एक स्त्री का मुखर स्वर नीरजा हेमेंद्र
अपने पदचाप नहीं छुपा पाता वह / पदचाप की ध्वनियां विह्वल करती हैं ।

पेशे से शिक्षिका नीरजा हेमेन्द्र सामाजिक सरोकारों को सहेजने वाली एक ऐसी कहानीकारा हैं जो जीवन के उतार चढ़ाव के बीच सामंजस्य बैठाते हुये दृढ़ विश्वासों को एवं आत्मनिर्भरता को महत्व प्रदान करती हैं। उन्होने हिंदी को एक से बढकर एक कहानियां दी हैं। उनकी कहानियों में ज्यादातर काहानियां स्त्री जीवन के विभिन्न पहलुओ को स्पर्श करती हैं। अक्सर होता है लेखक/कवि जिस पर आपको लिखना होता है वह आपसे पूर्व परिचित होता है तो आप उसके हाव और भाव से परिचित होते हैं और लिखना भी आसान हो जाता है किंतु आप जिस पर लिख रहे हो या फिर लिखना चाह रहे हो उसके बारे में बहुत कुछ नहीं जानते हो तब उसका कृतित्व ही आपके लिये लिखने का एक मात्र उपाय होता है और ऐसे में उस पर अपनी कलम चलाना न केवल आपके लिये चुनौतीपूर्ण हो जाता है बल्कि आपके लिए श्रमसाध्य होने के साथ ही साथ महत्वपूर्ण भी हो जाता है । ऐसे में आपको बड़ी सावधानीपूर्वक अपने कदम बढाने पड़ते हैं। मेरे लिये भी नीरजा हेमेंद्र पर लिखने का अनुभव कुछ कुछ इसी तरह का रहा है । 

                     स्वप्न,मेघ, उन्ही रास्तों से गुजरते हुए,मांसून और मन, ढूंढकर लाओ जिंदगी, बारिश और भूमि, अमलतास के फूल, जी हां, मैं लेखिका हूँ, पत्तों पर ठहरी ओस की बूंदे,अपने अपने इंद्रधनुष उनकी रचनाये हैं । वे राष्ट्रीय,अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में निरंतर छपती रही हैं ।मेरा उनसे प्रथम परिचय उनकी से ही हुआ । यद्यपि मैं कई बार लखनऊ कर्यक्रमों में सहभागिता करने जा चुका था लेकिन कभी भी उनसे मुलाकात नहीं हुई किंतु मै संचार के माध्यमो से उनकी कविताये और कहानियां पढता रहा हूँ शायद यही संचार के माध्यमो ने मुझे उनकी कहानियों पर लिखने के लिये प्रेरित किया।

                उनका नवीन कहानी संग्रह “और एक दिन ” एक ऐसा कहानीसंग्रह है जो वास्तव में एक स्त्री के विभिन्न अनछुये पहलुओं को उजागर करता एक अद्वतीय ग्रंथ है जो उन महिलाओं के लिये प्रेरणा स्रोत है जो अक्सर युवावस्था के आवेश में निर्णय लेकर जीवन की जंग में अपना सब कुछ खो देने के पश्चात आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध की ओर अग्रसर होकर अपना जीवन समाप्त कर लेती हैं । नीरजा जी ने ऐसे में एक जागरूक नागरिक की तरह उनके जीवन में उम्मीद के प्रकाश की किरण लाने का प्रयास करती नज़र आती है। उनकी कहानियां जहाँ एक ओर समाज के खोखलेपन को दर्शाती हैं वहीं उस खोखलेपन के विरुद्ध हूंकार भी भरती हैं। फिर इसके लिये चाहे उसे परिवार से भिड़ना पड़े या समाज से इसकी वे परवाह नहीं करतीं हैं । 

                 संग्रह "और एक दिन" की पहली कहानी “एक ऋतु ऐसी है” जिसमे कहानीकारा ने एक ऐसी औरत की कहानी बताने का प्रयास किया हैं जो कालेज के दिंनो में एक ऐसी लड़की है जो लगन से पढ़ती है और विवाह के सुंदर सपने देखती जैसा कि प्रत्येक लड़की विवाह से पूर्व देखा करती है किंतु सबके सपने पूरे हो ऐसा कहाँ सम्भव होता है।अक्सर देखा जाता है पुरुष प्रधान समाज में औरत को दोयम दर्जे का माना जाता है एवं औरत में मत्थे समस्त कार्यों की जिम्मेदारी मढ़ दी जाती है और पुरुष के निकम्मे होने पर भी समस्त दोष स्त्री का ही माना जाता है ।जैसा कि कहानी के कथ्य से स्पष्ट है- 

तुमसे यह सोचकर विवाह कर लिया था/ कि पी0एच0डी0 कर रही हो तो शीघ्र नौकरी मिल जायेगी/जाने कैसी है तुम्हारी पी0एच0डी0 जो अब तक तुम्हे नौकरी नही मिली?  

          इसके साथ ही साथ लड़कियों के प्रतिबंधों को भी उज़ागर करने का प्रयास किया है कि किस प्रकार एक लड़की विवाह पूर्व होने वाले पति से बात करने में संकोच एवं लज्जा का अनुभव करती है। कैसे एक लड़की जब एक स्त्री में तब्दील होती है तो उसके सपने उसकी इच्छायें मटियामेट हो जाती हैं ।

               एक एडहाक शिक्षक या यूं कहें कि अस्थाईपन मन में कितने अजीब अजीब अनिश्चितता के भाव उत्पन्न करता है कहानी पढते हुये पाठक स्वयं को कहानी के एक पात्र के रूप में पाता है जो अस्थाई है और इन्हीं विकट समस्याओं से जूझ रहा है । जैसा कि सौम्या को जुझना पड़ रहा था। ऐसा लगता है जैसे  कहानीकारा स्वयं ही इस कहानी की एक पात्र हो जो अस्थाई शिक्षिका के रूप में अपना प्रथम दिन गुजारा हो और उनकी स्टूडेंट जिसे उन्होने ईशिता नाम दिया है उनकी कोई करीबी मित्र हो जो काबिल होते हुये भी युवावस्था की दहलीज पर पांव रखते हुये एक गलती कर बैठती है जिसे वह प्यार समझती है और धोखा खाती है जिसके कारण वह पूरी तरह टूट जाती है किंतु अपनी योग्य शिक्षका जो शिक्षक कम सहेली ज्यादा थी के उचित मार्गदर्शन से ठीक होकर प्रदेश सरकार की सर्वोच्च परीक्षा (पी0सी0एस0) पास कर अपनी श्रेष्ठ शिक्षिका को बताकर अपने उद्देश्यों और आदर्शों पर चलने का संकेत देती है। उसकी इस बात को सुनकर मानों लेखिका के सपनों को पंख लग गये हो और वह जिंदगी की उड़ान भरने को तत्पर हो ।

                वहीं “समय के पन्नों पर” कहानी आज के व्यस्ततम जीवन की कड़वी सच्चाई व्यक्त करती हुई एक ऐसी कहानी है जहाँ पर व्यक्ति के पास परिवार के लिये समय नहीं है भागदौड़ भरी जिंदगी एवं रोजी-रोटी के जुगाड़ ने एकाकी जीवन को बढ़ावा दिया है। कहानीकरा ने मुख्य पात्र राममूर्ति और उसकी पत्नी रागेश्वरी के माध्यम से कहानी के कई तथ्यों को उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार एक सामान्य सा कर्मचारी अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुये अपने जीवन की गाड़ी को आगे बढ़ाता हुआ एकाकी जीवन जीने के लिये अभिशप्त है । किस प्रकार इच्छओं की आहुति जीवन के यज्ञ पर देनी पड़ती हैं किस प्रकार टूटे सपनों को संजोकर जीवन पथ पर चलना पड़ता है? कहानीकारा ने बड़ी ही खूबसूरती से भूमण्डलीकरण से होते नुकसानों को भी बताने का सफल प्रयास किया है भले ही उन्होने मात्र आव्रजन को मुद्दा बनाया हो किंतु हक़ीकत में उस दुखती हुई नश को स्पर्श करने का प्रयास किया है जिसे समझने व पकड़ने में अक्सर लोगों का पसीना छूट जाता है। नीरजा जी ने उसे बड़ी ही खूबसूरती के साथ व्यक्त करने में सफलता प्राप्त की है । इसके साथ ही सेवा निवृत्ति को नीरसता और भावनात्मकता से जोड़ने का प्रायास भी किया है किस प्रकार एक व्यक्ति नियमित से अनियमित होने का दंश झेलता है? किंतु हार ना मानते हुये बच्चों के लिये नि:शुल्क शिक्षा हेतु आयुष्यमान शिक्षण संस्थान खोलकर और उसमे अपनी पत्नी रागेश्वरी के सपनों को साकार कर भविष्य खोज लेता है। 

              “पत्तों पर ठहरी ओस की बूंदें” में लेखिका ने दिखाने का प्रयत्न किया है कि किस प्रकार आज भी जब हम सूरज और चाँद की दूरियों को नाप लेने का दम्भ भरते हैं और स्त्री-पुरुष के बराबरी की झूठी बातें करते हैं ऐसे समय में भी सामान्य स्त्रियों की बात तो छोड़ दो अच्छे खासे ओहदों पर काम करने वाली स्त्रियों को भी कार्य स्थलों से आने के पश्चात बच्चों के पालने से लेकर घर चलाने तक के सारे कार्य करने पड़ते हैं और इसके बाद भी उसे उचित सम्मान नहीं मिल पाता बल्कि बदले में घुटन भरी जिंदगी और प्रताड़ना ही सहनी पड़ती है। इसके बावजूद भी एक स्त्री कार्यों को बाखूबी अंजाम देती है। जैसा कि कहानी के कथ्य से स्पष्ट है-

 “ये तुम्हारा काम है/मुझ पर कोई एहसान नही कर रही हो/मेरी बात पूरी भी ना हो पाई थी कि और प्रत्यूस झगड़ने के मूड मे आ गया था/तुमने आने का समय पूछा मैंने बताया कि घर का सामान लेते हुये आयी हूँ/”मैने धीरे से कहा/ मेरे घर मे तुम अफसर हो जो मुझे बातें सुनाओगी/”

 

                   किंतु जब संवेदनाओं की सारी सीमायें टूटकर बिखर जाती हैं तब एक स्त्री हुंकार भरती है और अपनी अलग राह चुनकर अपना जीवन यापन करने लगती है जैसा की कहानी की नायिका कहें या मुख्य पात्रा कहें अपने पुराने साथी मानव में अपनत्व खोजती और मानव भी उसमे अपनी मंजिल देखता है और दो किनारे जो अभी तक दूर दूर तक बिखरे पड़े थे अब अपने सुख दुख के पलों को एक दूसरे से बांटकर खुश रहने लगे । नीरजा जी काहानी की मुख्य पात्र के मुख से यह कहने का साहस करवाया कि विवाहेत्तर सम्बंध जैसा कि नायिका और मानव के मध्य था वह गलत नहीं था। कही ना कही भारतीय परिवार व्यस्था के नकारेपन के विरुद्ध टूटती परम्पराओ का विद्रोह है इसीलिये वे कहती हैं –

“कभी मैं सोचती हूँ कि ढलती सांझ को भी मानव जैसा साथी मिल जाता होगा जो पथ प्रदर्शक तारे सा साथ चलता होगा”।

          “गुमशुदा दिनों की तलाश”कामकाजी महिलाओं के जीवन को दृष्टि में रखकर लिखी गई यह कहानी एक ऐसे परिवार से सम्बंधित है । जहाँ पर हर कार्य औरत के हिस्से ही आता है किंतु वह इसके बाद भी इन सबके मध्य सामंजस्य भिड़ाने का हर सम्भव प्रयास करती है भले ही उसे उसकी कीमत कितनी भी क्यों ना चुकानी पड़े? निधि जो एक कार्यालय में काम करती है उसका बॉस आहान और उसकी अधूरी प्रेम काहनी है जो बिन पत्तों की ओस की बूंद की भांति ढुलककर धूल धूसरित हो गई थी किंतु खत्म नहीं हुई जैसे दूब गर्मी आने पर सूख जाती है और पानी की चंद बूंदों से पुन: हरिया उठती वैसे ही निधि और आहान का प्रेम भी मौसम के बदलते मिजाज पर हरिया उठता है। घर में रोज रोज की चिक-चिक और मारपीट की घटनाओं ने निधी को अंदर तक हिलाकर रख दिया था। वह अब उन दिनो के बारे में सोचने लगी थी जब वह राहुल से विवाह करने के निर्णय पर मुहर लगा दी थी। “जीवन के अनुभव हमे बहुत कुछ सिखा देते है किंतु व्यक्त नहीं” ।

            “और एक दिन” में लेखिका ने नारी जीवन की दूरूहतओं एवं जटिल समस्याओं जिनमें बलात्कार जैसी बीभत्स और अमानवीय घटनाओं के प्रति समाज के नज़रिये और उससे होने वाले प्रभाव को चित्रित किया है। एक अबोध बालिका जिसे संसार के शब्दों का क,ख,ग भी नहीं मालूम होता बलात्कार जैसी त्रासदी झेलती है जिसकी काली परछाई ताउम्र उसका पीछा करती है। चाहकर भी जिससे अपना पीछा छुड़ा पाना उसके लिये नामुमकिन होता है। यहाँ तक कि पवित्र प्रेम भी उसे छलावा की तरह प्रताड़ित करता है और निश्छ्ल प्रेम को भी तिलांजलि देना वह अपना नैतिक कर्तव्य समझने लगती है। प्रेमपास में बांध जिंदगी को त्रासद बनाने से बेहतर उसे नन बनकर समाज सेवा में लगाना बेहतर समझ आता है। जहाँ पर बेवजह की पूंछतांछ की समस्त सम्भावनाओं से मुक्ति मिलती है जो उसके जीवन के स्याह पलों की यादों को बेवजह कुरेदकर उसे और अधिक दुखी बनाते है । 

                  नीरजा जी की यह कहानी हाँशिये पर खड़े समाज में बलात्कार जैसी अमानवीय घटनाओं के प्रति समाज के नज़रिये को दिखाने का एक प्रयास है जहाँ पर एक अबोध बच्ची बलात्कार की शिकार होती है और इसको अंजाम देने वाला उसी समाज से आता है और रिश्ते में चाचा लगता है। बच्ची की जिंदगी तवाह कर देता है और समाज में बड़े एत्मीनान से रहता है और अबोध बच्ची के परिवार वालों को वह सब सुनना पड़ता है जिसके वह हकदार भी नहीं होते। यही नहीं उन्हे अपनी बच्ची से भी हमेशा-हमेशा के लिये दूरी भी बनानी पड़ती है इसके बावजूद समाज द्वारा उनके तिरस्कार का सिलसिला रुकने का नाम नहीं लेता। और अंत में उन्हे घर द्वार छोड़कर गुमनामी के अंधेरे में रहने को विवश होना पड़ता है। समाज में प्रताड़ना के क्रम में स्त्रियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है जो एक स्त्री के कराहते दर्द से गिरे प्रत्येक आँसू को भी अपराधी ठहराने का कोई अवसर नहीं छोड़ती हैं। 

                “सुनो रेचल सुनो” कहानी नीरजा हेमेंद्र की कहनियों में से एक ऐसी कहानी है जो समाजिक छ्ल छ्द्मों का अनावरण करती है। जब हम सभ्य और आधुनिक होने का दम्भ भरते है ऐसे समय में भी हमारा समाज जाति धर्म के बंधनो से अपने को मुक्त नहीं कर पाया है ना ही उससे मुक्त होने का प्रायस करने वालों को ही मुक्त होने की इजाजत देने को तैयार होता है। और यदि मामला दो दिलों के एक होने का हो तो यह और भी मुश्किल हो जाता है सुनो रेचल कहानी के माध्यम से लेखिका ने यह भी दिखाने की कोशिश की कि किस प्रकार चंद स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ के लिये पूरे समाज को तोड़ने का प्रयास करते हैं। या यूं कहें कि उनके द्वारा समाज के लिये पूर्व में किये गये कार्यों को भुलाकर उन पर धर्मांतरण का आरोप लगाकर हमला कर जान से मार देने की कोशिश भी करते हैं । समाज के ठेकेदार समाज के अमन चैन को सेंध लगाने की हर सम्भव कोशिश करते हैं और ज्यादातर मामलो में सफल भी हो जाते हैं। जैसा कि रेचल के पिता के मामले में किया गया। उनके द्वारा किये गये जीवन भर के एहसानों को भुलाकर उन्हे हमेशा हमेशा के लिये मार दिया जाता है जिससे जो जमाते हमेशा साथ साथ रहतीं थीं सदा सदा के लिये अलग रास्ते पर चल पड़ीं । यही दो रास्ते रेचल और आर्यन के निश्छ्ल प्रेम को भी धर्मांधता की बलि पर चढा देना चाहते हैं किंतु समय की गति के माध्यम से नीरजा हेमेंद्र ने उन्हे पुन: एक कर नफरत को हमेशा हमेशा के लिये मिटाकर एक स्वस्थ समाज के निर्माण की ओर कदम बढने का प्रयास किया है । 

          'मैं तुम्हारी दुनिया में रहती हूँ अभिजीत' आज के समाज में एक अकेली स्त्री का अकेली रहना किसी अपराध से कम नहीं समझा जाता है उस पर समाज की निगाहें हमेशा चढी रहती हैं। यदि वह स्त्री नवयौवना हो तो उसका जीना और भी दूभर हो जाता है। लेखिका ने अपनी इस कहानी में रेडलाइट एरिया के माध्यम से एक वैश्या या यूँ कहें कि समाज के सबसे अधिक उपेक्षित वर्ग की पीड़ा को उकेरने का प्रयास किया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। समाज में एक वैश्या का जीवन कितना दुरुह होता है यह दिखाने का प्रयास नीरजा जी ने किया है । अपने को सभ्य कहने वाला समाज उससे घृणा करता है। यद्यपि समाज का हर पुरुष उस रास्ते जाना चाहता है किंतु जब अपनाने की बारी आती है तो वही आदर्शवादी चोला धारण कर अपने को आदर्श दिखाने का हर सम्भव प्रयास करता है और उसकी हिमायत करने वाले हर शख्स से नफ़रत करने लगता है यहां तक कि रिश्तों को भी खत्म करने से गुरेज नहीं करता है। वह यह समझने के लिये कदापि  तैयार नहीं होता है कि आखिरकार उस औरत को रेडलाइट एरिया में पहँचाने वाला एक पुरुष ही होता है । वह यह स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं होता कि वह औरत जो इस धंधे मे जबरन धकेल दी गई है मज़बूरीबस ऐसा करने को विवश है। और यदि उसे अवसर मिलता है तो वह इसे छोड़ने में कतई गुरेज नहीं करती जैसा कि उक्त कहानी में धरती द्वारा करने का निर्णय लिया जाता है। यद्यपि अभिजीत के द्वारा धरती को अपनी अर्द्धाग्नी बनाने का निर्णय लिये जाने पर उसका परिवार ही उसे अस्वीकृत कर देता है इतना ही नहीं उसे जहर देकर मार भी देता है किंतु धरती जो कि रेडलाइट एरिया की एक स्त्री है अभिजीत की बच्ची जो उसके गर्भ में है उसे पढ़ा लिखाकर इस योग्य बनाती है कि वह जीवन में अपना मुकाम हाशिल कर सम्मानजनक जिंदगी जीते हुये समाज के निर्माण में अपना अमूल्य योगदान देने की दिशा में आगे बढती है । 

       “कुछ ना कहो” बनते बिगड़ते सामाजिक रिश्तों की दास्तन है। कहानी एक मुस्लिम परिवार से सम्बंधित है जो शहर में रहता है और दकियानूशी विचारों से मुक्त है किंतु स्वार्थपरता में आकंठ डूबा हुआ है। गांव जो कभी पिछड़े होते थे जहाँ विकास की किरण तक नहीं पहुँच सकी थी। आज समस्त आधुनिक सुख सुविधाओं से लैस हैं। एक मुस्लिम परिवार की लड़की जो सुशिक्षित और नौकरीपेशा भी है जिसने अपने जीवन का रास्ता स्वयं तलाश लिया है उसे दकियानूसी समाज में कोफ्त भरी निगाहों से देखा जा रहा है। यद्यपि उसमें प्रेम है,समर्पण है,किंतु स्वाभिमान भी है और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिये दकियानूसी प्रेम तक को भी ठुकराने का माद्दा रखती है। वह अपने स्वाभिमान को उड़ान देना चाहती है। इसीलिए अपने सपनों को नाज़िया में संजोकर समाजकि सड़ी गली मान्यताओं को नकारकर एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहती है जिसमे एक स्त्री भी पुरुष के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चल सके साथ ही बराबरी के साथ समाज के निर्माण में अपनी भागीदारी कर सके। उसे अपनी मर्जी के जीवनसाथी चुनने अपने अनुसार अपना जीवन जीने की स्वतंत्रता हो ।

              “पीले दरख्त” हर बसंत के बाद पतझर आता है जो जीवन की खुशियों को ना जाने कहाँ गुमा देता है जिसे ढ़ूंढ पाना आसान नहीं होता है। उद्दीप्त चेहरे भी समय के आघत से पीले पड़ते पातों से झरने को उत्सुक हो जाते हैं। नीरजा ने इस कहानी के माध्यम से भूलते साहित्यकारों के दर्द को उकेरने की कोशिश की है। किस प्रकार एक ख्यातिलब्ध साहित्यकार भी समय के साथ भुला दिया जाता है। सुप्रसिद्ध बाल कहानीकार शलभ जी के माध्यम से उन सभी साहित्यकारों के दर्द को उकेरा है जो समय की आपाधापी में भुला दिये गयें हैं। एक बच्चा जो अब वृद्धवस्था की ओर बढ़ रहा है अपने प्रिय कहानीकार शलभ जी से मिलना चाहता है और उसकी मुलाकात कुछ यूँ हुई कि उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था खुद पर कि उसका आदर्श एवं प्रिय साहित्यकार उसे इन हालातों में और वहाँ मिलेगा जहाँ पर उन्हे पूंछ्ने और पहिचानने वाला कोई नहीं होगा और वह अपने सबसे बुरे दिनो में भिक्षाटन द्वारा अपना पेट पालने को मज़बूर होगा। उसे यह बात असहज कर देती है या यूं कहें कि समय के साये में खोते रिश्तों की परत उघाड़ती पहिचान खुलने से शलभ जी असहज होना और अपने जीवन यापन की अंतिम उम्मीद को भी छोड़ना एक दु:खद पहलू है। साथ ही साथ स्वार्थ के वशीभूत होते समाज की असंवेदंशीलता की कहानी भी है। किस प्रकार समय के साथ रिश्तों के मायने बदल जाते हैं और रिश्तों के दरख्त कब पीले पड़कर समय के अंधेरे में खो जाते हैं जिन्हे दुबारा खोज पाना लगभग असंभव होता है लेखिका द्वारा दिया गया शीर्षक निश्चय ही उस सत्य का उद्घाटन करता है जो अक्सर समय की गति में खो जाता है । 

                   “रेत और दीवारें” एक ऐसी कहानी है जिससे लगभग हर उस स्त्री को या यूँ कहें प्रत्येक स्त्री को दो चार होना पड़ता है जो योग्यताओं और उपाधिओं को लेने के बावजूद विवाहोपरांत घर गृहस्थी का कार्य करते हुये अपना कार्य करती है फिर भी तानों और गालियों को सुनने को विवश होती है जबकि पुरुष जो सब कुछ समझते हुये भी उसके साथ कभी भी खड़ा होने की जरुरत नहीं समझता है और एक स्त्री को मात्र भोग्या समझता है तथा घर के सदस्य विशेष तौर पर घर के बुजुर्ग जो अपने धन के अहंकार में डूबते उतराते रहतें हैं। बहू और बेटी को भिन्न नज़रिये से देखते हैं जहाँ बेटी को वह सब कुछ देना अपना कर्तव्य समझते हैं वहीं बहू से वे सभी जिम्मेदारियों की उम्मीद पाल लेते है और यदि किसी कारणवश उनमें से कुछ उम्मीदे उनके अनुसार पूरी नहीं हो सकीं तो उनके लिये उसे सहन कर पाना लगभग असम्भव हो जाता है। इसके एवज में प्रताड़ना के वे सारे उपाय अपनाने से नही कतराते जिन्हे सहज रूप में उन्हे भी अस्वीकार होते हैं वे उसे प्रताड़ित करने कोई भी अवसर हाथ से जाने नहीं देना चाहते हैं और इन सबसे आजिज आकर जब एक स्त्री अपनी योग्यता से आत्मनिर्भर हो जाती है तो उसके वेतन पर अधिकार की गिद्धदृष्टि गड़ाये रहते हैं । यहाँ तक कि अपने नकारेपन को छिपाने की हर सम्भव कोशिश करने के लिये स्नेह का मरहम लगाने का प्रयास करने से भी नही चूकते जैसा कि काहानी के पात्र शाहिल का अपनी खोखली और हिलती बुनियादों का वास्ता देकर पत्नी पर हक़ ज़माने की कोशिश करना है।

                    “पथ से गंतव्य तक” वैसे तो सेवानिवृत्ति किसी भी सेवा का एक अनिवार्य अंग है फिर व्यक्ति चाहे नियमित हो या अनियमित एक समय सीमा के पश्चात प्रत्येक नौकरीपेशा व्यक्ति के जीवन में अनिवार्य रूप से आती है। कोई उसे उत्साह के साथ स्वीकार कर लेता है तो कोई बुझे और भारी मन से। परन्तु प्रत्येक व्यक्ति को इस सत्य को स्वीकार करना ही पड़ता है। कहानीकारा ने इसी तथ्य को उद्घाटित करने के निमित्त कहानी का शीर्षक दिया है उन्होने यह दिखाने का प्रयास भी किया है कि एक निर्भीक उत्साही व्यक्ति भी समय के साथ अपने को असहज पाता है। पथ से गंतव्य तक निश्चित रूप से नकारात्मता के विरुद्ध उत्साह की एक जंग है जिसे जीतने का माद्दा हर व्यक्ति में होना चाहिये अन्यथा कि स्थिति में वह असमय ही बूढ़ा होकर खत्म हो जाता है। निराशा के समय में नायक का सोचना‌- 

“जीवन का सायंकाकाल धूसर होता है सार्वगर्भित है किंतु इससे कितने लोग निकल पाते हैं यह कह पाना ज़रा मुश्किल है” ।

                "खोल दो खिड़कियां" रूढ़िवादी समाज की रूढ़िवादी सोच के प्रति एक हुंकार के रूप में देखी जाय तो अतिशयोक्ति ना होगी । जब पुरानी पीढ़ी बने बनाये ढर्रे पर चलना चाहती है और नई पीढ़ी नये विचारों के साथ तो टकराहट होना अवश्यंभावी हो जाती है ऐसे में यदि दोनो पीढ़िया एक दूसरे से तारतम्य नहीं बिठाती तो एक के टूटने और दूसरे के बिखरने में देर नहीं लगती है और इस द्वन्द में अक्सर नये विचारो की प्रतिस्थपना होती है। कहानीकारा का भी उद्देश्य घिसकर जर्जर हो चुके मूल्यो के स्थान पर नये अर्थवत्तापूर्ण मूल्यों की स्थापना करना है। जिसमे वे पूर्णतय: सफल भी हुई है। निश्चित रूप से खोल दो खिड़कियां विचारों को नई ऊंचाई पर ले जाने में समर्थ हुई है। यह कहानी दो पीढियो के अंतर को दर्शाती है जिनकी सोच कार्यशैली सब कुछ भिन्न है ।    

                  "काठ की हाँडी" प्रेम की नई परिभाषा को नये ढंग से परिभषित करने के एक नायाब तरीके के रूप में लिया जाना चाहिये । समाज के हाँसिये पर खड़े लोगों के जीवन को दर्शाती इस कहानी में ट्विस्ट उत्पन्न करती है। नीरजा जी ने यह दिखाने का प्रयास किया है किस प्रकार समाज कमजोर वर्गो के साथ व्यहार करता है। उस पर यदि वह महिला हो तो वह और भी दुरुह हो जाता है। उसे अपना अस्तित्व बचाने के लिये क्या क्या नहीं करना पड़ता है? जैसा कि पियरिया और उसकी बहू सोनवा के साथ दबंगो द्वारा किये जाने वाले बर्ताव का प्रतिरोध अंजोर जिसे गांव के लोग बुद्धू कहा करते थे अंजोर के द्वारा उनकी रक्षा करना नीरजा जी की अपनी मौलिक अभिव्यक्ति है। साथ ही काठ की हाँडी के माध्यम से पवित्र और निश्छ्ल प्रेम को दर्शाने का प्रयास एक नव्य भावबोध को दर्शाता है। जैसे काठ की हाँडी मात्र एक बार आग पर चढ़ सकती है वैसे ही प्रेम भी जीवन में एक बार ही होता है ।

             इस प्रकार संक्षेप में कहा जा सकता है कि नीरजा जी को समाज की गहरी समझ है और वे अपनी इसी समझ का परिचय अपनी विभिन्न कहानियों में देती हैं । उनकी कहानियों में जितनी संजीदगी के साथ स्त्री जीवन में व्याप्त असमानतओं और दुरूहतओं को दिखाने का प्रयास किया गया है उतनी ही सजीवता संजीदगी के साथ के साथ धर्म और सम्प्रदायो द्वारा तुच्छ स्वार्थ के लिये फैलाई जा रही नफरत और हिंसा को भी दिखाया गया है जिनसे उकता चुकी नवीन पीढी हूंकार भरती नज़र आती है। उनके पात्र सामाज के विभिन्न क्षेत्रों से आते है। जो अपने अपने क्षेत्रो का प्रतिनिधित्व करते हैं। नीरजा जी अपनी कहानियों के तत्व अपने आस पास की समस्यायों से लेती है जो कुछ तो उनकी सवयं द्वारा भोगी गई है कुछ समाज के हाँसिये पर स्थित लोगो के द्वारा अनुभूत पीड़ा है। जिसे कलमबद्ध करके वे कहानी का रूप देती हैं जिसे पढता हुआ पाठक उसमें अपना कोना खोजने का प्रयास करता है। जो किसी भी रचनाकार की असली परीक्षा होती है जिसमें नीरजा हेमेंद्र पूर्णतय: सफल हुई है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि स्त्री विमर्श ही नहीं अपितु समाज के प्रत्येक वर्ग का चाहे वे हाशिये पर ढकेल दिया गया वर्ग हो या अनेक समस्याओं से जूझता श्रमिक वर्ग हो अथवा परिवार से उपेक्षित कर दिया गया वृद्ध हो सभी की समस्याओं और संवेदनाओं को यथार्थ के धरातल पर लाकर उनकी कहानियां परिचित कराती हैं ।