की अनोखी चमक दिखाई पड़ी। मैं प्रायः भीख नहीं दिया करता और इसी आदतवश मैंने उसे लगभग झिड़क दिया। वह सहम कर हट तो गई परन्तु मेरा हृदय और दिमाग दोनों उस पर ही आ टिके। पत्रिका और उसमें छपे आलेख से मेरा ध्यान एकदम से हट गया 
 और मेरी नज़रें उसी का पीछा करती रहीं। मेरे हृदय ने कहा - उसे इतने ज़ोर से झिड़कने की आवश्यकता नहीं थी। मेरे मन में अन्दर से एक शब्द उभरा -‘‘काॅपर ब्राउन’’। उसके लिए मेरे मन से अनायास ही निकल कर सामने आया यह आधुनिक और अंग्रेजी शब्द, उस अनजान का नाम बन गया। मैंने फिर से पत्रिका में छपे आलेख पर ध्यान देना चाहा परन्तु यह संभव नहीं हो पाया। बहुत यत्न कर के भी जब मैं आलेख पर स्वयं को केन्द्रित न कर पाया तो पत्रिका को बैग के अन्दर डाल दिया। भीख मांगने वाली वह लड़की प्लेटफॅार्म पर खड़े लोगों के सामने हाथ फैला रही थी और मेरी नज़रें उसका पीछा कर रहीं थी, उसमें कुछ पढ़ने का प्रयत्न कर रही थीं। दो यात्री कुछ दूर खड़े हो कर बातें कर रहे थे -
 ‘‘बताइए ! देश की राजधानी है और इतने महत्त्वपूर्ण स्थान पर भीखमंगे ? ये अन्दर कैसे चले आए; अपने आप में यही एक बहुत बड़ा प्रश्न है। यही हमारी सुरक्षा व्यवस्था है, क्या इनके वेश में कोई असामाजिक तत्व या अन्य कोई नहीं आ सकता ?’’
 ‘‘हाँ, देखते जाइए। . . . . यही तो व्यवस्था है ? इस तरह तो कोई भी असामाजिक तत्व या आतंकवादी भी अन्दर आ सकता है। यात्रियों की जाँच के लिए कतारें लगती हैं और उनकी गहन जाँच की जाती है। मुझे तो समझ नहीं आता कि ऐसे लोग कैसे अन्दर आ जाते हैं ?’’
 ‘‘दूसरे स्थानों को छोड़ भी दें तो कम से कम यहाँ तो इन्हें नहीं ही दिखना चाहिए। मुझे लगता है ये लोग रेलवे लाइन पर चलते हुए आ जाते हैं।’’
 ‘‘अरे भाई, यह प्लेटफाॅर्म संख्या सोलह है, इस पर किसी को ध्यान देने की क्या आवश्यकता ? यहाँ से बिहार के लिए टेªनें खुलती हैं न !’’
 ‘‘ठीक कहते हैं और उस पर सा ऽ . . . . सब कहेंगे कि ये भीखमंगे वहीं के होंगे।’’ - दूसरे ने गाली निकालते हुए कहा।
 ‘‘. . . . जैसे कि बिहार देश के बाहर है ?’’
 ‘‘अपनी कमी को छिपाने के लिए दूसरों की आड़ लेना कोई नई बात नहीं। वैसे इस प्लेटफाॅर्म से बंगाल, उत्तरप्रदेश, झारखंड और उड़ीसा आदि राज्यों के लिए भी तो गाड़ियाँ खुलती हैं।’’
 ‘‘अब तो उधर जाने वाली गाड़ियाँ के आनन्द बिहार स्टेशन से खुलने की बात है। सुनते हैं कि उधर जाने वाली गाड़ियाँ वहीं से खुला करेंगी।’’
 गाड़ियों के विलम्ब से चलने, डिब्बों और स्टेशनों में मिलने वाली सुविधाओं से ले कर अन्य कई विषयों पर वे चर्चा करते रहे। मैं उनकी बातें सुनता रहा और मेरे मन में बहुत से विचार आते-जाते रहे परन्तु मेरी नज़रें काॅपर ब्राउन पर ही थीं। काॅपर ब्राउन किसी से कुछ मिलने की आशा में यात्रियों के इर्द-गिर्द घूमती रही और उनके पास जा कर हाथ फैलाती रही परन्तु उसे अब तक कुछ भी नहीं मिला था। मेरा सारा ध्यान अब उसपर ही केन्द्रित हो चुका था। इस बीच वह वहाँ गई जहाँ पर एक स्त्री-पुरुष बैठे थे। मैं जहाँ बैठा था वहाँ से मेरे और उनके बीच की दूरी दस-पन्द्रह फीट से ज़्यादा नहीं थी।
 . . . . उद्घोषणा फिर से दुहरायी जा रही थी कि मगध एक्सप्रेस रात ग्यारह बज कर तीस मिनट पर खुलेगी। मैंने घड़ी को देखा - घड़ी रात के आठ बजा रही थी। जिस स्त्री-पुरुष के पास काॅपर ब्राउन पहुँची वे ज़मीन पर बैठे थे। स्त्री की गोद में छोटा बच्चा था जो मुश्किल से बीस-पच्चीस दिनों का लग रहा था। काॅपर ब्राउन ने बच्चे को दुलारा और वहीं बैठ गई। . . . तो यह बच्चा इसका भाई है !. . . . वह उसे बाबू-बाबू कह कर दुलारने-पुचकारने लगी। औरत जो उसकी माँ थी; उसने फटी, मैली-कुचैली गुदरीनुमा साड़ी पहन रखी थी। स्त्री का शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र था। पास बैठे पुरुष की भी लगभग वही स्थिति थी। उसकी दाढ़ी बेतरतीब बढ़ी हुई थी और शरीर पर बेहद गंदे तथा फटे कपड़े थे। गोद में रो रहा बालक गुदरी में लिपटा था। उनके पास पलास्टिक का एक बड़ा सा बोरा था। संभवतः उसी बोरे में उनका सामान था। निश्चय ही वह पुरुष काॅपर ब्राउन और उस बच्चे का पिता और उस स्त्री का पति था। जैसे ही कोई यात्री इस तरफ़ आता, वह स्त्री उसे इशारा करती और काॅपर ब्राउन उससे कुछ पाने की आशा में उसके पास दौड़ जाती। प्लेटफाॅर्म पर कोई टेªन लगाई जा रही थी और इसलिए मेरा ध्यान कुछ देर के लिए उधर चला गया। यह कोई लोकल गाड़ी थी और कुछ ही देर में प्लेटफाॅर्म पर खड़ी भीड़ के एक बड़े हिस्से को ले कर वह टेªन चली गई। थोड़ी देर में भीड़ छँटी तो मेरी नज़र फिर से काॅपर ब्राउन पर पड़ी - 
 . . . वह एक तरफ़ से आ रही थी। वह अपनी माँ के पास जा बैठी। मेरा चोर मन उनकी बातें सुनने को ललायित हो उठा। मैंने अपने चबूतरे पर सरक कर अपने और उनके बीच की दूरी और कम कर ली ताकि मैं उनकी बातें सुन सकूँ। . . . .उसे भीख में कुछ मिला था और वे आपस में बातें कर रहे थे। मैंने अपने कान खड़े कर लिए - अबतक उसे भीख में दो ही रुपए मिल सके थे। स्त्री का कहना था कि वह सुबह से भूखी थी और उसने कुछ खाया नहीं तो फिर दूध नहीं उतरेगा। . . . . बच्चे को भूख लग रही है तब उसे क्या पिलाया जाएगा ? उसका परिवार अपने पास के रुपयों और सिक्कों को निकाल रहा था। वे उसे गिन रहे थे - कुल मिला कर पाँच ही रुपए थे। वे आपस में बातें कर रहे थे -
 ‘‘. . . . इतने में एक कप चाय ही आ सकेगी। और कुछ नहीं मिल पाया तो . . .?’’- पुरुष उठने को उद्धत हुआ - ‘
 ‘मैं . . जाता हूँ . . . शायद कुछ मिल जाए।’’
 ‘‘जब बच्चे को ही कुछ नहीं मिल सका तो . . . . ?’’- स्त्री ने उसे रोक दिया . . .‘‘आजकल लोग भीख नहीं देते। मैं ही . . जाती हूँ। बच्चे को देख कर शायद कोई कुछ दे ही दे।’’
 स्त्री अपने नवजात बच्चे के साथ लोगों के सामने हाथ फैलाने लगी। कुछ मुँह फेर लेते, कुछ कहते जाओ आगे बढ़ो। कुछ कहते - यह इनका पुराना धंधा है, ये लोग अपना पेट नहीं पाल सकते, . . . और उसपर बच्चा पैदा करना ! वह दोनों व्यक्तियों के पास भी गई जिसके पास पहले काॅपर ब्राउन जा चुकी थी। दोनों ने उसे झिड़क कर भगाया और फिर से आपस में बातें करने लगे -
 ‘‘बताइए ! . . . .धंधा बना रखा है, इन लोगों ने। सब मिल कर भीख मांगेंगे . . . ., अपना पेट नहीं भरता और अब सामने बच्चा . . .?’’
 बोलने वाले के स्वरों में घृणा थी और उसने वाक्य को अधूरा छोड़ दिया। दूसरे ने भी यह कहते हुए उसका समर्थन किया कि भीख देना, इस वृति को बढ़ावा देना है। मैं उनकी बातों पर मन ही मन विचार करने लगा - इनकी बातें सही ही तो हैं। . . . . लेकिन मनुष्य काम करने में समर्थ न हो, अपंग हो तब ? . . . परिस्थितियाँ भी तो कभी विवश कर देती हैं। सरकारी तंत्रों द्वारा इनके लिए व्यवस्था तो की जाती है परन्तु वे कितनी सार्थक हैं यह तो स्पष्ट ही हैं। . . . वह मेरे पास भी आयी और मैंने यंत्रवत उसे किसी और के पास जाने का संकेत किया। . . . यदि यह गलत है तो धार्मिक संस्थाओं के नाम पर दान अथवा दान-पात्र में दान दे कर निकलते लोग और . . बाहर खड़े भीख मांगने वालों की भीड़ ? दान और भीख दोनों ही तो अपनी इच्छा से दिए जाते हैं। दान से भी पेट भरता है और भीख से भी तो फिर लोग भीख देना क्यों पसन्द नहीं करते . . . .? मैं निश्चय नहीं कर पा रहा था कि क्या सही है और क्या गलत ?
 एकबार फिर से उद्घोषणाएँ दुहरायी गई और मेरे विचारों का क्रम टूट गया। . . . . वह स्त्री लौट आयी थी  और बैठी हुई हाँफ सी रही थी। उसे कुछ नहीं मिला था और उसकी गोद में पड़े बच्चे की रूलाई बढ़ गई थी। पुरुष उठ कर एक ओर चला गया। स्त्री ने गट्ठरी में से कुछ खाने के लिए निकाला। उसने काॅपर ब्राउन को उसे खा लेने के लिए कहा। काॅपर ब्राउन ने अपने पेट पर हाथ को फिरा कर संकेत किया कि उसका पेट भरा है। स्त्री ने कागज़ के टुकड़े को खोला, उसमें रोटी का एक टुकड़ा था। उसने उसे खा लिया और कागज़ के उस टुकड़े को मरोड़ कर एक तरफ़ फेंक दिया। बच्चे को अपने आंचल में छिपा कर वह उसे दूध पिलाने का यत्न काने लगी। संभवतः दूध नहीं था, बच्चे को कुछ नहीं मिल पा रहा था और इसलिए वह रोता रहा। स्त्री बड़बड़ाती रही . . . खाने को कुछ नहीं 
बचा . . , आजकल कोई कुछ नहीं देता। पहले लोग बच्चे को देख कर तरस खा कर कुछ दे देते थे . . ., तभी पुरुष लौट आया, उसके हाथों में चाय का कप था। स्त्री ने उसमें अपनी उंगली डाल कर इस बात का अनुमान लगाया कि चाय कितनी गर्म है ? पलास्टिक के एक चम्मच से वह बच्चे को चाय पिलाने लगी और बच्चा रोता रहा। उधर . . . .वे दोनों बातें कर रहे थे। उनमें से एक अपने टूरिस्टर पर बैठ चुका था - 
 ‘‘समय बदल गया है, अब तो भीख देते हुए भी डर लगता है।’’  
 ‘‘हाँ भाई, क्या पता भिखारी के वेश में चोर बदमाश ही हो। . . . सारी गाड़ियाँ लेट हैं, पता नहीं क्यों ? . . . .जाड़े के दिनों में तो कुहासा रहता है इसके कारण गाड़ियाँ लेट रहती हैं परन्तु अभी क्या है, कौन सी समस्या है कुछ समझ में ही नहीं आता।’’- एक ने कहा। 
 ‘‘कोई गाड़ी की घोषणा हुई ? . . . . लगता है अपनी . . .ही टेªन का एनाउन्समेन्ट है।’’
 एनाउन्समेन्ट फिर से दुहराया गया 12418 डाउन प्रयागराज . . . .सोलह पर . . . . 
 ‘‘हाँ-हाँ, प्रयागराज का ही है। . . .चलिए अब चढ़ कर प्रेम से सो जाना है, सुबह होते पहुँच जाएँगे। खड़े-खड़े थकान हो गई।’’
 ‘‘बैठने के लिए भी तो ढंग की जगह नहीं है। रात के सवा दस बज रहे हैं और प्लेटफाॅर्म पर अभी भी इतने लोग नज़र आ रहे हैं।’’
 ‘‘इसी से भीड़ जाएगी, जितने लोकल हैं या बचे हुए हैं, सब निकल लेंगे क्योंकि इसके बाद तो मगध ही है।’’
 ‘‘हाँ, आप ठीक कह रहे हैं। मगध तो साढ़े ग्यारह में खुलेगी। वैसे उसका क्या ठिकाना; क्या पता और लेट हो जाए ? मगध तो हमेशा लेट ही चलती है।’’
 ‘‘नहीं, अब और लेट नहीं होगी। मैं तो आता-जाता रहता हूँ। महीने में दो बार तो आना-जाना है ही। या तो प्रयागराज पकड़ लूँ या मगध; जिसमें जगह मिल जाए।’’
 प्लेटफाॅर्म पर प्रयागराज एक्सप्रेस लगाई जा रही थी लोग अपने-अपने डिब्बों में चढ़ने के लिए दौड़-धूप करने लगे। मैं देख रहा था कि वे दोनों व्यक्ति भी अपना सामान उठा चुके थे और टेªन में चढ़ने के लिए प्रयत्नशील थे। एकाएक मेरा ध्यान इस भीड़ से हट कर काॅपर ब्राउन की तरफ़ गया - अरे यह क्या . . ., यह क्या कर रही है ! उसने ऊपर पहना कुर्ता उतार फेंका था उसके नीचे तार-तार फटी बनियान थी और गट्ठरी में से फटे तौलिए का टुकड़ा निकाल कर वह उसे लपेट रही थी। उसे किसी तरह लपेट कर उसने अपनी फटी सलवार उतार फेंकी। उसने तौलिए को क्यों लपेटा. . . ., सलवार से उसका शरीर . . . ., इससे ज़्यादा ढंका था ! मैं सोच ही रहा था और वह . . . .देखते-देखते भीड़ में खो गई। प्रयागराज गाड़ी प्लेटफाॅर्म पर खड़ी हो चुकी थी और लोग उसमें चढ़ रहे थेे। गाड़ी थोड़ी देर में खुली और चली गई। माइक पर एक बार फिर से घोषणा की जा रही थी कि अब मगध एक्सप्रेस लगायी जाएगी।
 बीस-पच्चीस मिनट और गुजर गए। काॅपर ब्राउन का कहीं पता न था। तभी घोषणा हुई कि मगध एक्सप्रेस थोड़ी ही देर में प्लेटफाॅर्म संख्या सोलह पर लगायी जा रही है . . । बैठे हुए लोग और उँघ रहे लोग सचेत हो गए। मैं भी उठ खड़ा हुआ तभी काॅपर ब्राउन आती हुई दिखायी पड़ी। अरे यह क्या . . . उसके कपड़े बदले चुके थे ! उसकी कमर में पुराना हाफ पैंट था जो काफी ढीला था और इसलिए उसने उसे तौलिए से कस कर बांध रखा था। ऊपर वाली फटी बनियान की जगह दूसरी बनियान थी जो कुछ नई सी थी और काफी ढीली भी थी। उसके कपड़ों से स्पष्ट था कि वे किसी पुरुष के थे। मेरी उत्सुकता अपने चरम पर जा पहुँची . . . .यह सब क्या है ? मेरा चोर मन बेचैन हो उठा। मैं कुछ कदम बढ़ा कर, लगभग उनके पास पहुँच कर, अनजान सा बन कर खड़ा हो गया ताकि मैं उनके बीच होने वाली बातें सुन सकूँ। मैं नज़रें चुरा कर कभी-कभी उनकी तरफ़ देख लेता ताकि उन्हंे मुझपर संदेह न हो कि मेरा ध्यान उनपर है परन्तु मेरे कान उनकी बातों पर ही लगे थे। मेरे उनके पास आ खड़े होने पर भी उन्हें कोई अन्तर नहीं पड़ा था। काॅपर ब्राउन अपने हाथों में कुछ बंडलनुमा ले कर आयी थी। वह बैठ गई और स्त्री यानि उसकी माँ ने उस बंडल को खोला - उसमें रोटियाँ थीं और सब्जी या फिर मांस के टुकड़े, . . . .पता नहीं। मैं उतनी दूर से देख नहीं पाया।
 ‘‘. . .. . . ?’’ - माँ की आँखों में प्रश्न था।
 मुझे लगा कि उसकी माँ यह जानना चाह रही है कि - उसे रोटियाँ किसने दीं ? काॅपर ब्राउन. . . .बता रही थी - वह कोई व्यक्ति था, उसी ने उसे रोटियाँ और साथ में मांस या सब्जी खरीद कर दीं थी। उसकी माँ ने कुछ पूछा जिसे मैं नहीं सुन पाया। उत्तर में उसने जो कहा, उसमें से एक ही शब्द मैं सुन पाया - ‘एक था . .।’ . . . . उसने पचास का एक नोट निकाल कर माँ की हाथों में रखा। पुरुष यानि पिता नोट ले कर यह कहता हुआ उठा खड़ा हुआ कि वह बच्चे के लिए दूध ले कर आ रहा है। मगध एक्सप्रेस के इंजन की रोशनी धीरे-धीरे पास आ रही थी। काॅपर ब्राउन और उसकी माँ . . . . . दोनों अपने मुँह में रोटियाँ ठूँसने लगीं। . . .ऐसा लग रहा था कि वे कई दिनों से भूखी थीं। . . .स्त्री की आँखों में बहुत से प्रश्न थे और काॅपर ब्राउन एक-एक कर उनका उत्तर दे रही थी। उनकी कुछ बातें आ रही गाड़ी की आवाज़ में विलीन हो जाती और कुछ मेरे कानों तक पहुँचती। मेरी दोनों कनपट्टियाँ गर्म थीं और ऐसा लग रहा था कि मेरे चारों तरफ़ पिघले, गर्म शीशे का अदृश्य आवरण था। ‘काॅपर ब्राउन’ मैंने मन ही मन अपने दिए इस नाम को दुहराया। सहसा ही मुझे याद आया कि ‘काॅपर ब्राउन’ तो लिपिस्टीक का शेड है।. . .  . . .लगा कि लिपिस्टीक पिघल गई है. और उसका का गाढ़ा रंग पसरने लगा है। उसने बताया. . . .वह कपड़ों में रोटियाँ बांध लायी . . .। उसने. . . .धीमे स्वर में कुछ कहा . . . .मेरे कान उसे सुन पाते, उससे पहले. . . .तेज़ आवाज़ के साथ मगध एक्सप्रेस धड़धड़ाती हुई प्लेटफाॅर्म पर ज़ोरों के ब्रेक की आवाज़ के साथ खड़ी हो गई।



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