ईशा की पांचवी सदी में शाही राजा खिंगल ने अफगानिस्तान के गर्देज स्थान पर महाविनायक की प्राण प्रतिष्ठा कराई थी।
समय के साथ सभ्यता के ऊपर धूल चढ़ती गई और महाविनायक की प्रतिमा मिट्टी में कहीं दब गई।
युगों बाद खुदाई में जब वह प्रतिमा मिली तो उसे काबुल में "दरगाह पीर रतन नाथ" के पास स्थापित किया गया।
कहानी महाविनायक की।
दो वर्ष पूर्व बिहार का एक युवक अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास में नौकरी करने पहुँचा। स्वयं को यायावर कहने वाले उस युवक को अफगानिस्तान के प्राचीन महाविनायक के सम्बंध में पता था, सो वे महाविनायक के चिन्ह खोजने निकले। पर अफगानिस्तान में सनातन के चिन्ह जितने ही सुलभ हैं, उन्हें खोज लेना उतना ही दुर्लभ। कई दिनों नहीं कई महीनों के बाद उन्हें पीर रतन नाथ दरगाह का पता चला तो वे एक दिन पहुंचे। पहुंचे तो एक ऐसा घर मिला जिसे भारत में मंदिर नहीं कह सकते। उस मंदिर में प्रतिमा स्थापित नहीं थी, बस रामायण महाभारत और गीता आदि पुस्तके रखी हुई थीं।
युवक ने सेवादार से जब महाविनायक की प्रतिमा के बारे में पूछा तो बुजुर्ग सेवादार आश्चर्य में डूब गया। क्या कोई दूर देश से मात्र एक प्रतिमा के लिए आया है? कौन है यह?
भावुक हो चुके सेवादार ने एक बन्द कमरे में रखी महाविनायक की प्रतिमा दिखाई... युगों बाद किसी ने श्रद्धा से महाविनायक को देखा, युगों बाद महाविनायक की प्रतिमा ने अपने किसी श्रद्धालु को वात्सल्य की दृष्टि से देखा। उस दिन युगों बाद किसी ने अभिशप्त महाविनायक के चरणों में प्रणाम किया, प्रतिमा पोंछी और बीस रुपये वाले माला से उनका श्रृंगार किया।
जानते हैं, ढाई हजार वर्ष पूर्व अफगानिस्तान के हर कण्ठ से वेदमन्त्र उच्चारित होते थे, गलियों में यज्ञध्रुम की सुगन्ध पसरी रहती थी। "वसुधैव कुटुंकम" की अवधारणा को जन्म देने वाली उस पूण्य भूमि पर सौ वर्ष पूर्व तक सनातन धर्म पूरी प्रतिष्ठा के साथ खड़ा था। पर आज का सत्य यह है कि अफगानिस्तान से महाविनायक पर लेख लिख कर जब उस युवक ने भारत भेजा तो पत्रिका के सम्पादक ने भय के मारे लेख में उनका नाम तक नहीं जोड़ा, कि कहीं उन्हें अफगानिस्तान में इसका दण्ड न भोगना पड़े।
सभ्यताओं के चिन्ह कैसे मरते हैं देखेंगे? काबुल में एक अत्यंत प्राचीन तीर्थस्थल है 'आशा माई'। पस्तो प्रभाव के कारण वहां के लोग उस स्थान को 'कोही आस्माई' कहते थे, मतलब आशामाई की पहाड़ी। बीस वर्ष पूर्व सरकार ने उस पहाड़ी पर टेलीविजन का टावर लगा दिया, लोग धीरे धीरे उस स्थान को "कोही टेलीविजन" कहने लगे। आशामाई का नाम मिट गया।
काबुल में ही एक सड़क थी, देवगनाना रोड। देवगनाना संस्कृत के "देवगणानाम" का अपभ्रंस है। अब उस सड़क का नाम है, दे-अफ़ग़ान रोड। सभ्यता के चिन्ह ऐसे मरते हैं।
देश में लोकतंत्र का महापर्व चल रहा है। मत देना हमारा कर्तव्य भी है, और हमारी आवश्यकता भी। अपने घरों से निकलिए, और मत देते समय इतना अवश्य याद रखिए कि अब हमारे पास धरती का यही एक टुकड़ा है जहाँ हम अपनी परम्पराओं को निभा सकते हैं, महाविनायक की अर्चना कर सकते हैं। ऐसा ना हो कि सौ पचास वर्षों बाद किसी दूसरे Lalit Kumar को इसी तरह दिल्ली, आगरा, मथुरा या कानपुर में अपने चिन्ह खोजने आना पड़े। यकीन मानिए 200 वर्ष पहले काबुल के हिंदुओं ने भी ऐसा नहीं सोचा होगा कि 200 वर्ष बाद हमारा कोई बच्चा जब काबुल आएगा तो उसे अपने पूर्वजों के चिन्ह इस दशा में मिलेंगे। 1946 ईस्वी तक सिंध के लोगों ने यह नहीं सोचा होगा कि पचास वर्ष बाद ही उनसे उनकी सम्पति, उनका धर्म, उनकी बेटियां, उनके बेटे सबकुछ छीन लिए जाएंगे।
हम सभ्यताओं के युद्ध में जी रहे हैं। हमको छोड़कर हर सभ्यता हमारी परम्पराओं को अपराध और हराम बताती है, और मूर्ति तथा मूर्तिपूजकों की समाप्ति को ही अपना परम् उद्देश्य मानती है। उनकी तलवार हमारी गर्दन पर है... यही है हमारा आज का सत्य।
मैं यह नहीं कह रहा कि आप फलाँ दल को वोट दीजिये। मैं क्यों कहूँ? मैं बस यह कह रहा हूँ कि मत देते समय ध्यान रखिये कि मत अपने देश के लिए देना है। मत इसलिए देना है ताकि देश मे फिर कोई हत्यारा गुरु गोविंद सिंह जी के साहिबजादों को दीवाल में न चुनवा सके। मत इसलिए देना है ताकि फिर किसी बिरसा मुंडा को अपनी संस्कृति के लिए प्राण न देना पड़े। मत इसलिए देना है ताकि फिर किसी पद्मावती को अग्नि में न उतरना पड़े। मत इसलिए देना है ताकि अयोध्या, मथुरा, काशी, कांची, पूरी, अवंतिका बनी रहे। मत इसलिए देना है ताकि हजार वर्षों बाद भी जब हमारा कोई बेटा इस मिट्टी को सूँघे तो उसे इस मिट्टी में हमारी गन्ध मिल सके। मत इसलिए देना है ताकि हमारा देश हमारा ही रहे। अपना देश रहेगा तभी हम रहेंगे।