विश्व के कई देशों जैसे फ्रांस, डेनमार्क, हालैंड, जर्मनी, ग्रीस, बेल्जियम, आस्ट्रिया, ब्राजील, कोलंबिया, इक्वेडर, कनाडा, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, बंगलादेश में वैश्याओं की गलियाँ हैं जहाँ कोठों में वैध तरीके से वेश्याएँ अपना शरीर बेचती हैं। इनमें फ्रांस में पेरिस तथा थाईलैंड में बैंकाक की गलियाँ बहुत प्रसिद्ध है। भारत के बड़े-बड़े शहरों जैसे दिल्ली में महात्मा गांधी रोड, कोलकाता में बहू बाजार तथा मुम्बई में कमाथीपुरा में कई गलियाँ हैं जहाँ कोठों में शरीर बिकते हैं। यह एक अजूबा है कि भारत में चुनावों के समय पूरी-पूरी गलियाँ ही बिकाऊ हो जाती है। नागराज इलाहाबाद महानगरपालिका के दारागंज वार्ड का निवासी है तथा हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का पौत्र है। वह प्रारम्भ से ही पढ़ने-लिखने में अच्छा नहीं था। पर उसे निराला जी की कई कविताएं कंठस्थ थी जिनका वह समय आने पर पाठ कर सकता था। उसने सोचा कि राजनीति के अतिरिक्त उसके लिये अन्य कोई जीविका का साधन नहीं हो सकता। वह राजनीति के माध्यम से ही उच्च समाज की श्रेणी में पहुंच सकता है, फिर राजनीति में पैसा भी है। अतः यदि वह आसन्न नगर महापालिका के चुनाव में दारागंज वार्ड से सदस्य निर्वाचित हो जाय तो उसके ऊपर से बेकारी का धब्बा धुल जायगा। दूसरे वह अपने बाबा के विस्मृत होते नाम को भी पुनरूज्जीवित कर सकेगा। चुनाव प्रचार एवं भाषणों के दौरान उनके नाम का बार-बार उल्लेख होने पर नई पीढ़ी के मन मस्तिष्क में बस जायगा। पांच वर्ष पश्चात् आगामी चुनावों तक तो शायद उसे अपने बाबा निराला के नाम पर वोट ही न मिले।
नागराज ने नगरमहापालिका, इलाहाबाद की सदस्यता के लिये दारागंज वार्ड से नामांकन प्रपत्र भरा। भाग्य से उसका नामांकन-पत्र वैध पाया गया और उसे निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चश्में का चुनाव-चिन्ह प्राप्त हो गया। नागराज को भारतीय जनता दल सहित कांग्रेस, समाजवादी दल ने भी अपना चुनाव देने की पेशकश की पर नागराज को तो एक मात्र अपने बाबा निराला के नाम पर भरोसा है क्योंकि सभी दलों के लोग निराला जी की प्रशंसा में बोलते हुये नहीं थकते हैं। वास्तव में वर्तमान काल में दारागंज की पहचान निराला से है। दारागंज के निवासी अपने व्यक्तिगत मेल-मिलापों में भी निराला जी के नाम का उल्लेख करते नहीं थकते। दारागंज का पौराणिक इतिहास न तो किसी को पता है और न ही कोई उसमें घुसकर तथ्यों के रत्न निकालने का प्रयत्न करना चाहता है। दारागंज में नागवासुकी मंदिर भी है जो उसके नाम से मेल खाता है। पर आजकल एक मात्र उद्देश्य है कि किस प्रकार अधिक से अधिक पैसा कमाया जाय, पैसा बचाया जाय। आजकल पैसे के लिये जेल जाने से भी लोग नहीं डरते हैं। सरकार करे तो क्या करे? जब व्यक्ति के चेहरे से पानी ही उतर जाय, तो शासन का दंड-विधान निष्प्रभावी होते देरी नहीं होती। जब नागराज चुनाव के मैदान में उतरा तो उसने पाया कि चुनाव मैदान का माजरा ही कुछ और है। चुनाव मैदान में पैसे की ही दुंदभी बजती है। साहित्य और संस्कृति के विषय पीछे छूट जाते हैं। जहाँ पैसा नहीं है, वहाँ जातिवाद इसका स्थान ले लेता है। नागराज ने अपने वार्ड में भ्रमण करने के पश्चात् पाया कि जो कुरियाने में जीतेगा, वही सिकंदर बनेगा। उसके समर्थक तथा सलाहकारों ने सलाह दी- ''जो कुरियाने की गली में जीतेगा, वही सभासद बनेगा। इस गली के लोग बड़े संकुचित हैं। इस गली के लोग छोटे-छोटे काम करने वाले जैसे धोबी, तांगा-चालक, रिक्शा-चालक, दर्जी, नाई, मजदूर आदि हैं। उन्हें दल एवं प्रत्याशी की योग्यता से कोई प्रयोजन नहीं। वे यह सब समझते भी नहीं, न ही उनका कभी किसी जीते प्रत्याशी से काम पड़ता है और न ही काम पड़ने पर कोई उनकी सहायता करता है। उनका काम है प्रतिदिन कुआँ खोदना, जल पीना। बस, चुनाव बार-बार आते हैं। उसी समय वे कुछ अतिरिक्त पैसा कमा लेते हैं तथा चार-पांच दिन उनके नीरस जीवन में वसंत आ जाता है। वे चुनाव के दौरान जमकर एक सप्ताह भिन्न-भिन्न पकवान तथा मिष्ठान खाते हैं तथा खूब शराब पीते हैं। उन्हें पता ही नहीं होगा कि निराला जी ने क्या लिखा। जब बाहर से कारों में भरकर लोग उनका घर देखने आते हैं, तो उन्हें पता चलता है कि उनके वार्ड में कोई विशिष्ट व्यक्ति रहता है। निराला जी के लंबे बाल तथा दाड़ी वाले फक्कड़ व्यक्तित्व से वे अवश्य परिचित हैं कि उनके पड़ोस में एक विशिष्ट व्यक्ति उन जैसा ही है जो अपनी आमदनी दारागंज के भिखारियों और भूखों में बांट देता था। नागराज को पता चला कि कुरियानावासी अपने मुहल्ले में रहने वाले प्रत्याशी अल्लू को ही वोट देने का मन बना चुके हैं क्योंकि वह गत पांच वर्ष से उनकी छोटी-मोटी सेवा-सहायता करता रहता है, उनके काम आता रहता है। फिर वह उनकी जाति-बिरादरी का भी है।'' ''पर मेरे पास तो कुछ ही इश्तहार छपाने के लिए पैसा है।''
''निराला जी की किताबें तो इतनी बिकती हैं, क्या प्रकाशक आपको राॅयल्टी नहीं देते?''
''यदि प्रकाशक राॅयल्टी देते, तो क्या बाबा जी भूखों मरते? क्या उन्हें अपनी एक मात्र पुत्री के विवाह की चिंता डसती? क्या हमारा मकान उनके मरने तक खपरैल बना रहता? क्या हमारे पिताजी को घर चलाने के लिये प्रकाशकों के दर-दर भटकना पड़ता? वह तो मेरे एक भाई वकील हो गये, अन्यथा हमारा मकान भी बिक जाता तथा हमारा परिवार दर-दर भटकता फिरता।''
''पर बाबा निराला तो नेहरू से ही लड़ लिये- 'तुम यदि भारत के शासक हो तो मैं शब्दों का बादशाह हूँ। मैं तुमसे कोई कम नहीं हूँ मैं ही स्थायी हूँ।' इस परिस्थिति में उनकी कौन प्रधानमंत्री सहायता करता?''
''यदि सरकारी सहायता आती, तो भी हमारे बाबा शायद स्वीकार न करते। यही कारण है कि वे पश्चिम बंगाल में हल्दिया के पास महिषादल राजघराने को छोड़कर चले आये। पर यहाँ भ्रष्टाचार तथा गंगा नदी की दुर्दशा देखकर वे पछताते थे- ''शायद हमारा बंगाल ही अच्छा था। इन नव शासकों से तो हमारे राजा-महाराजे ही अच्छे थे जो केवल राजघराने के खर्चे के लिये राजस्व की उगाही करते थे। इस प्रजातंत्र में तो पता ही नहीं चलता कि कितने हजार राजा-महाराजे हैं जो राज्य के राजस्व की अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए उगाही कर रहे हैं तथा राजकोष को नोंच-नोंच कर खा रहे हैं। उन्होंने सोचा ही नहीं होगा कि दारागंज से सटी हुई पापनाशिनी गंगा स्वयं इतनी गंदी हो जायगी कि उसके किनारे रहकर एक साहित्य-सृजन की प्रेरणा तो दूर, जीना दूभर हो जायेगा। तो क्या किया जाय?''
नगराज की सभा में स्तब्धता छा गई। तभी नागराज के चुनाव के मुख्य रणनीतिकार ने सुझाव दिया- ''क्यों न हम इस वार्ड के स्थायी ठेकेदार से कुछ अग्रिम पैसा उधार ले लें?''
''सभी इस बात पर सहमत हो गये पर नागराज संतुष्ट नहीं था क्योंकि वह तंत्र की सफाई के लिये चुनाव लड़ रहा था। परन्तु उसके समर्थकों और सलाहकारों ने कहा- ''देखो, नागराज जी! यह काम आप मुझ पर छोड़ दीजिए। जब आपने नृत्य प्रतियोगिता में भाग लिया है, तो आपको नाचना ही होगा। फिर इस सभी पचड़ों के बीच आपको तो पड़ना नहीं है। इसे हम सभी संभाल लेंगे।''
नागराज के बार-बार मना करने पर सभी ने नागराज के चुनाव प्रचार कार्य से अलग होने की धमकी दी। मजबूरी में नागराज को सहमत होना पड़ा पर नागराज की एक कड़ी शर्त थी- ''मैं इसके लिये जिम्मेदार नहीं हूँ, न रहूँगा।''
''तुम डरते क्यों हो। हम जीतने वाले प्रत्याशी है। फिर नगर महापालिका के ठेकेदार, बिचैलिये तथा शहर के सेठ इस चुनाव में सट्टा खेलते हैं। वे अपना पैसा लगाते हैं। यदि जीत गये, तो दुगने हो जायेंगे अन्यथा समझेंगे कि वे क्रिकेट के एक और सट्टे में इतना रूपए हार गये।''
नागराज के चुनाव के लिए ठेकेदार वित्तीय सहायता करने के लिए राजी हो गया तथा नागराज अपने समर्थकों के साथ पूरा जोर-शोर से चुनाव प्रचार में लग गया। नागराज के समर्थकों ने गंगा सफाई का मुद्दा उठाने के लिये मना किया- ''जब तक गंगा में हम कूड़ा करकट फेंकते रहेंगे, गंगा की सफाई नहीं हो सकती। और जब हम यह चुनाव-प्रचार में कहेंगे तो लोग कहेंगे कि हमारी समस्याओं के समाधान करने के लिये वोट मांगने आया है न कि उपदेश देने आया है। फिर जब राजीव गांधी भगीरथ कहे जाने पर भी गंगा की सफाई न कर सके तो हम क्या करेंगे। बी.जे.पी. तो सकेगी ही नहीं।
पर कुरियाने में अल्लू के समर्थकों को डिगाना मुश्किल था। कुरियाने के वोटों के मध्यस्थ एक वकील साहब थे जो प्रत्येक चुनाव में कुरियाने के लोगों के विश्वास पात्र थे क्योंकि वे वोट के बदले मोटी रकम दिलवाते थे। उन पर लोगों का बड़ा भरोसा था। नागराज के समर्थकों ने उन वकील साहब को पकड़ा। वकील साहब पढ़े लिखे थे तथा निराला के भक्त थे। अतः उन्हें अपने नायक के लिये दलाली करना उचित प्रतीत हुआ ताकि उनकी आत्मा तथा ईमान बाद में उन्हें न कुरेदे। वकील साहब ने कम-से-कम पैसा लेकर कुरियाने के दो सौ वोटों का नागराज के लिये सौदा तय कर लिया तथा साथ में अपना मेहनताना भी रख लिया।
नागराज के समर्थकों ने जोड़-बाकी की तथा पाया कि नागराज के विरोध में दो ही प्रकार के लोग थे जो या तो कट्टर जातिवादी थे तथा केवल जाति के नाम पर ही वोट देते थे और कुछ कट्टर रिश्वतखोर थे जो केवल पैसे लेकर वोट देते थे। नागराज के पैसे लगाने से अब चुनाव का पलड़ा नागराज के पक्ष में झुक गया।
वोट डालने के एक दिन पूर्व की काली रात आई जब विस्तृत पुलिस बंदोबस्त तथा चुनाव प्रचार के थम जाने से चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था पर कोई अपने के व्यक्तिगत सम्बन्धों के जरिये दूसरे के घर जा ही सकता है। प्राक्तन पार्षद की चुनाव में साख लगी थी। उसने अपनी पार्षद की पांच वर्ष की सम्पूर्ण आमदनी को चुनाव-प्रचार में झांेक दिया तथा अपने कट्टर समर्थकों तथा रिश्तेदारों को चार-पांच लाख रूपए देकर घर घर दौड़ाया। उन्हें आश्चर्य हुआ कि तथाकथित न बिकने वाले लोग भी बिकने को तैयार थे पर उनकी कीमत कुरियाने के वोट से पांच छः गुना थी। उनका लालच था- ''यदि तीस पैंतीस हजार रूपए घर बैठे आ जाय, तो क्या खराब है?'' कुरियाने के सभी लोगों ने चेयरमैन के पद के लिये खड़े प्राक्तन चेयरमैन से भी खाना, शराब के अतिरिक्त जो पैसा मिला, वह लिया। फिलहाल चुनाव के समय नगर में गरीब लोगों की खूब खातिर हुई। उन्हें जो मुड़कर भी नहीं देखते थे, वे सामना होने पर चाचा-चाची, कक्का-कक्की, बहू बोलकर दुआ-सलाम करने लगे। अपनी मोटर साइकिल पर बैठाने लगे। कोई-न-कोई जुलूस प्रतिदिन निकलता है। जुलूस में जाने पर एक सौ रूपया तथा खाने का पैकट मिलता था तथा पूर्व चेयरमैन के घर के सामने तो सब समय लंगर लगा ही रहता था।
बस प्राक्तन पार्षद आगे निकल गया। अल्लू भी धराशायी हो गया। नागराज महज तीन मतों से हार गया। उसके पक्ष में पन्द्रह मत अमान्य हो गये क्योंकि उन मतदाताओं ने नागराज के नाम के सामने अंगूठा लगाया जबकि उन्हें निर्धारित मुहर लगाना चाहिए थी। नागराज को अपने जीवन का बहुत बड़ा सदमा लगा। वह अपने को निराला का उत्तराधिकार समझकर वार्ड का प्रथम नागरिक समझता था। उसका आत्मसम्मान धूल धूसरित हो गया। वार्ड के लोग शनैः शनैः साहित्यिक अस्मिता को विस्मरण कर रहे हैं। युवा वर्ग का कहना है- ''हम कब तक निराला, जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी तथा अन्य हिन्दी विद्वानों का नाम पीटते रहे। उनके नाम से हमें नौकरियाँ तो मिली नहीं और न ही उनके नाम के कारण वार्ड की विशेष तरक्की हुई है। हमें वह व्यक्ति अपना नुमाइन्दा चाहिये जो आजकल भागदौड़ करके हमारी समस्याओं को सुलझा सके। आजकल केवल बड़े नाम का चस्पाँ लगाने से कुछ नहीं होता।''
नागराज को सबसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि पिछड़े मौर्य समाज ने एकजुट होकर विजयी प्रत्याशी के पक्ष में मतदान किया क्योंकि वह उनका जाति-बंधु था। नागराज ने अपने समर्थकों से अपनी निराशा प्रकट करते हुये कहा- ''यह मेरा प्रथम एवं आखिरी राजनीति में अंशग्रहण है। भारत की राजनीति को खुदा ही बचाये। यदि जाति एवं पैसे के आधार पर ही जीत-पराजय का फैसला होना है, तो हमें यह परिश्रम करने की क्या आवश्यकता थी? मुझे इन अशिक्षित, स्वार्थी एवं लालची मतदाताओं के सामने अपनी झोली फैलानी की क्या आवश्यकता थी? दादा जी ने किसी के सामने हाथ नहीं जोड़े जबकि वे भूखे मरते रहे, हमारे पिता जी तथा बुआ के इलाज के लिये उनके पास पैसे नहीं थे। उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू से भी कह दिया ''वे चाहे भारत के प्रधानमंत्री हो, पर मैं लोगों के दिलों का प्रधानमंत्री हूँ। उन्हें ही मुझसे मिलने आना होगा।'' राजनीति तथा राजतंत्र से वे सख्त घृणा करते थे। इसीलिये वे महिषादल राज में अपने पैतृक निवास को छोड़कर दारागंज, प्रयाग आये। उन्होंने सोचा कि त्रिवेणी का किनारा तथा समित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, फिराक गोरखपुरी प्रभृति अनेक साहित्यकारों की कर्मस्थली प्रयाग उनकी साहित्य-साधना में अति सहायक होगी। पर शनैः शनैः उनकी यह धाराणा बाधित होती गई। मुझे तो अब प्रयाग इलाहाबाद में साहित्य के अवशेषों के अतिरिक्त कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता।''
अल्लू की भी पांच वर्ष की कुरियाने की सेवा एवं समर्पण पैसे के आगे पासंग हो गई। अल्लू ने अपनी हार से क्षुब्ध होकर एक स्थानीय
टी.वी. चैनल में कहा ''मुझे मेरी हार पर हताशा नहीं है पर मुझे अफसोस है कि ऐसे उम्मीदवार पैसे के बल पर तथा माफिया इलाहाबाद महानगरपालिका के लिये निर्वाचित हो गये हैं जिसके मेयर सन् 1930-31 में पंडित जवाहर लाल नेहरू थे। नागराज के समर्थकों ने समझाया- ''एक हार से इतना निराश होने की आवश्यकता नहीं। प्रथम बार तो राजनीति में सभी को धक्का लगता है। राजनीति प्रत्येक प्रवेशार्थी की धैर्य परीक्षा करती है। भविष्य आपके साथ खड़ा है। हमें और अधिक समाजमूलक कार्य करने चाहिये ताकि हम आगामी चुनाव में सफल हो सके। फिर आपके साथ हमारा भविष्य भी तो जुड़ा हुआ है। वास्तव में कुरियाने के गरीब लोगों ने हमें ठीक ही वोट दिये जिन्होंने हमसे पैसा ले लिया था। उन्होंने जीते प्रत्याशी से अधिक रकम नहीं ली। पर क्या करें? उनकी महिलाओं ने गलत तरीके से वोट दे दिये। हमें उन्हें समझाना चाहिये था कि वोट किस प्रकार देना है। भूल हमारी है। हम ही अपनी पराजय के लिये जिम्मेदार हैं। बेईमानी तो उन तथाकथित सम्पन्न एवं सवर्ण जाति के लोगों जैसे जैन, पंडित आदि ने की जो प्राक्तन पार्षद से बिक गये। यह कौन सोच सकता था? यह हमारी सोच से बाहर था। उन्होंने चुनाव की रात्रि के समय यह फैला दिया कि हमने वोट खरीद लिये हैं। बस, किनारे पर खड़े मतदाताओं ने दूसरी ओर रूख कर लिया। हम अपनी जीत से कुछ अधिक आश्वस्त हो गये थे। कभी भी किसी संग्राम में विरोधी को कमजोर नहीं समझना चाहिए।''
नागराज की हार का समाचार विद्युत की भांति चारों ओर फैल गया। मीडिया से लेकर सभी एक ही सीट पक्की समझते थे, वह थी नागराज की जीत। पर ऐसा स्थानीय पांसा पलटा कि इलाहाबाद विस्मित रह गया। ऐसा ज्ञात हुआ कि मतदाता देश-दुनिया की खबर रखता ही नहीं, वह केवल स्थानीय मुद्दों पर वोट देता है तथा अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों तथा व्यक्तिगत हित को सर्वोपरि समझता है। नागराज के मुख्य रणनीतिकार ने कहा- ''अभी भी कुछ नही बिगड़ा। हम इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक रिट डाल सकते ताकि नागराज को अवैध मतों को वैध मत मानकर विजयी घोषित किया जाय। दूसरे नागराज को भाजपा सरकार द्वारा इलाहाबाद महानगरपालिका में सरकार की ओर से प्रतिनिधि नामित किया जाय।''
नागराज ने कहा- ''मैं उच्च न्यायालय तो जाना नहीं चाहता। कौन वकीलों के चक्कर लगाये? फिर न्यायाधीशों को वादी के प्रति न्याय-अन्याय से सरोकार नहीं रहता। वे तो कानून के शुष्क प्रावधानों को पीटते रहते हैं। कई न्यायाधीशों को तो निराला जी की विरासत के विषय में ही ज्ञान नहीं होगा। फिर हम अपने आवेदन में निराला जी का नाम ला ही नहीं सकते। हाँ, यदि सरकार मुझे नामित कर दे, तो मुझे आपत्ति नहीं होगी।''
नागराज के मुख्य रणनीतिकार ने सुझाव दिया- ''आपको नामित होने के पूर्व बी.जे.पी. में शामिल होना पड़ेगा। उसकी प्राथमिक सदस्यता ग्रहण करनी होगी।'' ''पर मैं कैसे भाजपा में जा सकता हूँ। भाजपा को 'भिक्षुक' तथा 'वह तोड़ती पत्थर' विचार से कोई सरोकार नहीं है। वह तो धनी लोगों की पार्टी है। मैं कैसे दादा जी की विचारधारा एवं सोच के विरूद्ध जा सकता हूँ।''
''पर राजनीति में यह सब करना पड़ता है। बाद में उसमें प्रवेश करके आप राजनीतिक दल की विचारधारा में शुभ परिवर्तन का प्रयास कर सकते हैं।''
नागराज के समर्थकों ने जीते हुये प्रत्याशी की शिकायत आयकर विभाग में कर दी। आयकर विभाग ने जांच में सही पाया कि वोट के दिन से एक दिन पूर्व उसके फर्म तथा उसकी पत्नी के खातो से पांच लाख रूपए की निकासी हुई थी। आयकर विभाग का उससे लाखों रूपए टैक्स भी बकाया था। बस, जीते प्रत्याशी की खुशी गम में बदल गई। उसे लाखों रूपए टैक्स तथा जुर्माना भरना पड़ा। नागराज के समर्थकों ने नागराज को भाजपा सरकार की आरे से पार्षद नामित होने की मुहिम तेज कर दी। दूसरी ओर जब नये पार्षद के पास मतदाता अपनी समस्याएं लेकर पहुँचे तो उसका साफ जवाब था- ''पहले पैसा लेकर आओ। पैसे के बदले जो तुमने मुझे वोट दिया था।'' कुछ समय बाद भाजपा का उच्च नेतृवर्ग नागराज को नामित करने पर सहमत भी हो गया पर उसके पूर्व एक शर्त थी कि नागराज भाजपा की सदस्यता ग्रहण करे। नागराज ने सोचा- ''दो दुष्टों में कम दुष्ट को स्वीकार करना नीति कहती है। कम-से-कम भाजपा हिन्दी एवं भारतीय संस्कृति की पोषक है तथा इस दल में भ्रष्टाचार भी अन्य राजनीतिक दलों की अपेक्षा कम है।''
नागराज ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की और वह इलाहाबाद महानगरपालिका का नामित सदस्य बन गया। इसके बाद उसने निश्चय किया कि वह बाबा निराला की पुस्तकों से प्राप्त सभी मानदेय से उनके नाम पर एक पुरस्कार रखेगा जो प्रत्येक वर्ष हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ विद्रोही कवि को दिया जायेगा। इस प्रकार एक व्यक्ति पतन के गर्त में जाने से बच गया। समाज तथा समय इतना खराब नहीं है।
(कहानी)गली बिकती है