मां एक गजल


 वह हर एक धर्म हर एक जाति हर ईमाँ में रहती है।
 खुदा की नेमतें  बनकर वह इस दुनिया में रहती है ।।
उसी की रोशनी से है यह रोज-ओ- शब यहां रोशन ।
वो  कतरा कतरा रिस के जर्र-ए-इफ्शा  में रहती है ।
उसे कुदरत ने बख्शा है हुनर घर को सजाने का।
 मकीं मिल जुल कर रहते हैं मकाँ जिंदा में रहती है।।
हो अपनी या पराई आंख नम होने  नहीं देती।
लघु से सींचती हर फूल  जिस बगिया में रहती है
हमारी आस्था का जाविदाँ  सैलाब बन -बन कर।

सरोवर में कभी  सिमटी कभी नदिया में रहती है।।
हम अपने देश में भी देखते हैं जिसकी मूरत को।
निगहबानों   की जद में मुल्क की सीमा में रहती है।
 मोहब्बत के सिवा उसको जुबां कोई नहीं आती।
 कुरान -औ- बाइबल गुरुग्रंथ और गीता में रहती है।।
इवादत करने जिसकी खुद यहां ईश्वर चला आए ।
यशोदा देवकी में या वोें को कौशल्या में रहती है।।
वो एक तनहा सी हस्ती है जिसे हम मां  कहा करते।
 लहू बन जिसमें बहती हमारी जां में रहती है ।।