बादलों से आच्छादित पश्चिम दिशा में सूर्य कब का डूब गया था। आसमान पर सेंदुरिया रंग पसरा हुआ था। मंथर गति से बह रही पुरबईया हवा आपनी तीब्रता बढ़ाने में लगी थी। इसी बीच बादलों से बूंदा-बांदी होने लगी। देखते-देखते जलपाईगुड़ी का पहाड़ी रास्ता सूनसान पड़ने लगा।सलमा अपने सौहर जमील की राह ताक रही थी। वह जूता-चप्पलों की फेरी करता था। सुबह साप्ताहिक हटिया करने के लिए निकला था, जो अभी तक लौटकर घर नहीं पहुंचा था। उसकी मोबाईल पर बार बार रिंग करने के बाद भी 'आउट ऑफ रेंज' की आवाज गूंज रही थी, जिससे सलमा को मोबाइल के प्रति खीझ बढ़ती जा रही थी,उसके मन ने कहा कि जब मुसीबत में मोबाइल काम न आ सके तो यह झुनझुना किस काम का! एक तो जाड़े का मौसम, दूसरे हड्डी गला देने वाली ठंडी हवा। तीसरे घर में खाना बनाने के लिए अन्न का एक दाना नहीं, चौथी समस्या भी मुंह बाये खड़ी थी, चूल्हा जलाने के लिए जलावन की लकड़ी भी नदारद थी। आखिर खाना बने तो बने कैसे! कई बार रसोई गैस सिलेंडर लाने को उसने अपने पति से कहा था, किंतु वह आर्थिक तंगी का हवाला देकर उसकी मांग को ठुकरा देता। जाड़ा-पाला के डर से उसके बच्चे एक कोना में दुबके हुए थे। जबकि भूख से उनके पेट की अंतड़ियां बिलबिला रही थी।'अम्मां, अब्बाजान कब अइहें? जोर से भूख लागल बा, कुछो खाये के दे ना। ' सलमा की तीन वर्षीय बेटी गुनो बोल पड़ी।
'चुप रहो, देखती नहीं कि मौसम कितना खराब है। पता नहीं अब्बाजान कहां होंगे और तुम्हें भूख की पड़ी है !' इस बार सलमा
का पांच साल का बेटा छोटकू अपनी छोटी बहन गुनो को झिड़की देते हुए डांटा।' इस ठंड में कहां होंगे, मुझे सब पता है। जूता- चप्पल जो बेचे होंगे, उसका पैसा लेकर कहीं शराब खाना में बैठे-बैठे दारू सुरुकत रहे होंगे। कुछ पैसा बचा होगा तो उसे लेकर कल्लू के जुआ अड्डा पर जमल होंगे। सौ का दो सौ..., पांच सौ का एक हजार बनाने में बाझल होंगे। संयोग से कहीं जीत गये होंगे तो मस्त हाथी की तरह झूमते हुए अलीपुर द्वार पहुंचे होंगे, जहां मेरी सौतनें माजा लेने के लिए उनकी राह निहार रही होंगी!' अगर कहीं जुआ में हार गये होंगे तो किसी भगेड़ू सिपाही की तरह मुंह तोपले घर आने की जगह किसी मोरी में मुंह के बल लुढ़के होंगे।' अपने पुत्र छोटकू की बातें सुनते ही सलमा का पारा चढ़ गया। वह अपने सौहर के चरित्र के बारे में सोचने लगी। सोचते-सोचते उसे अपने भाग्य पर रोना आ गया।
' अम्मीजान, खाये के द ना, बड़ा जोर से भूख लागल बा। ' गुनों ने प्यार से अपनी मां से खाना देने की गुहार लगाई।'ठहरो, बाहर झांक कर देखती हूं, अगर कोई जान-पहचान का मिल गया तो पता करती हूं कि तुम्हारे अब्बा कब तक घर लौटेंगे। 'इतना बोलकर सलमा दरवाजे की ओर बढ़ गई।उसने जैसे ही दरवाजा खोला, हवा के तेज झोंकों के साथ वर्षा का पानी अंदर तक घूस आया। उसके माथा के ऊपर से शॉल उड़कर कंधा के नीचे लटक गया। वह अपने देह को संभालते हुए शॉल को ठीक किया और दरवाजा से बाहर सिर निकालकर आने -जाने वाले लोगों की टोह लेने लगी।रास्ता बिल्कुल सूनसान पड़ गया था। मारे ठंड के लोग जल्दी जल्दी अपने घर भागते जा रहे थे। लेकिन कोई जान पहचान का नहीं मिला। दरवाजा पर खड़े-खड़े उसका पूरा माथा भींग गया और उसका देह थर्र-थर्र कांपने लगा। उसने अपनी नजरें आसमान की ओर उठाई, मौसम का मिजाज बहुत खराब था। लग रहा था कि अब ओला-वृष्टि होगी। उसके मुंह से निकल पड़ा,' या खुदा पाक परवर दिगार, हम गरीबों पर रहम कर !'
उसने झट से दरवाजे को अंदर से झिटकनी लगाकर बंद कर दिया। बंद कमरे में थोड़ी राहत तो जरूर मिली, लेकिन जब
उसका आदमी घर से बाहर था तो उसे चैन कहां ! सलमा के मानस पटल पर जमील की भूली बिसरी तस्वीरें उभरने लगी थी।
जमील चाहे जैसा भी था, वह उसका मरद था। वह सलमा से बेहद प्यार करता था। झगड़े किसके घर में नहीं होते हैं। दोनों
प्राणी उससे अछूता थोड़े थे, लेकिन दिन की थकावट मिटाने जब वे रात में एक ही खाट पर सोते तो दिन का सारा खटास धूलकर खाटी स्नेह और प्यार में बदल जाता था। पूरी रात ख्वाबों की दुनिया में सैर करते बीत जाती। जवानी के बीते खूबसूरत लम्हें किताब के पन्नों की तरह पलने लगते थे।19 वर्षीय शालिनी छह भाई बहनों में तीन नंबर पर मांझिल थी। उससे छोटा तीन भाई थे, जबकि उससे बड़ी दो बहनें थी. जिनकी शादी पूर्व में हो चुकी थी। जहां-तहां शालिनी की शादी की बात भी चल रही थी. क्योंकि वह खुद अपने पैरों पर खड़ी थी।उसकी नौकरी चाय बगान में लग गई थी। वह ज्यादा पढी -लिखी नहीं थी, बावजूद कुछ लइकें शालिनी से शादी करने के लिए तैयार थे। आदिवासी समाज में लड़कें नौकरी पेशा मेहरी को ज्यादा पसंद करते हैं।
होली का समय था। आदिवासी बस्ती में प्राकृतिक रंगों की चटक दिखने लगी थी। आदिवासी बालाएं फूलों के रंग में अपने तन
और मन को भिंगोने लगी थी। उनका स्लेटी रंग पर लाल,पीला हरा,बैगनी रंग अपना प्रभाव जमाने लगा था। चाय बगान का बोनस दुर्गा पूजा के बदले होली में मिला था, जिससे लोगों में काफी उमंग और उत्साह था। लोग होली की खरीदारी में व्यस्त थे। शालिनी भी अपने जरूरत की चींजें खरीदकर घर लौट रही थी, तभी उसे अपने लिए कोई सैडिंल खरीदने की इच्छा हुई। वह पास के शू स्टोर में घूस गई।
शू स्टोर के सामने मध्यम कद काठी का गोरा-नारा एक सुंदर युवक कुर्सी पर बैठा हुआ था, जो शालिनी को देखते ही उठकर खड़ा हो गया और अपने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए पूछा,' बोलिए, मैडम आपकी क्या सेवा करूं?'
युवक कुछ इस अंदाज में शालिनी को कोर्निश किया, जैसे वह किसी सर्कस का कलाकार हो। शालिनी उसकी इस अदा पर मर
मिटी और न चाहने के बाद भी उसके चेहरे पर विचित्र मुस्कान कीफूलझड़ी फूट पड़ी।
' लेडिंज सैंडिल चाहिए!' उसने छोटा सा उत्तर दिया और खाली टूल पर बैठ गई।
युवक ने अपने शो रूम से एक जोड़ी सैंडिल निकला और अपने फूल
पैंट पर रगड़कर उसे चमकाया, उसके बाद शालिनी के पैर के पास
बैठकर पहनाने लगा, जैसे कोई पुजारी अपने इष्ट देव के चरणों में
फूल चढ़ाता हो। सैंडिल पहनाने के बाद उसने कहा, ' सैंडिल तो
आपके पैर में खूब फब रही है। '
इतना बोलकर युवक शालिनी के चेहरे की ओर देखने
लगा। उजर धपधप साड़ी में लिपटी शालिनी का छरहरा बदन, तरासे
हुए काले हीरे के माफिक दमक रहा था। श्याम बरन चेहरे पर मोती
के सामान चमकती दंत पंक्तियां और कमल के फूल के समान
दोनों नैन, शालिनी के व्यक्तित्व में चार चांद लगा रहे थे।
शालिनी को अपने देह पर युवक की फिसलती नजरों का
आभास हुआ, अचानक यह देख उसका रोम-रोम सिहर उठा। तन
और मन रोमांचित हो उठा। वह मारे शर्म के लाल हो गई और
आपनी नजरें झुकाकर अंदर ही अंदर मुस्काने लगी।
दोनों में प्रेम का रोग ऐसा लगा कि वे अक्सर मिलने
का बहाना ढूढते रहते थे। फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग पर दोनों का
फेंक आइडी था। स्मार्ट फोन पर बातें करने से उनका मन अघाता
नहीं था। वे सोचते कि स्मार्ट फोन कंपनियां ऐसा तकनीक क्यों नहीं
इजाद कर रही है कि लड़का-लड़की मिलने की इच्छा प्रकट करे और
फोन का बटम दबाते ही वे सशरीर उड़कर किसी रमणिक स्थान चलें
जाएं. जहां मदहोशी में आलिंगनबद्ध होकर प्रेमालाप करे। जब उनके
परिजन खोज-खबर करे तो स्मार्ट फोन पर रेड सिंगल आ जाये,
ताकि प्रेमी जोड़ा वापस चलें जाएं। लेकिन उनका विचार ख्वाब के
सिवा और कुछ नहीं था। यथार्थ की ऊबर खाबर पत्थरीली जमीन पर
ख्वाबों का आईना गिरते ही चकनाचूर हो जाता है।
शालिनी जब भी बाजार जाती तो उसका एक पैर आजाद शू स्टोर
की ओर अचानक बहक जाता। उसे ऐसा लगता जैसे शू स्टोर में
कोई चीज खो गई हो। उसे ढूंढने के लिए उसका मन पागल हो
जाता। युवक से नजरें मिलते ही शालिनी के आकुल दिल को थोड़ी
राहत मिलती।
गुरुवार को बीड़पाड़ा बाजार में साप्ताहिक छुट्टी रहती। उस
दिन युवक भी फुर्सत में रहता था। वह शालिनी से मिलने के लिए
चाय बगान में चला जाता। उसके इंतजार में शालिनी भी व्यग्र
रहती थी। दोनों के मिलन के बाद जो बातों का सिलसिला शुरू होता,
वह खत्म होने का नाम नहीं लेता। दोनों के लिए समय वहीं थम
जाता। लेकिन किसी कारण जब तंद्रा भंग होती तो उन्हें वक्त का
ज्ञान होता। सांझ होते ही वे मन मसोस कर अपने-अपने घर चले
जाते।
दोनों के दिल में लगी आग तभी बुझी, जब आदिवासी बाला
शालिनी ने युवक जमील से निकाह पढ़ा लिया। अब वह शालिनी से
सलमा बन गई थी।
शालिनी के धर्म परिवर्तन से उसकी मां निर्मला मुंडाईन और
पिता दीनदयाल मुंडा काफी नाखुश थे। उन्होंने शालिनी से अपना
नाता-रिश्ता तोड़ लिया। लेकिन वह अपने पवित्र प्रेम पथ से
बिचलित नहीं हुई। मायके का आक्रोश जब उससे बर्दास्त नहीं हुआ
तो वह जमील के साथ भागकर असम चली गई, वहीं एक भाड़े के
मकान में रहने लगी। उसके सौहर जमील की शू स्टोर की नौकरी
भी छूट गई थी। वह जीविका चलाने के लिए जूते-चप्पलों की फेरी
करने लगा था।
जमील की बीवी बनते ही सलमा पर मुसीबतों का पहाड़
टूट पड़ा। उसके अपने खास लोग बेगाने हो गए थे। प्रेम में पागल
उसने अपने मर्द का एक रूप देखा था। लेकिन शादी के बाद पति
का दूसरा रूप भी सामने आ गया। जमील देखने में बाहर से जितना
सुंदर, सुशील और व्यवहारिक लगता था, उतना ही उसका अंत:करण
अवगुणों से भरा हुआ था। ताश और जुआ खेलना तो उसकी आदत
में सुमार था। जब वह शराब पीने बैठ जाता तो घर की चिंता से
बेफक्रि हो जाता। उसके बाल-बच्चे स्कूल जाएंगे या नहीं, उसे उसकी
जरा भी परवाह नहीं रहती थी।
सलमा अपने मर्द के दुर्गुणों से तंग आ गई थी। वह
जमील को समझाकर उसके बुरी आदतों से निजात दिलाना चाहती,
लेकिन जमीन था कि और बुरी सोहबत में पड़ जाता। उसने अपने
मर्द को अच्छा इंसान बनाने के लिए कम कोशिश नहीं की, किंतु
उसकी सोहबत पर तिल बराबर भी असर नहीं पड़ा। सलमा को
अच्छी तरह मालूम था कि जमील से शादी करने के बाद से ही
आदिवासी समाज उसके परिवार से काफी नाराज था। वह इसलिए
भी अपने मरद पर ज्याद दबाव नहीं दे पाती, कहीं उसे छोड़कर
भाग न जाए। एक बात और थी कि जमील पश्चिम बंगाल का
बाशिंदा नहीं था वह बिहार का वासी था, जो खाने कमाने के लिए
अपने घर से भागकर बंगाल आया था। उसे भय था कि जोर
जबर्दस्ती करने पर पंछी हाथ से कहीं उड़न छू न हो जाए। तब वह
न घर की रहेगी न घाट का ! सलमा को खुद अपनी नेकी-बदी
समझ में रही थी. इसलिए कभी अपने दायरे से बाहर नहीं जा सकी।
सलमा ने कभी विपरीत परिस्थितियों से समझौता नहीं किया।
वह सदा संघर्ष के बल पर आगे बढ़ती रही, कभी झंझावतों के समक्ष
अपना घुटना नहीं टेका। दो वर्ष असम में बिताने के बाद सलमा
अपने पैतृक शहर बीरपाड़ा आ गई। जहां आपने हुनर का उपयोग
अपने घर में करने लगी। सिलाई, कढ़ाई और बुनाई से उसे अच्छे
पैसे मिल जाते थे। उस आमदनी से घर गृहस्ती की गाड़ी आगे बढ़ने
लगी थी। अगर घर में कोई चीज नहीं रहती तो किसी पडोसी के
आगे अपना हाथ नहीं पसारती थी। वह अपने आप में एक
स्वाभिमानी औरत थी। पड़ोसियों का ताना-उलाहना सुनना उसे
नागवार गुजरता था।
उसके घर में फांका-कस्सी तो थी ही, कभी-कभी तो अपने
मर्द और बच्चों को खाना खिलाकर खुद भूखे पेट रह जाती। कभी-
कभी तो घर में ऐसी भी स्थिति उत्पन्न हो जाती, रात का खाना
बनता तो सुबह चूल्हा उपवासे रह जाता। एक दिन तो ऐसा हुआ कि
दोनों टाइम खाना बना ही नहीं। बच्चे बिना खाए स्कूल चले गए।
शाम को स्कूल में छुट्टी हुई तो सभी बच्चें अपने-अपने घर
आ गए, लेकिन सलमा के दोनों बच्चे घर नहीं पहुंच सके। यह देख
मियां-बीबी का होश उड़ गया। दोनों भागते हुए स्कूल पहुंचे, जहां
उन्हें मालूम हुआ कि बच्चे छुट्टी के बाद घर चले गए। जहां-तहां
खोजने के बाद वे थाना पहुंचे और बच्चों की गुमशुदगी का सनहा
दर्ज कराया।
यकबयक बच्चों के गायब हो जाने से दोनों के ऊपर खौफ
छा गया। उन्हें अपहरण की अशंका होने लगी। लेकिन उनका मन
कहता कि गरीब के बच्चे का अगवा कौन करेगा! परंतु दूसरे ही पल
मन बदल जाता, सोचता कि कहीं वे आंख फोड़वा गिरोह के पल्ले
तो नहीं पड़ गये। गिरोह के सदस्य हैवान से भी ज्यादा खतरनाक
होते हैं, जो बच्चों की किडनी, आंख, दिल आदि अंग निकाल लेते
है। ये बातें दिमाग में आते ही मियां-बीवी का कलेजा मुंह को आ
जाता। एकाएक सलमा के मन में विचार आया कि कहीं बच्चे अपनी
नानी से मिलने तो नहीं चले गए ? क्योंकि बच्चों का लगाव नाना-
नाली से हो गया था, अक्सर उनसे मिलने चले जाते थे। उनके
पीड़ित मन में आशा की सुनहरी किरण जगी।
आखिर में सलमा अपने मायके चली गई। वहां दोनों बच्चें
सकुशल मिल गए। लेकिन माता पिता का व्यवहार उसके प्रति
अच्छा नहीं रहा। गुस्से में भरे उसके पिता ने कहा कि बच्चों को
संभाल नहीं पा रही हो तो किसी अनाथालय में छोड़ आओ। सलमा
अपमानित होकर बच्चों के साथे अपने घर लौट गई थी।
समय का पंछी उड़ता रहा। इसी बीच सलमा को पांच संतानें
हो गई,जिनमें तीन बेटी और दो बेटे थे। भाड़ा के एक छोट कमरा में
सात प्राणियों का रहना बडा कठिन काम था। किंतु मरता क्या न
करता। उसी कमरे में चूल्हा-चौकी, लिखना-पढना, धोना-नहाना, खाना
- सोना आदि काम होता था। सबसे दिक्कत तब होती, जब सूखी
लकड़ी जलाकर खाना बनाया जाता। पूरा घर धुआं से भर जाता। धुएं
से भरे कमरे में उजबुजाए बच्चे बाहर निकलकर भागते।
सलमा सोचती कि शहर में हमारे जैसे लोगों की जिंदगी कोई
जिंदगी है। जहां गदहे की तरह दिन भर खटना और रात में कुत्ते की
माफिक हाफते हुए सोना। अगर मिया-बीवी एक साथ सोए तो
बीवी बच्चा पैदा करने की मशीन बन जाती है। सरकारी स्लोगन धइे
के धइे रह जाते हैं, गरीबी में गरीबों का आर्थिक विकास हो या न
हो, हर साल बच्चों की लाइन लग जाती है।
इस हालात से सलमा का दिल उदास रहने लगा था। जिल्लत
भरी जिंदगी से उसका मन भर गया था। उसका मन बार-बार मायके
की चौखट पर चला जाता, जहां उसका नटखट व सुंदर बचपन बीता
था।
सलमा का बाप चाय बगान में बड़ा बाबू और आदिवासी
पंचायत के मुखिया थे। पक्का मकान, हरियाली से भरा खेत-
खलिहान, सुपारी और नारियल का बगान, दूध-दही के लिए गाय व
भैसें थीं। खेत-बगान व घरेलू कार्यों में नौकर-चाकर हाथ बंटाते थे।
हमेशा नए वराइटीज के ब्यंजन तथा स्वादिष्ट भोजन का प्रबंध होता
था, जिसमें मांस-मछली की प्रधानता रहती थी। आदिवासी होते हुए
भी उनका परिवार दारू-शराब से दूर रहता था। सभी भाई- बहनें खूब
मस्ती करते थे। उस ठाट-बाट में किसी तरह का दुख-तकलीफ
महसूस नहीं होता था। वह भी खुद चाय बगान की कर्मचारी थी।
चाय बगान में छुट्टी के दिने काफी धूम-चौकड़ी मची रहती। अक्सर
सखियों के साथ चुहलबाजी में दिन कटता। छुट्टी के दिन हंसना-
बोलना और खेलना-घूमना यही काम बचा था।
सलमा के दिमाग में एक बात बार-बार हंट करती कि वह दिन
ऐसा था जहां पैसा बरसता रहता, जिन पैसों की कीमत उस वक्त
उसके पास नहीं थी और एक दिन आज का है, जहां वह एक-एक
पैसे के लिए मुंहताज है। बदले परिवेश में एक-एक तिनका सहेजने
को मजबूर है। उसका अंत:करण कहता कि काश ! जमीन से निकाह
के बाद वह अपनी नौकरी नहीं छोड़ी होती! उसका मर्द कहता था कि
तुम नौकरी छोड़ दो, क्योंकि हमारे बिहार में मर्द परदेस में कमाते हैं
और औरतें घरों में मौज करती हैं।
नौकरी छोड़ने के पूर्व उसकी मां ने उसे बहुत समझाया था।
कहा था,
'बेटी, नोकरी मत छोड़ो, बुरे दिन में कामे आएगी। तूने पैसा को
पानी की तरह बहाया है, नौकरी छुटते ही पाई-पाई की मुंहताज हो
जाएगी।'
उधर सलमा ने नौकरी छोड़ा और बदकिस्मती से उसका नसीब
फूटा। प्रेम का नशा फक से उतर गया। आज उसके मां का कथन
सच दिख रहा था। उसका एक-एक शब्द सूई की तरह कलेजे को बेध
रहा था। उसने प्रेमी के झांसे में अपना हाथ-गोड़ स्वयं काट लिया
था।
अचानक किसी ने जोर-जोर से दरवाजा खटखटाया। बार-बार
दरवाजा पीटने से वह अपने ख्यालों से वापस आई। जमील की
आवाज पहचानते ही बदहवास दरवाजा खोलने भागी।
जमील अंदर घूसा। वर्षा में भिंगने से उसका पूरा शरीर
थर्र-थर्र कांप रहा था। उसने जल्दी से अपने भींगे वस्त्रों को शरीर से
उताड़ा। इसी बीच उसकी सांस फूलने लगी और खांसी आ गई।
खांसते-खांसते उसके मुंह से खून के साथे बलगम निकलने लगा।
खांसी रूकने का नाम नहीं ले रही थी। खांसी और उल्टी के कारण
उसका शरीर बेदम हो गया। वह जमीन पर गिरकर ढेर हो गया।
उस वक्त सलमा गोइंठा में माचिस की तिली जलाकर आग
सुनगाने की जुगतकर रही थी। ताकि जमील के शरीर को गर्म किया
जा सके. अचानक जमील को गिरते देख वह धधाकर उसे अपनी
अंकवाड़ी में जकड़ लिया। जमील की दशा देखकर उसका दिल धक-
धक कर उठा। उसे लगा कि अब प्राण देह छोड़कर बाहर निकल
जाएगा। खून की उल्टी देखते ही वह एक बार जोरों से चीख पड़ी।
उसकी चीत्कार सुनकर कोई मदद करने नहीं पहुंचा। उसके बच्चे
भूखे-प्यासे जैसे -तैसे सोए हुए थे।
यकायक सलमा चेतना में आई। वह सोचने लगी, यह रोने का
समय नहीं है। उस ठंडी रात में जो कुछ भी अपने पति के बचाव में
करना है सुद करना है। इस निर्णय से उसे आत्मबल मिला। उसने
अपने पति जमील को कंबल ओढ़ा दिया। उसके बाद सुनगते आग
पर थोड़ा सा किरोसिन तेल डाला, अकस्मात आग लहक उठी। आग
की ताप से जमील की खांसी रूक गई। धीरे-धीरे जमील का शरीर
गरमाया।
अब सलमा पति को अस्पताल ले जाए तो कैसे! एक तो
रात का समय, दूसरे खराब मौसम और तीसरे घर में फूटी कौड़ी
नहीं। इस मुसीबत की घड़ी में वह परवर दिगार को याद करते हुए
किसी तरह उस भयानक रात को रोशनी की आस में विदाई दी।
सरकारी अस्पताल में जमील का एक्स रे और ब्लड जांच की
रिपोर्ट देखने के बाद डॉ. दीपक प्रकाश ने कहा,
'इस मरीज को टीबी की बीमारी है। फेफड़ा खराब हो चुका है और
उसके शरीर में खून की कमी है। मरीज को बचाने के लिए सबसे
पहले खून देना होगा। ओ नेगेटिव ब्लड चढ़ाना है, कृपया पैसा जमा
करें या रक्त की व्यवस्था करें।' इतनी सलाह देकर डॉ प्रकाश दूसरे
मरीज को देखने लगे।
डॉक्टर की बातें सुनकर सलमा के आंखों के सामने
अंधेरा छा गया। इस राजसी बीमारी का इलाज कैसे होगा? यह सोच-
सोचकर वह व्याकुल होने लगी। कभी सुख में परछाई की तरह
रहेवाले लोग इस दुख में गदहे की सिंग की तरह गायब थे। कहीं
सलमा उनके सामने हाथ न पसार दे।
दिन पर दिन जमील का शरीर गलता जा रहा था। आंखें
गड्ढा में धंसी किसी जुगनू की तरह टिमटिमाती दिख रही थीं।
पौष्टिक आहार की कमी से मांस पेशियां सिकुड़ने लगी थी।जिससे
उसका शारीरिक ढांचा अस्तियों का कंकाल बन गया था। चेहरे की
त्वचा पर झुर्रियों ने कब्जा जमा लिया था। देखने से जमील का
जवान जिस्म किसी बूढ़े की तरह लग रहा था।
सलमा के पास कुछ गहने थे। उन आभूषणों को उसने बेच
दिया। उससे मिले रुपयों से उसने कुछ फल और दवा खरीद लाई।
मुर्दा की तरह बेड पर पड़े जमील की दवा-दारू शुरू हुई। जमील के
देह में खून चढ़ाना सबसे जरूरी था। ऐसी स्थिति में सलमा ने
अपना खून जांच कराई, लेकिन पति के ब्लड ग्रुप से उसका ग्रुप नहीं
मिला। उसका भाग्य यहां भी साथ नहीं दिया। हताश होकर मन में
सोचने लगी कि वह कैसा कुपात्र है, जिसका खून पति की जिंदगी
बचाने में काम नहीं आ सका। उसी समय छोटकी बेटी गुनो ने
आवाज दी,
' अम्मी, अब्बाजान कइसे ठीक होइहेंन, तू ठीक से बताव ना? इहां
ठीक नइखन होत त दूसर जहे ले चल ना।'
इस दुख की घड़ी में छोटकी बेटी गुनो के सवाल पर सलमा की
आंखें भर आईं। बीमारी के कारण बाप का प्यार नहीं मिलने से वह
आहत थी। खेलन-कूदने की उम्र को पीछे छोड़ बाप को नीरोग देखने
की चिंता उसे सता रही थी। गुनो ने एक बार फिर अपनी अम्मी से
मुखातिब हुई और पूछा,
' अम्मी, काल्ह तोहार खून जांच भइल रहे त का भइल?'
' अरे क्यों बकबक कर रही है! मेरा खून तेरे बाप के खून से नहीं
मिला।' सलमा ने खीझकर उसे चुप कराना चाहा।
' अम्मी, हमार खून अब्बाजान के खून से जरूर मिल जाई, हम
उनुकर बेटी हई नूं, डागडर साहेब के पास ले चलो ना।' गुनो रोआसे
होकर बोली।
सलमा बच्चों के सामने कमजोर पड़ना नहीं चाहती थी। वह
असमंजस्य में थी कि बेटी को डॉक्टर के पास ले जाए या नहीं!
तभी उसके पुत्र छोटकू ने गुनो की बात का समर्थन करते हुए डॉक्टर
के पास चलने की सलाद दी।
'हां अम्मी, थोड़ा-थोड़ा खून देने से शायद अब्बाजान की बीमारी
ठीक हो जाए, डॉक्टर साहब के पास चलो न।'
सलमा जैसे ही अस्पताल पहुंची, जमील के बेड के
सामने अपने मां-बाप को खड़ा देखा। दोनों को देखकर उसका मन
अचरज में पड़ गया। वे लोग अपने दामाद जमील से बात-चीत कर
रहे थे। यह देख पहले तो उसे यकीन नहीं हुआ कि इस विपत्ति में
अंतरजातीय विवाह का घोर विरोध करने वाले उसके मां-बाप आ
सकते हैं! किंतु वह जो देख रही थी वह सच्चाई थी। वह जैसे ही उन
दोनों के पास पहुंची और झुकर उनका पांव धुआ, दोनों उसके माथे
पर अपना हाथ रखकर सदा सुहान रहने का आशीष दिया।
उनका आशीष पाकर सलमा का मन खुशी से झूम उठा। उसके
पिता दीनदयाल मुंडा को घेरे में लेकर उसके सभी बच्चे खड़े थे।
उन्होंने उनके सिर पर हाथ रखते हुए कहा,
'बेटी, अभी हम दोनों जीवित है। हमारे दामाद जमील बाबू
को कुछ नहीं होगा। वे जल्द स्वस्थ्य लाभ करेंगे। जितना पैसा
लगेगा, हम लोग खर्च करेंगे, बढ़िया से बढ़िया डॉक्टर से इनका
इलाज कराएंगे।'
एक नजर सलमा ने अपने सौहर जमील को देखा। जमील के
चेहरे पर भी प्रसन्नता और संतोष के भाव थे। उसे लगा कि धरती
पर रेंग रही लता को मंजिल पाने का सहारा मिल गया। उसके माथे
का बोझ अचानक किसी चक्कर काटने वाले भंवर की तरह गायब हो
गया। लगा जैसे जलती दुपहरिया में थोड़ी सी छांह मिल गई हो। वह
माता-पिता का स्नेह, प्यार और ममता पाकर निहाल हो उठी।
कहानी-जलती दुपहरिया