कहानी - बोझ-


 


गर्मियों की झुटपुटी शाम थी। मैं रोज की तरह टहलकर लौट रहा था। रामलाल ने मुझे रोकते हुए माचिस माँगी। जबकि वह जानता था कि मैं बीड़ी या सिगरेट नहीं पीता। मैं भी जानता था कि वह धूम्रपान नहीं करता। बस्ती के मुहाने पर एकान्त में उसका माचिस माँगना, मुझे अटपटा लगा। उसकी आकुलता से ऐसा लगा कि वह तो जैसे मेरी प्रतीक्षा ही कर रहा हो।
वह पायजामे-बनियान में था, नंगे पाँव। उसकी घिस चुकी छेददार बनियान गीली थी और सिर भी भीगा था। मैंने पसीने से अधिक केरोसिन की गन्ध महसूस की। धुँधलके मंे दिखाई दे रहा था कि उसकी भांैहें सिकुड़ी हैं और परेशानी से मुँह खुला है। हैपी मुँह उठा-उठाकर उसे सूँघने लगा। हैपी मेरा पालतू कुत्ता है, जो टहलते समय सुबह-शाम रोज मेरे साथ होता है।
हमारी बस्ती शहर के छोर पर थी। बस्ती के बाद एक नाला था जिसमें दूर से आता रेल कारखाने का प्रयुक्त गन्दा पानी बहता था। नाले के पार ऊबड़-खाबड़ खुली जगह थी, जिसमें वनस्पति के नाम पर कहीं-कहीं घास, छुटपुट झाड़ियाँ और पत्थरों की छोटी-बड़ी चट्टानें थीं। लोगों के आने-जाने से पगडण्डी बन गई थी। वह अक्सर सुबह-शाम टहलते हुए मिल जाता था। रोज-रोज मिलने से हमारे बीच साहचर्य की भावना पनप गई थी। परस्पर इन्तज़ार-सा रहता था। मिलते ही हाथ उठाकर परस्पर अभिवादन होता। हैपी भी उसका अभिवादन करता, उसके पैर सूँघ-सूँघकर। हम साथ-साथ घर लौटते थे।
रामलाल शाम को कभी-कभार नागा मार जाता, पर सुबह तो वह प्रायः मिल ही जाता था। सुबह-सुबह वह रेललाइन के किनारे झाड़ियों में शौच से निपटता था। उसके हाथ में पानी से भरी या खाली प्लास्टिक की बोतल रहती थी।
हमारे बीच हल्की-फुल्की बातें हो जातीं। कभी मौसम के बारे में या शहर, मुहल्ले की किसी घटना पर या गुजरती हुई टेªन के बारे में कि साबरमती आजकल राइट टाइम जा रही है, उत्कल एक्सप्रैस में बड़ी भीड़ रहती है। लगभग पचास मीटर की दूरी पर रेललाइन थी। कभी-कभार वह अपने घर की बातें करता, जिसका अक्सर विषय होता कि उसका लड़का उस पर बोझ बना हुआ है और परेशान करता है।
मैं उसकी बातें कभी गौर से सुनता और कभी ऐसे ही। उसे ऐसा न लगे कि मैं उसकी बातों पर ध्यान नहीं दे रहा हूँ तो बीच में हाँ, हूँ के अलावा कभी बोल देता, ”वह बिजली फिटिंग का काम तो करता है मेहनत से।“
”अरे कहाँ बाबूजी! लग के नहीं करता। आलसी है। वैसे वो अच्छा कारीगर है, आईटीआई पास है। लेकिन जो थोड़ा बहुत कमाता है तो उसी दिन दारू पी के उड़ा देता है। घर में एक पैसा नहीं देता। उल्टा मुझसे पैसे की उम्मीद करता है। उसके बच्चों के सारे खर्चे मैं उठाता हूँ। आप ही बताओ, मेरी थोड़ी सी पेन्शन में क्या-क्या हो सकता है...“ वह शुरू हो जाता।
चलते-चलते उसका घर आ जाने पर बात वहीं खतम सी हो जाती और मैं तेज़ी से आगे बढ़ जाता। मुझे लगता, वह उधार माँगने की भूमिका तो नहीं बना रहा है!


उसका केरोसिन से भीगा होना, मुझसे माचिस माँगना, यह जानते हुए भी कि मेरे पास माचिस मिलने की कोई सम्भावना नहीं है और मेरा इन्तज़ार करना। उसके ये क्रियाकलाप मुझे पूर्ण नाटकीय लगे, जो शायद उसकी कोशिशें थीं कि उसकी समस्या को संज्ञान में लिया जाय और निवारण का कोई उपाय मैं सुझाऊँ। नाटक समझते हुए भी मैंने उसकी हालत को गम्भीरता से लिया और सान्त्वना देनी चाही, ”ऐसी क्या बात हो गई रामलाल! जो खुद को आग लगाना चाहते हो?“
”कुछ मत पूछो बाबूजी। आज मैं बड़ा दुखी हूँ। खुशी से मरना कौन चाहता है लेकिन मेरे लड़के ने आज ऐसी हरकत की है कि क्या बताऊँ...अब मेरा जीना दूभर है। आप ही बताओ मैं और क्या करूँ.. .।” कहकर वह चुप हो गया। उसने करुण स्वर में ऐसे कहा, जैसे अपने निर्णय पर मेरी सहमति चाहता हो।
”हुआ क्या ?“
”बाबूजी आज मैं बैंक से पेन्शन निकाल कर लाया था। मेरा लड़का चाहता है कि पूरे पैसे उसे दे दूँ। मेरे मना करने पर उसने झगड़ा किया। बहू के सामने मेरे साथ हाथापाई की और उल्टा-सीधा कहते हुए मेरे बाप होने को धिक्कारा...।“ उसकी आवाज भर्रा गयी और आँखों में आँसू भर आये।
मैंने उसके कन्धे पर हाथ रखा तो वह फफक पड़ा। उसके घुटे स्वर में हूक सी निकली, ”मेरी घर में कोई इज्जत नहीं बची। मैं क्या करूँ बाबूजी...?“
मुझे लगा कि उसे घनी सान्त्वना की आवश्यकता है। मैं उसके कन्धे पर हाथ धरे-धरे कुछ कदम आगे बढ़ाये। आगे बढ़ते हुये नाले की पुलिया पर हमदोनों बैठ गये। अब वह ख़ामोश था, एकदम गुमशुम। मैं भी चुप रहा। हैपी हम लोगों के पास कुछ देर खड़ा रहा, फिर जमीन पर बैठ गया।
”आजकल औलादों का कोई भरोसा नहीं रामलाल। हम लोग अपने माँ-बाप की कितनी इज्ज्त करते थे। मैं तुम्हारे लड़के को समझाऊँगा।“
”हाँ बाबूजी, वह आपकी बात मान सकता है। मुहल्ले में सब आपकी इज्जत करते हैं।“ उसने आशा व्यक्त की।
”जाओ, घर जाओ, नहाओ-धोओ। बर्दाश्त करो। ऐसे जलने-मरने की बात नहीं सोचते।“
वह तुरन्त उठ खड़ा हुआ। लगा, मेरी बात से वह सन्तुष्ट हो गया है। शायद वह ऐसी ही सान्त्वना चाहता था। हम साथ चल दिये। रास्ते में उसने सधे स्वर में कहा, ”बाबूजी, मरना कौन चाहता है! वह तो गुस्से में मैंने ही उसके सामने अपने ऊपर मिट्टी का तेल उँडेल लिया और घर से निकल आया। उसने मुझे रोका तक नहीं। मुझे इसी बात का मलाल है।“
चलते-चलते उसका घर आ गया। वह घर में चला गया और मैं अपने घर आ गया।
सान्त्वना देकर मैंने उसे लगभग शान्त तो कर दिया था लेकिन खुद बेचैन हो उठा। क्या पुत्र अपने पिता पर हाथ उठा सकता है! मेरा बेटा भी तो आँख दिखाने में नहीं चूकता। सीना फुलाकर कद ऊँचा करके खड़ा हो जाता है। हाथ उठाने में कोई कसर नहीं रह जाती। बहू के सामने कोई लिहाज नहीं करता। माँ को दुत्कार देता है। माँ के माध्यम से जबरन पैसे की माँग करता रहता है। क्या फर्क है रामलाल के दुख में और मेरे दुख में!
अगली सुबह मैं अपना दुख उसके साथ बाँटना चाहता था। लेकिन सुबह, वह ऐसे मिला जैसे बीती शाम कुछ हुआ ही न हो। मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने उसे टटोलना चाहा, ”रामलाल! ठीक तो हो न?“
”हाँ बाबू जी।“ कहकर चुप हो गया। शायद, कल के प्रसंग पर कोई बात नहीं करना चाहता था। उसके बुझे स्वर से लग रहा था कि वह दुखी ज़रूर है।
मैं उसे कुरेदना चाहता था। हैपी को चेन से खोल कर मैदान में घूमने के लिए छोड़ दिया। एक बड़े पत्थर पर बैठते हुए मैंने उससे बैठने को कहा तो वह लम्बी साँस लेते हुए बैठ गया, लेकिन फिर भी खामोश रहा। मैं अपनी अकुलाहट नहीं रोक पाया, ”तुम्हारा लड़का तो कम पढ़ालिखा है, पर मेरा तो खूब पढ़ालिखा होते हुए भी नालायक है। वह नहीं समझता कि बाप ने कितनी मुश्किल से लाखों रुपया फूँक कर प्राइवेट काॅलेज से उसे इंजीनियरिंग पढ़वाई कि चलो किसी लायक बन जाएगा लेकिन सब बेकार। कोई वैल्यू नहीं।“
”वह रहता तो टिपटाप है। कभी पैदल नहीं देखा आपके लड़के को, हमेशा मोटर साइकिल पर चलता है।“ उसने दिलचस्पी दिखाई। जैसे किसी सुनसान अनजान रास्ते में हमराही मिल गया हो।
“लेकिन यह नक्शेबाजी कब तक, जब तक बाप जिन्दा है!” मैंने कहा।
पहले कभी मैंने अपने बेटे की बुराई उससे नहीं की थी। हालाँकि मैं भी अपने पुत्र से असन्तुष्ट ही था। मेरी बात पर वह चहक उठा, “सच कहता हूँ बाबूजी! अगर हम न हों तो ये लड़के भीख माँगें।”
“भीख तो अभी ही माँगते हैं। अपने बाप से लड़ के, झगड़ के। बूढ़े बाप पर बोझ हैं।” धिक्कार सी मेरे मुँह से निकली।
“और करेंगे अपनी मनमर्जी की, माँबाप की एक नहीं सुनना।... बाबूजी हमने सुना है कि आपके लड़के ने अपनी मर्जी से शादी करी।” मेरा रुख देखते हुए वह तुरन्त बोल पड़ा। यह बात उसके मन में शायद कई दिनों से अटकी पड़ी थी।
“हाँ रामलाल। लेकिन तुम्हें कैसे मालूम ?”
“मुहल्ले वाले कहते हैं।”
मुझे आश्चर्य हुआ कि यहाँ रहते हुए ज्यादा समय भी नहीं बीता और न ही यहाँ मैंने कभी किसी से अपने बेटे की शादी के बारे में ज़िक्र किया, फिर भी सब जानते हैं!
“तुमने ठीक ही सुना है रामलाल! तुम्हारी बात भी सही है कि मेरा बेटा अपने मन की करता है। माँबाप क्या चाहते हैं, इससे उसे कोई मतलब नहीं।“ मेरे मन की बात बाहर आ गई।


मेरा बेटा चाहता था कि वह भी अपने साथियों की तरह इंजीनियर बने। पढ़ाई में उतना कुशाग्र न होने से प्री इंजीनियरिंग टेस्ट में वह दो बार असफल रहा। कानपुर जाकर मँहगी कोचिंग पढ़ी और जो परिणाम आया उसमें उसका रैंक बहुत नीचे था। मैंने सिम्पल ग्रेजुएशन करने की सलाह दी, जिससे बैंक या सरकारी नौकरी मिल सकती थी। मेरी बात न मानते हुये वह अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। अपनी माँ से सिफारिश करवाई। मैंने मजबूर होकर उसका गाज़ियाबाद के एक प्राइवेट इंजीनियरिंग काॅलेज में दाखिला करवा दिया। काॅलेज इतना सहयोगी था कि अपने कैम्पस के बैंक से एज्युकेशन लोन बड़ी आसानी से दिलवा दिया, जिससे वहाँ की तगड़ी फीस, हाॅस्टल, किताबों, लैपटाप आदि लाखों के सालाना खर्चों का एहसास हो ही नहीं पाया। बाद में बैंक के कर्जे को अतिरिक्त भार की तरह मैं जरूर महसूस करने लगा। बेटे के अपने खर्चे थे जिन्हें मैं किसी तरह खींच-तान कर पूरा करता।
काॅलेज बहुत तड़क-भड़क वाला था। ऊँचे लोग, ऊँचे सपने। संगत में मेरा बेटा भी स्वप्नजीवी होने लगा। वह लाखों के पैकेज और विदेश जाने की बातें करता, जो उसकी माँ से मुझे पता चलतीं। वह जब छुट्टियोें में घर आता तो उसके परिधान, जूते, चालढाल देखते हुए और बातें सुन-सुनकर मेरी पत्नी बहुत खुश होती। उसका पुत्रप्रेम उमड़ पड़ता। उसकी आँखों में भी पंख उग आए थे। माँ-बेटे उन दिनों जमीन पर नहीं होते। मैं अन्दर ही अन्दर घुटता।
बीटेक करने के बाद महानगरों में भटकने से उसे बोध हो गया था कि बंगलुरु या वैसे शहरों में उसकी खपत नहीं है। दिल्ली की प्लेसमेंट ऐजेंसियों के जरिए उसे लखनऊ, नोयडा, इन्दौर, देवास जैसे शहरों में अस्थाई नौकरियाँ तो मिलीं, लेकिन बाप की थोड़ी सी मदद से वहाँ कितना टिकता! जल्दी समझ में आ गया, सब मँहगे शहर हैं। अगर पर्याप्त आय नहीं तो फक्कड़ी और फाकामस्ती के सिवाय कुछ नहीं। मेरी तो उससे बहुत कम बात होती थी। एक दिन पत्नी के जरिए पता चला कि वह वापस आ रहा है। घर पर रहकर ही आईएएस, पीसीएस की तैयारी करेगा, अभी उम्र बाकी है। एक नया शगल!
वह घर लौटा तो उसके साथ लजाती-सी छोटे कद की एक कमनीय कन्या साथ थी। जो कटे हुए बाल, चेहरे के रखरखाव और पहनावे से पूर्ण आधुनिक थी। लड़की ने बड़ी नजाकत से झुकते हए मेरे और पत्नी के चरणस्पर्श कर लिये। बेटे ने बिना देर किसी झिझक के बता दिया कि दोनों साथ रहते हैं, अगर जरूरी समझें तो हमारी शादी करवा सकते हैं। हम पति-पत्नी भौंचक होकर उन्हें देखते रह गये। बेटे ने उसी दिन माँ को जता दिया कि फाँसी लगाने या रेल से कटने में उसे देर नहीं लगेगी। खैर, मन से या बेमन से उन्हें हमारा आशीर्वाद मिल गया और वे बिना किसी प्रतिरोध के परिवार का हिस्सा बन गए। पत्नी डरने लगी थी कि बेटा आवेग में कुछ कर न बैठे।
रामलाल को मैंने अपनी व्यथा-कथा पूरी तो नहीं सुनाई लेकिन आधी-अधूरी बातें बताकर अपने को कुछ हल्का करने की कोशिश जरूर की। मेरे बेटे के बारे में उसने एक मुहावरा कहा, ’पढ़ें फारसी, बेचें तेल।’
मैं रामलाम को इतना जरूर समझा पाया कि जमाना बदल रहा है और हमें ही सन्तानों से सामंजस्य बैठाना है। जितना हो सके बर्दाश्त करना है। वह मेरी बात से सहमत दिखाई दिया। हमारे बीच अन्तरंगता भी पनपने लगी थी। मिलने तो दिल खोलकर मिलते। गर्मी, बरसात, जाड़ा कैसा भी मौसम हो हमारे दुख-दर्द छन-छनकर बाहर आते रहे और एक-दूसरे को पता चलते रहे। हम दो बोझिल बूढ़े एक ही जर्जर नाव के सहसवार लगते, जिसके थके-हारे माँझी हम खुद थे।
एक दिन रामलाल ने खुश होकर बताया कि उसके लड़के को एक ठेकेदार के मार्फत सरकारी कालोनी में बिजली फिटिंग का लम्बा काम मिल गया है और वह अब मेहनत से काम कर रहा है।
रामलाल के लड़के के सपने उतने ऊँचे नहीं थे, इसलिए उसे कोई छोटे-मोटे काम करने में हिचक नहीं थी। मेरे बेटे के भटकाव के पीछे उसके सपने ही थे।


--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------


                परिचय               


बृज मोहन
जन्म: 1951, झाँसी।
पहली कहानी 1974 में प्रकाशित। अब तक चार दर्जन कहानियाँ सुपरिचित पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित।
पुस्तकें: तीन कहानी-संग्रह ’इसे जन्म लेने दो‘, ‘खिड़की’ व ‘मोपेड वाली लड़की’। दो उपन्यास- ‘नौ मुलाकातें’, क्रान्तिवीर मदारी पासी’। एक सम्पादित कहानी-संग्रह- ‘वल्लभ सिद्धार्थ की पारिवारिक कहानियाँ’।
नाटक: आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से चार व्यंग्य नाटिकाएँ प्रसारित।
पुरस्कार: ‘कथाबिंब’, मुम्बई द्वारा सर्वश्रेष्ठ कहानी पर ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार- 2015’
सम्मान : बुन्देलखण्ड साहित्य कला अकादमी, झाँसी द्वारा ‘मुंशी प्रेमचंद सम्मान 2015’
सम्प्रति : बैंक आॅफ़ बड़ौदा से सेवानिवृत्ति के बाद अब निरन्तर कहानी-लेखन व प्रकाशन।


सम्पर्क : ’मनोरम‘, 35, कछियाना, पुलिया नम्बर- 9, झाँसी-284003


-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------


एक दिन मैं अपनी जीवन बीमा पालिसी की आखिरी किश्त जमा करके लौटा तो पत्नी को बताया, “अब अगले साल अच्छी खासी रकम मिल जाएगी, इतनी कि तुम सोच नहीं सकतीं।”
“रकम अभी मिल जाती तो मुन्ना के काम आ जाती।” पत्नी ने ललक के साथ कहा।
’अभी मिलने का मतलब जानती हो?...मेरी मौत।’ मैंने कहना चाहा, पर कहा नहीं। उसकी बात का यह अर्थ भी हो सकता है, उसने सोचा नहीं होगा। वह तो हर समय सोचती है कि उसका मुन्ना बेटा कुछ करने लगे।
इधर बेटे पर एक नया भूत सवार हुआ था कि कम्प्युटर, लैपटाप, मोबाइल की बिक्री करेंगे, वह भी घर में दुकान खोलकर। उसके लिए पैसा चाहिए। ऐसी चीजों की दुकान से फायदा कमाना बहुत आसान है।
पढ़ी इंजीनियरिंग और करेंगे दुकानदारी! इंजीनियरिंग से विरक्ति के कारण थे, अब तक मिली असफलता और बैंक से एज्युकेशन लोन रिकवरी के नोटिस पर नोटिस मिलना। आय का óोत जरूरी है, बेटे के मन में जागा था।
पत्नी द्वारा उसका इरादा बताने पर मैंने जानना चाहा कि दुकान करेंगे, पर कहाँ! दुकान तो बाजार में तो मिलने से रही। न्यू मार्केट में भी तगड़ी पगड़ी चलती है। पत्नी के पास जवाब तैयार था कि अपना ड्राइंगरूम है न, बड़ा सा। उसमें सड़क वाली दीवार तोड़कर शटर लगवा लेंगे और फर्नीचर। बस इतना ही खर्चा है। दुकान खूब चलेगी। आजकल हर घर में कम्प्युटर, लैपटाप की जरूरत है और हर हाथ को मोबाइल। बस दुकान चाहिए, बिक्री के लिए माल तो बड़े दुकानदार दे ही देंगे। मुझे लगा कि पत्नी नहीं बेटा बोल रहा है। बेटे से तो मेरा बोलचाल लगभग बन्द सा हो गया था।
मैं बेटे से बात करना चाहता था लेकिन वह घर पर नहीं था। मैं स्पष्ट कर देना चाहता था कि अब मेरे पास इतना धन नहीं है कि व्यापार में लगा सकूँ। जो थोड़ा बहुत है, उससे हमारी दुख-बीमारी, हमारा बुढ़ापा और हमारी मौत-मिट्टी के खर्चे ही नहीं सँभाले जा सकते हैं।
वह देर से घर लौटा। रात हो चुकी थी। बहू ने गर्म-गर्म रोटियाँ सेंकीं। उसकी माँ ने चापलूसी करते हुए उसे खाना खिलाते समय बताया कि पापा बात करना चाहते हैं।
मैं ड्राइंगरूम में बैठा उसका इन्तजार कर रहा था। वह आया और खड़ा हो गया। चुपचाप। जैसे कभी हैपी पास आकर खड़ा हो जाता है, बेचारा कुछ बोल नहीं पाता।
बात मैंने शुरू की, “तुम्हारी अभी उम्र बाकी है, बैंक या सरकारी नौकरी के लिए प्रयास करो। व्यापार करना कोई आसान काम नहीं।”
“मैं बिजिनेस ही करूँगा, मुझसे पढ़ाई-लिखाई अब नहीं होती।“ अडिगता उसके स्वर में थी।
”बिजिनेस घर में नहीं होता, बाजार में खड़ा होना पड़ता है जिसके लिए बड़ी पूँजी चाहिए। अपना घर तो वैसे ही पिछड़ी बस्ती में है।“
”ऐसी जगह आपने मकान लिया ही क्यों? जब आप ले रहे थे तब ही मुझे ये एरिया पसन्द नहीं था, लेकिन आप नहीं माने।“
”उस समय जैसी सामथ्र्य थी वैसा लिया, तुम बाहर पढ़ रहे थे।“
”सामथ्र्य को देखते हुए ही तो घर में दुकान करना चाहता हूँ।“
”फिर भी पूँजी के लिए तो रुपये चाहिए, जो अब नहीं हैं।“
”क्या?“ उसने घोर आश्चर्य जताया, जैसे उसने कोई बड़ा झूठ सुना हो।
”हाँ बेटा। बिल्कुल गुंजाइश नहीं।“ मेरे मुँह से बहुत दिनों बाद उसके सामने बेटा शब्द निकला था।
”बिल्कुल गुंजाइश नहीं...“ उसने मेरे शब्द हिकारत से दुहराये।
मैं ख़ामोश रहा।
”रिटायरमेण्ट में मिले सब रुपये कहाँ गए?“ उसने ऐसे पूछा जैसे किसी वैधानिक अधिकार के तहत आॅडिट कर रहा हो।
मैंने चिल्लाकर कहना चाहा, सब तुम्हारे ऊपर खर्च हुए हैं। उन्हीं की दम पर तुम बड़े शहरों में टिककर सस्ती नौकरियाँ पकड़ते-छोड़ते रहे। एक छोकरी भी गले में माला की तरह पहनकर चले आए। उसे भी तुम्हारे साथ पाल रहे हैं। इन खर्चों का हिसाब रखा जा सकता है क्या! लेकिन सहनशील हाते हुए मैंने उसे धीरज से समझाने की कोशिश करनी चाही, ”तुम अच्छी तरह जानते होगे कि रिटायर हुए कितना समय हो गया और इस बीच जो खर्चे हुए वह सिर्फ पेन्शन से पूरे नहीं हो सकते थे। हम हर महीने संचित निधि भी खाते रहे हैं और अब कुछ बचा नहीं है। व्यापार में पैसा लगाने की अब सचमुच कोई गुंजाइश नहीं है।“
”गुंजाइश न रहने बाद भी आप इतनी बचत कर लेते हैं कि बीमा पालिसी चला रहे हैं।“
”वह रकम तुम्हारे ही काम आयेगी।“
”क्या आप अभी मरने वाले हैं, जो बीमा कम्पनी मुझे रुपये थमा देगी ?“ उसकी तैश भरी आवाज़ सुनकर पत्नी और बहू पर्दा हटाकर कमरे में आ गईं, जो शायद दरवाजे के पास खड़ीं पर्दे के पीछे से वार्तालाप सुन रही थीं।
पत्नी रोने लगी, ”ऐसे बोल नहीं बोलते मुन्ना। ये लो मेरे गहने तुम अपना धन्धा शुरू करो।“
पत्नी ने अपने कंगन उतार कर उसकी ओर बढ़ा दिए। कंगनों से उसका भावनात्मक लगाव था, जिनसे जीवन के कुछ सुखद प्रसंग भी जुड़े थे।
कमरे में सन्नाटा छा गया। बोझिल वातावरण में कोई भी ज्यादा देर ठहर नहीं सका। सब चुपचाप बारी-बारी से चले गए। पहले बेटा निकला। उसके पीछे बहू और भारी कदमों से पत्नी। मैं ड्राइंगरूम में अकेला रह गया। मुझे वहीं सोना था। पर मुझे नींद नहीं आई। करवटें बदलते रात गुजरी। सोचता रहा मुझे अपनी जिन्दगी में पुत्रसुख नहीं ही मिल पाया है। रात, और रातों के मुकाबले बहुत ठण्डी और लम्बी लग रही थी।
सुबह होने लगी तो मुझसे और लेटा नहीं गया। बिस्तर छोड़ दिया। गर्म कपड़ों के ऊपर लम्बी जैकेट पहनी और कानों पर मफलर बाँधकर बाहर निकल पड़ा। आज हैपी को साथ नहीं ले जाना चाहता था। वह साथ-साथ गेट तक आया लेकिन मैंने उसे अन्दर ही रहने दिया। वह छटपटा कर गेट के सींखचों पर दो पैरों से खड़ा होकर कूँकूँ करने लगा तो उसे साथ लेना पड़ा, लेकिन उसे मेंने चेन से नहीं बाँधा। बिना बँधे घूमने में वह बहुत खुश रहता था। मेरे आगे दौड़ता हुआ बढ़ता गया। मैदान में पहुँच कर यहाँ-वहाँ दौड़-दौड़कर कोहरे में ओझल हो गया। वह भी वहाँ के भूगोल से परिचित था।
गलन और कोहरे में डूबी सुबह बहुत उदास लग रही थी। उजाला पूरी तरह नहीं हुआ था। तेज रेलगाड़ियाँ रोशनी से घने कोहरे को चीरती शोर मचाती सामने से बारी-बारी से गुजर रही थीं। रात की बातें लगातर ठोकर मारकर मुझे आहत कर रही थीं। अचानक लगा कि मरना बहुत आसान है। पटरी पर अपनी गर्दन रखने की हिम्मत चाहिए। बस। कष्ट तो होगा, पर कितनी देर! मेरे शरीर में तो वैसे ही अनेक व्याधियाँ हैं। मेरे मर जाने से बीमा कम्पनी से रकम जल्दी मिल जायेगी। पत्नी के कंगन बिकने से बच जायेंगे। कदम रेल पटरियों की तरफ बढने लगे। दूर से आती हुई ट्रेन की रोशनी दिखाई दी। कोहरे को चीरती हुई रोशनी पास आ रही थी। मैं पटरियों के किनारे पड़ी पत्थर की गिट्टियों के पास रुका। रोशनी से आँखें चैंधियाईं और इंजन का बहुत तेज हाॅर्न सुनाई पड़ा, जो शायद मेरे लिए ही बजाया गया था। मैंने कानों पर हाथ रखकर आँखें बन्द कर लीं, परन्तु आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं थी। भयंकर जाड़े में भी मेरे शरीर से पसीना छूटने लगा। घबड़ाहट में बुरी तरह लड़खड़ा गया। ट्रेन चिंघाड़ती हुई गुजर गई। आखिरी डिब्बे के जनरेटर की भन्नाहट बाकी थी, जिसमें रामलाल की आवाज़ भी भन्ना रही थी, ”राजधानी एक्सप्रेस थी बाबूजी... आप तो मुझे शिक्षा देते थे लेकिन आज आप खुद....“
पसीने से तरबतर मेरे काँपते शरीर को रामलाल थामे था और हैपी पिछले दो पैरों पर पूरा खड़ा होकर मुझसे लिपटा जा रहा था। मुझे लगा, दोनों मिलकर मेरा बोझ साधे हैं और धराशायी होने से रोके हैं।


नूतन कहानियां मासिक के मार्च 2019 अंक में प्रकाशित यह कहानी कापीराइट एक्ट के तहत पुर्न प्रकाशन प्रतिबंधित