विषय: राष्ट्रीय शिक्षा नीति,

डॉ रमेश पोखरियाल “निशंक”


माननीय मानव संसाधन विकास मंत्री,                                                         


मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार


नई दिल्ली – 110 001


 


विषय: राष्ट्रीय शिक्षा नीति,


महोदय,


आपके मानव संसाधन विकास मंत्री नियुक्त होने पर मैं आपका अभिवादन और अभिनंदन करता हूँ। आशा करता हूँ कि आप जैसे कर्मठ और परिश्रमी व्‍यक्ति के नेतृत्व में यह मंत्रालय शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाएगा। मुझे यह कहते हुए हर्ष हो रहा है कि कस्तूरीरंगन समिति ने भारत-केंद्रित, भारतीय केंद्रित, ज्ञान-केंद्रित, संस्कार-केंद्रित, संस्कृति-केंद्रित शिक्षा नीति का मसौदा तैयार किया है। समिति ने बहुत-से मुद्दों पर गंभीरता से चिंतन और मनन किया है जो शिक्षा व्यवस्था के लिए उपयोगी और हितकारी हैं। आपके मंत्रालय ने कस्तूरीरंगन द्वारा प्रस्तुत शिक्षा नीति के मसौदे पर जो विचार और प्रस्ताव माँगे हैं, उन्हें मैं आपके पास बिंदुओं के रूप में भेज रहा हूँ। आशा करता हूँ कि आप इन पर सकारात्मक रूप से विचार करेंगे। 



  1. शिक्षा नीति का निर्माण करते हुए हम लक्ष्य (0bjective), साधन (Instrument) और केंद्रक (Locus) में सही भेद नहीं कर पाते। वास्तव में शिक्षा का केंद्रक विद्यार्थी ही होता है। शिक्षक, शिक्षण-सामग्री, शिक्षण-विधि आदि अनेक तत्व शिक्षा के साधन हैं जो निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक होते हैं। लक्ष्य के संदर्भ में पुराने और नए मूल्यों के ज्ञान के साथ-साथ विद्यार्थी में अंतर्दृष्टि भी उत्पन्न करना है ताकि बालक अपने भावी जीवन में उनका उपयोग कर सके। उसका बहुमुखी और बहुप्रयोजनी विकास हो सके और उसमें अपने सामाजिक-सांस्कृतिक तथा व्यक्तिपरक आवश्यकताओं के प्रति समझदारी पैदा हो सके।     

  2. समाज और राष्ट्र की अपेक्षाओं के परिप्रेक्ष्य में हम शिक्षा में कई आधारभूत प्रश्नों की उपेक्षा कर जाते हैं। वस्तुत: शिक्षा का संबंध अपने समाज और देश के संस्कार,संस्कृति, परंपरा से जुड़ा होता है और ये सभी तत्त्व अपने भाषा अर्थात मातृ भाषा में ही उपलब्ध होते हैं। यदि विषयों को अपनी मातृभाषा से न जोड़ कर शिक्षा देते हैं तो विद्यार्थी उसके संप्रेष्य कथ्य को न तो अपनी संकल्पनात्मक भूमि पर उतार पाएगा और न ही उसे अपने भीतर आत्मसात कर पाएगा। यही कारण है कि आज के लगभग सभी शिक्षाविदों और दार्शनिकों का यह मत है कि शैक्षिक उद्देश्य की असफल परिणति अथवा गलत उपलब्धि के पीछे मूलत: भाषा की असफल सिद्धि अथवा गलत प्रयोग है। आशा है कस्तूरीरंगन समिति ने इन सब मुद्दों की ओर अवश्य ध्यान दिया होगा। वस्तुत: मातृभाषा/प्रथम भाषा अर्थात भारत में हिन्दी और भारतीय भाषाओं को विषय के रूप में तो पढ़ाया  जाए लेकिन शिक्षा-माध्यम (Medium of Instruction) के रूप में अनिवार्य रूप से हों। शिक्षा-माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी से विद्यार्थियों की बौद्धिक और संकल्पनात्मक शक्तियों पर बुरा प्रभाव पड़ने की पूरी-पूरी संभावना रहते है और विद्यार्थी की रचनात्मक प्रतिभा के विकास पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़े गा। वस्तुत: मातृभाषा पालने की भाषा होती है जिससे व्यक्ति की अपनी अस्मिता प्राप्त करने में सहायता मिलती है, अपने समाज और राष्ट्र के साथ उसका समाजीकरण होता है। इसके साथ ही मातृभाषा विद्यार्थी के सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों तथा बौद्धिक चेतना का विकास होता है और साथ ही राष्ट्रीय भावना पैदा होती है जिससे शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि होती है। इसी दृष्टि से कस्तुरीरंगन समिति ने शिक्षा व्यवस्था में मातृभाषा को प्राथमिकता दी है।   

  3.  व्यावसायिक शिक्षा (Professional Courses) में संपर्क भाषा हिन्दी या भारतीय भाषाओं के प्रयोग की व्यवस्था की जाए। विश्व के अधिकतर देशों में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में अपने-अपनी भाषाएँ शिक्षा-माध्यम के रूप में प्रयुक्त होती हैं, न कि विदेशी या पराई भाषा। इससे उनके अनुसंधान और वैज्ञानिक तकनीकों का संवर्धन ही हुआ है और विश्व में उन्हें पूरी मान्यता भी मिली है।

  4. उच्च शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा की शिक्षण-सामग्री या पुस्तकें हिन्दी और भारतीय भाषाओं में तैयार कराई जा सकती हैं। उच्च शिक्षा की अनेक पुस्तकें विभिन्न राज्यों की ग्रंथ अकादमियाँ तैयार करती हैं। उनमें सुधार की अत्यंत आवश्यकता के साथ उनको प्रोत्साहन देने की भी ज़रूरत है। व्यावसायिक शिक्षा के लिए राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT)जैसा कोई परिषद स्थापित किया जाए जिसमें चिकित्सा, इंजीनियरिंग,प्रौद्योगिकी, भाषा प्रौद्योगिकी, विधि, वाणिज्य, प्रबंधन आदि पाठ्यक्रमों के लिए शिक्षण-सामग्री का मौलिक लेखन, अनुवाद और अनुसृजन हिन्दी और भारतीय भाषाओं में कराया जाए। कुछ विश्वविद्यालयों को भी यह कार्य सौंपा जा सकता है। इससे हमारे प्रधान मंत्री मोदी जी के डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, मेक-इन-इंडिया आदि अभियान पूरी तरह सफल होंगे।            

  5. स्कूली शिक्षा में भी क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की नितांत आवश्यकता है। राज्‍य सरकारों के सहयोग से सरकारी स्कूलों के शैक्षिक स्तर और उसकी अधिसंरचना (Infrastructure) में सुधार लाने से ही शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ेगी। हमें इसके उदाहरण फ़िनलैंड,नीदरलैंड, स्वीडन आदि अनेक देशों में मिल जाते हैं। इन देशों की शिक्षा प्रणाली एक आदर्श है जिसका प्रयोग हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में कर सकते हैं।

  6. 6.समूचे देश में समान शिक्षा प्रणाली (Common School System) दसवीं कक्षा तक अनिवार्य रूप से लागू हो। इसके पाठ्यक्रम,सिलेबस, पाठ्यचर्या आदि एक-समान हो। पाठ्यक्रमों में एकरूपता होने से शिक्षा सुचारू रूप से तो चले गा ही, साथ ही विद्यार्थियों में किसी राज्‍य के पाठ्यक्रम से तुलना करने की आवश्यकता नहीं होगी।  

  7. 7.स्कूलों,कालेजों और विश्‍वविद्यालयों में नैतिक शिक्षा और भारतीय संस्कृति को स्थान मिलना ज़रूरी हो गया है। इससे विद्यार्थियों में राष्ट्रीय भावना पैदा होने के साथ-साथ बड़ों-बुज़ुर्गों, परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति नैतिक, भावनात्मक आदि दायित्व-बोध पैदा होगा।     

  8. स्कूली शिक्षा से विश्वविद्यालयीय शिक्षा तक विद्यार्थियों के लिए कम-से-कम तीन वर्ष की एन.सी. सी. और सैन्य शिक्षा अनिवार्य हो। इससे विद्यार्थियों को अपने समय का सदुपयोग करने का अवसर तो मिलेगा ही, अनुशासन की भावना भी पैदा होगी और देश को जब कभी उनकी आवश्यकता पड़ेगी तो वे देश के लिए हितकर और उपयोगी होंगे।

  9. 9.नई शिक्षा नीति में स्कूली,महाविद्यालयीय, विश्वविद्यालयीय अध्यापकों के लिए भी अल्पकालिक या गहन नवाचार (Short term or Intensive Innovation) कार्यक्रम या शिविर आयोजित करने का ज़िक्र तो  है लेकिन उनके कार्यान्वयन में गंभीरता की अवशूयकता है। ये केवल औपचारिकता में ही न रह जाएँ। विषयों में जो नए अनुसंधान, नए परिवर्तन, नए ज्ञान या नई खोजें होती रहती हैं, उनकी अद्यतन जानकारी समय-समय पर दी जानी चाहिए। साथ ही शिक्षा में गुणात्मक सुधार लाने के लिए अंतरराष्ट्रीय आदान-प्रदान योजना के अंतर्गत विदेश के विश्वविद्यालयों या शैक्षिक संस्थानों में शिक्षकों को विशेष ज्ञान के लिए भी भेजा जा सकता है।    

  10. स्कूली अध्यापकों,महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों, विशेषकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों के अध्यापकों की नियुक्ति या भर्ती के लिए संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) जैसा आयोग गठित किया जाए ताकि अध्यापकों का चयन सही रूप से हो सके।

  11. 11.शोधार्थियों के शोध-कार्य को गुणात्मक और नवीनतम बनाने की सार्थक व्यवस्था की जाए। अधिकतर अध्यापक न तो उस विषय से परिचित होते हैं,न ही वे स्वयं उस विषय का अध्ययन करते हैं और इसी लिए शोधार्थी का मार्गदर्शन नहीं कर पाते। कई बार विद्यार्थी बेचारा इधर-उधर भटकता रहता है।   


   आप हिन्दी के प्रबल समर्थक और साहित्यकार हैं। इस लिए आपसे आशा है कि आप हमारी शिक्षा व्यवस्था में मातृभाषा को स्थान दिलाने की कृपा करेंगे। कुछ राज्यों के राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया है। हिंदीतर भाषी राजनीतिक दल तो विरोध करते रहे हैं और यह विवाद पचास वर्ष से चला आ रहा है। इसपर ध्यान न दे कर संपर्क भाषा हिन्दी और मातृभाषाओं को भारतीय शिक्षा व्यवस्था में महत्व और गौरव देने की कृपा करें।   


                                              प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी


                                                      सदस्य, केंद्रीय हिन्दी समिति, भारत सरकार


दिनांक: 30 जुलाई, 2019                                                                             kkgoswami1942@gmail.com


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