पुराने जमाने की बात है। हिमाचल के अंचल में एक छोटा सा राज था। प्रजा तो पहाड़ी जातियों की थी, लेकिन राजवंश सूर्यवंशी क्षत्रियों का था। राजघराने मंे शादी-ब्याह या तो आपस में होता, या नीचे के मध्य देश के क्षत्रिय घरानों में।
जिस समय की यह बात है-यहाॅ एक प्रतिभाशाली, विद्वान, कलाप्रेमी और वीर राजा राज करता था। उसे संगीत से प्रेम था, शिकार अच्छा खेलता, लेकिन उसे प्रेम न था। अपने राज के विस्तार के लिएउसने कभी शस्त्र नहीं उठाया। लेकिन बड़े-बड़े राजाओं को भी उसने एक गज भी अपनी जमीन न लेने दी। आमृत्यु उसे कोई पराजित न कर पायी। उसकी यह सफलता तीन बातों पर कायम थी- 1 बाहर के किसी छोटे या बड़े राज्य पर लोभ की आँखे उसने कभी न उठाई, 2 उसकी अपनी सामरिक और राजकीय कुशलता, 3 उसके राज का प्राकृतिक बचाव।
अपनी वीरता, कार्यक्षमता, विद्या, नीति और न्यायपरता से वह राजा इतना सर्वमान्य हुआ कि राजाओं की परिषदों मंे उसे ऊँचा से ऊँचा स्थान मिलता-उसक परामर्ष ध्यान और श्रद्धा से सुना जाता। अपने राज्य मंे तो उसे वह स्थान प्राप्त था जो कदाचित अपने काल मं जनकादि को प्राप्त हुआ हो।
राजा चन्द्रशेखर- यही उसका नाम था। ‘स्वान्तः सुखाय वीणा का अभ्यास करता और चित्र-लेखन करता। चित्रकला मंे तो उसने एक नयी प्रणाली पा शैली ही स्थापित की, जिसका मुख्य लक्षण था-चित्र की रेखाओं की नजाकत, पतलापन, नुकीला पन।
उसके चत्रि तलवार की धार की तरह होते। वह आॅकता भी ऐसी ही वस्तुएॅ जो लम्बी, पतली, नाजुक और नुकीली होती-जिनमें बेंत की सी लचक होती और सिरिस सुमन की नजाकत। वह औकता दूज का चाॅद, चमेली के फूल, सूर्यास्त की बारीक रंगीनियाॅ, पतली नाकंे, नुकीली छाती, कमल की कली, फयणधर की लपलपाती जीभें। चुटकी भर रेखाओं को लेकर उन्हें यो आड़े तिरछे साज देता कि तीर की तरह दिल मेें चुभ जाती।
उसकी प्रजा ठिगने कद की, चिपटी नाक वाली थी और उनके रूपरंग में वह कोई गुुण नही था जिसका वह आशिक था। यह अनुमान कदाचित किया जा सकता है कि नुकीलेपन का उसका यह इश्क शायद उसकी प्रजा की भोतरी सूरत का ही प्रतिवाद रूप था।
उसके मनोंरंजनों में दूज के चाॅद का नियमित दर्शन भी था। दूज का चाॅद मानों उसकी कला का मूर्त रूप था और वह उसको देख-देख कर मानों नया-नया अनुभव प्राप्त करता-नई-नई प्रेरणाएॅ तथा नया-नया रस। चाॅद का यह क्षणिक दर्शन उसे इतना प्रिय था कि हर महीने शुक्ल द्वितिया को, साॅझ होने से पहले ही वह महल की ऊँची से ऊँची अटारी पर जा बैठता या पहाड़ की ऊँची चोटी परी। और, उगते और अस्त होते चाँद को पुलकिंत मन से निहारता! साथ मंे कभी रानी होती, कभी बन्धु-बान्धव-कवि, कलाकार, अमात्य, सामन्त। जब नतक वह जीया,दूज के चाॅद के दर्शनों से न चूका। उसकी देखादेखी राज्य के ऊँचे घरानों में भी द्वितिया को चाॅद देखने की प्रथा चल पड़ी। धीरे-धीरे साधारण प्रजा में भी इसका चलन हो गया।
सत्तर वर्ष क आयंु में वह परलोकवासी हुआ। कुरूक्षेत्र तकशोक फैल गया। उसके पुत्र चन्द्रकेतु के राज्याभिषेक के अवसर पर भारत-वंश का चक्रवर्ती सम्राट भी उपस्थित था।
राजर्षि चन्द्रशेखर- उसकी प्रजा ने उसे ‘ऋषि’ कहकर उसक स्मारक अपने हृदय में बना लिया। उसके मरे हुए सैकड़ों हजारों वर्ष बीत गये, लेकिन उस पहाड़ी राज में अब तक शुक्लपक्ष की द्वितिया का मेला लगता और जिस चोट ी पर चन्द्रशेखर खड़ा होकर वक्र चन्द्र के दर्शन ‘स्वान्तःसुखाय’ करता था, उस पर खड़े होकर चाँद देखने का और ब्राम्हणों को पूजा देने का आज बड़ा महातम माना जाता। स्त्रियाँ विशेषकर इस पर्व में भाग लेती है और यह तीरथ पुत्र-दायक समझा जाता है।
लोकनायक जय प्रकाश नारायण की कहानी दूज का चाँद