दण्डी स्वामी बनने के लिए संबंधित व्यक्ति को सबसे पहले अपनी तेरही करनी पड़ती है। बताया जाता है कि दण्डी स्वामी संतों में सबसे उच्च कोटि के संत माने जाते है। इस सम्प्रदाय का संत बनने के लिए ब्राहा्रण होना अनिवार्य हैं। ब्राहा्रमण के अलावा अन्य जाति व वर्ग के लोगों को इस सम्प्रदाय का संत बनने की मान्यता नहीं है।
दण्डी स्वामी आद्य शंकराचार्य के दस शिष्यों में से हैं। इन दस शिष्यों में गिरी, पुरी, वन, पर्वत, सागर, भारतीय और तीर्थ अपने गुरू के द्वारा बताये गये नियमों का पालन करते थे परन्तु इनके अतिरिक्त सात शिष्य परम्परा के पालन करने में कोई आचार विचार नहीं रखते थे। यह बात शंकराचार्य जी को जब पता चली तो उन्होंने सभी शिष्यों की परीक्षा लेने का निश्चय किया। ऐसा निश्चय करके वे अपने इन सभी दसों शिष्यों को साथ लेकर चल पड़े। कुछ दूर जाने के बाद एक शराब की दुकान मिली जहां बहुत से शराबी बैठकर मदिरा का पान कर रहे थे। शंकराचार्य जी वहां रूककर अपना खप्पर आगे बढ़ा दिया। जिसमें दूध भर गया। लेकिन उनके शिष्यों ने सोचा कि गुरू जी के खप्पर में शराब ही डाली गयी। लेकिन यह तो शंकराचार्य की माया थी। शंकराचार्य के द्वारा दूध का पान करने के बाद आश्रम, सरस्वती और तीर्थ इन तीन शिष्यों केा छोड़कर अन्य सात शिष्यांे के साथ आगे बढ़ गये। कुछ दूर जाने के बाद एक स्थान पर शीशा गलाया जा रहा था वहां भी शंकराचार्य जी अपना खप्पर बढ़ा दिया जिसमें दूध भर गया और उन्होंने शीघ्र ही उसे पान कर लिया। वहां उनके किसी भी शिष्य ने गले हुए शीशे का पान नहीं किया। इस पर उक्त सातों शिष्यों से पूॅछा गया कि इस बार आप लोगों ने शीशे का पान क्यों नहीं किया जबकि गुरू जी ने कर लिया। इस पर उन्हेांने कहा कि शीशा पीने से प्राण निकल जायेंगे। उनके इस उत्तर को सुनकर आद्य शंकराचार्य जी वापस लौटकर अपने आश्रम में आ गये।
वहां उन्होंने अपने सात शिष्यों जिन्होंने शराब का पान किया था और शीशे का नहीं, से दण्ड वापस ले लिया। मगर आश्रम सरस्वती और तीर्थ इन शिष्यों से दण्ड वापस नहीं लिया उन्होंने इन तीन शिष्यों को चारों पीग्ड़ों मे से तीन का उत्तराधिकारी बनाया चैथे पीठ को उक्त सातों शिष्यों को इस शर्त के अनुसार सौपा कि इस पीठ पर भी नियंत्रण उक्त तीन शिष्यों आश्रम सरस्वती और तीर्थ का रहेगा। तभी से दण्डी स्वामियों का इतिहास आज तक चला आ रहा है।
दण्डी स्वामी परम्परा के अनुसार ब्राहा्रण परिवार का खास तौर से वह व्यक्ति जिसके घर में कोई नहीं हो वह इसका सम्प्रदाय संत बनना चाहता है तो उसे सबसे पहले गुरू के पास जाना पड़ता है। गुरू उसे तीन दिन का व्रत कराते हैं। पहले दिन के व्रत में दण्डी स्वामी बनने वाले व्यक्ति को व्रत रखा कर उसका छौर कर्म व उसे स्नान कराया जाता है। दूसरे दिन व्रत जारी रखाते हुए पुरखों समेत स्वयं उसका पिण्डदान कराते हैं। दूसरे दिन की ही रात में उससे विजया हवन कराया जाता है। इस नियम के अनुसार पुरी रात तक हवन कराया जाता है। तीसरे दिन प्रातःकाल उसे गुरू के पास ले जाया जाता है। जहां गुरू उसे नग्न करके उसे अपने सामने बैठाते हैं और उसके शिर पर भगवान शालिगराम को रखकर उसका अभिषेक कराते है। अभिषेक पूरा होने पर गुरू जी उसे मंत्र देते है। मंत्र लेने के बाद दण्डी स्वामियों के कुछ नियम भी बताते हैं जो बहुत ही कठिन है।
दण्डी स्वामी परम्परा के अनुसार दण्डी स्वामी बनने के बाद उसे खाना बनाकर खाना तो दूर उसे आग के समीप भी नहीं जाना चाहिए। भोजन करने के लिए प्रतिदिन उसे तीन ब्राहा्रणों के घरों में से भिक्षा मांगना पड़ता पड़ता है। यदि तीन घरों में से पर्याप्त भोजन नहीं मिला तो उसे दो घरों से और भिक्षा मांगने की छूट है। यदि पांचा ब्राहा्रणों के घरों से भिक्षा न मिलें तो इतने ही क्षत्री के घरों से भिक्षा न मिलेें तो इतने ही क्षत्री के घरों से भिक्षा मांगने का विधान है। इनमें अंतर केवल इतना है कि ब्राहा्रण के यहां से कच्चा पका हुआ फलाहार ही खाया जा सकता है। यदि किसी कारण वश क्षत्रियों के यहां से भी भोजन न मिले तो उसे पांच घर वैश्यों के यहां से भिक्षा मांगने का विधान है। वैश्यों के यहां से बिना पकाया हुआ फलाहार लेने का विधान है। यदि उनके यहां भी किसी कारण से भिक्षा न मिले तो दण्डीस्वामिनी को शूद्र के यहां से भी फल लेने का विधान है। इस सम्प्रदाय में ऐसा मान्यता है कि ब्राहा्रण और क्षत्री के यहां यदि तीन दिन तक कहीं भोजन न मिले तो वह वैश्य व शूद्र के यहां से भिक्षा मांगकर अपनी क्षुधा तो भरे लो-कन उसके बदले अगले तीन दिनों तक उपवास करना पड़ता है।
इस संबंध में वयोवृद्ध दण्डी स्वामी शंकरानंद सरस्वती जी महाराज ने बताया कि दण्डियों को इन सबके अलावा अकेले रहना चाहिए। जो लोग कुटी बनाकर रहते हैं उन्हें कुटीचर तथा बिना आश्रम के रहने वाले दण्डी स्वामी को विरक्त कहते है। उन्हेांने बताया कि दण्डी स्वामियों को प्रतिदिन परम्परा के अनुसार 27 हजार मंत्रों कमा जाप करना पड़ता है। उन्होंने बताया कि कुछ स्थानों पर तो सवा लाख मंत्र एक दिन में जपस करने का विधान है। श्री महाराज जी पिछले चालीस वर्षो से बड़े हनुमान के बगल बांध के नीचे अपना आश्रम बनाकर निवास कर रहे है।